“हम सब मिलकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रारंभ कर रहे हैं”

“हम सब मिलकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रारंभ कर रहे हैं”
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आज से ठीक 100 वर्ष पूर्व एक 36 वर्ष के युवक ने अपने 17 मित्रों के बीच कहकर प्रारम्भ किया "राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ"
लोकेन्द्र सिंह

“हम सब मिलकर संघ प्रारंभ कर रहे हैं”। 27 सितंबर 1925 को विजयादशमी के पावन प्रसंग पर अपने घर पर आयोजित 17 लोगों की बैठक में यही वाक्य डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने कहा था। ठीक उसी प्रकार, जैसे छत्रपति शिवाजी महाराज ने श्री रायरेश्वर महादेव को साक्षी मानकर अपने 9 मित्रों के साथ ‘हिन्दवी स्वराज्य’ की स्थापना का संकल्प लिया था। कहते हैं जब संकल्प शुभ हों, तो ईश्वर उन्हें साकार करने में स्वयं सहायता करते हैं। अपनी अनुभूतियों के आधार पर संघ के स्वयंसेवक अपने संघकार्य को ईश्वरीय कार्य कहते हैं। संघ स्थापना की बैठक में विश्वनाथ केलकर, भाऊजी कावरे, डा.ल.वा. परांजपे, रघुनाथराव बांडे, भय्याजी दाणी, बापूराव भेदी, अण्णा वैद्य, कृष्णराव मोहरील, नरहर पालेकर, दादाराव परमार्थ, अण्णाजी गायकवाड, देवघरे, बाबूराव तेलंग, तात्या तेलंग, बालासाहब आठल्ये, बालाजी हुद्दार और अण्णा साहोनी ने विचार-विमर्श के बाद नए संगठन तथा नई कार्य पद्धति का श्रीगणेश किया। डॉक्टर साहब ने सबके सामने प्रश्न रखा कि “संघ में प्रत्यक्ष क्या कार्यक्रम किए जाएं, जिससे हम कह सकें कि संघ शुरू हो गया?” यह प्रश्न उचित ही था। सबने अपने-अपने सुझाव दिए। सबके विचार सुनने के बाद में डॉक्टर साहब ने कहा कि संघ शुरू करने का अर्थ है कि “हम सभी को शारीरिक, बौद्धिक और हर तरह से खुद को ऐसा तैयार करना चाहिए कि अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें”। स्मरण रहे कि आरएसएस जब प्रारंभ हुआ, उस दिन उसका नाम, संविधान, पदाधिकारी, कार्यशाला, सूचना पट्ट, समाचार-पत्रों में प्रचार, चन्दा, सदस्यता आदि पर कोई चर्चा नहीं हुई थी। बस अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए संघ प्रारंभ करना है, यही एक संकल्प था। अब प्रश्न है कि यह लक्ष्य क्या था?


उस समय देश में अंग्रेजों का प्रभुत्व था। स्वराज्य के लिए हम संघर्ष कर रहे थे। डॉक्टर हेडगेवार जी भी स्वराज्य के सब प्रकार के आंदोलन में शामिल थे। क्रांतिकारियों के साथ भी उन्होंने काम किया, राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में भी कार्य का अनुभव उनके पास था। वर्ष 1915 से 1924 तक अपने विविध अनुभवों के आधार पर डॉक्टर साहब ने विचार किया कि इन मार्गों से देश स्वतंत्र नहीं होगा और देश स्वतंत्र हो जाएगा तब उस स्वतंत्रता को अक्षुण्य कैसे रख सकेंगे? उन्होंने उन कारणों की पड़ताल की, जिनके कारण भारत पर बार-बार बाहर से आक्रमण हो रहे थे। बहुत विचार करने के बाद डॉ. हेडगेवार इस परिणाम पर पहुँचे कि भारतीय समाज में राष्ट्रभक्ति और आत्मगौरव की भावनाओं को जगाए बिना देश की स्वतंत्रता को अक्षुण्य नहीं रखा जा सकता है। इसके लिए हिन्दू समाज का संगठन आवश्यक है। देश की सर्वांगीण स्वतंत्रता प्राप्त करने एवं उसका संरक्षण करने के लिए हिन्दू समाज को संगठित होने की अनिवार्य आवश्यकता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों को स्वतंत्रता से पूर्व जो प्रतिज्ञा करायी जाती थी, उसमें स्वयंसेवक ईश्वर को साक्षी मानकर संकल्प लेते थे कि “मैं हिन्दूराष्ट्र को स्वतंत्र कराने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का घटक बना हूँ”।

नागपुर में मोहिते के बाड़े में 6 लोगों के साथ पहली शाखा प्रारंभ हुई, जिनमें 5 छोटे बच्चे थे। इस कारण उस समय में लोगों ने हेडगेवार का उपहास उड़ाया था कि बच्चों को लेकर क्रांति करने आए हैं। किसने सोचा था कि मोहिते के बाड़े से निकलकर संघकार्य देश-दुनिया में फैल जाएगा और संघ विश्व का सबसे बड़ा सामाजिक एवं सांस्कृतिक संगठन बन जाएगा। वर्तमान में सम्पूर्ण भारत के कुल 924 जिलों (संघ की योजना अनुसार) में से 98.3 प्रतिशत जिलों में संघ की शाखाएँ चल रही हैं। कुल 6,618 खंडों में से 92.3 प्रतिशत खंडों (तालुका), कुल 58,939 मंडलों (मंडल अर्थात 10–12 ग्रामों का एक समूह) में से 52.2 प्रतिशत मंडलों में, 51,710 स्थानों पर 83,129 दैनिक शाखाओं तथा अन्य 26,460 स्थानों पर 32,147 साप्ताहिक मिलन केंद्रों के माध्यम से संघ कार्य का देशव्यापी विस्तार हुआ है, जो लगातार बढ़ रहा है। इन 83,129 दैनिक शाखाओं में से 59 प्रतिशत शाखाएँ छात्रों की हैं तथा शेष 41 प्रतिशत व्यवसायी स्वयंसेवकों की शाखाओं में से 11 प्रतिशत शाखाएँ प्रौढ़ (40 वर्ष से ऊपर आयु) स्वयंसेवकों की हैं। बाकी सभी शाखाएँ युवा व्यवसायी स्वयंसेवकों की हैं।

प्रारंभिक दिनों में संघ के आज के समान प्रतिदिन के कार्यक्रम नहीं थे। केवल इतनी अपेक्षा थी कि सभी किसी भी व्यायामशाला में जाकर पर्याप्त व्यायाम करें। संघ के सभी स्वयंसेवक नागपुर की ‘महाराष्ट्र व्यायामशाला’ के एकत्र आते थे। वहीं, रविवार के दिन सभी स्वयंसेवक ‘इतवारी दरवाजा पाठशाला’ में एकत्र होते थे। कुछ दिनों पश्चात् मार्तण्डराव जोग की देखरेख में सैनिक प्रशिक्षण भी प्रारम्भ कर दिया गया। प्रारम्भ में कुछ महीनों तक रविवार और गुरुवार को राजकीय वर्ग (जिसे 1927 के बाद ‘बौद्धिक वर्ग’ कहा जाने लगा) होता था। इस वर्ग में देश की वर्तमान परिस्थिति, अपने कर्तव्य का बोध और संगठन मजबूत करने के लिए क्या प्रयत्न किए जाएँ, इसकी जानकारी दी जाती थी। रोचक तथ्य है कि 6 महीने तक संघ का नामकरण ही नहीं हुआ था। दरअसल, डॉक्टर हेडगेवार ने प्रारंभ से ही संघ में सामूहिक निर्णय की परंपरा डाली। संघ प्रारंभ किया, तब भी अकेले घोषणा नहीं की। संघ का नाम भी स्वयं नहीं सुझाया। लगभग 6 माह बाद 17 अप्रैल 1926 को एक बार फिर 26 कार्यकर्ता डॉक्टर साहब के घर पर बैठे। उस बैठक में अपने संगठन के लिए इन प्रमुख नामों का सुझाव आया- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जरिपटका संघ, भारतीद्धारव मंडल और हिन्दू स्वयंसेवक संघ इत्यादि। इनमें से सर्वसम्मति से ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ का नाम स्वीकार किया गया। रामटेक के रामनवमी मेले में यात्रियों के सहयोग के लिए प्रथम बार स्वयंसेवकों ने ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ के नाम से सहभाग किया।

इस प्रकार संघ की विशिष्ट कार्यपद्धति का विकास एवं विस्तान धीरे-धीरे होता गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज जिस विराट स्वरूप में दिखायी देता है, ऐसा स्वरूप उसके बीज में ही निहित था। शिक्षा के संदर्भ में स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि “शिक्षा मनुष्य में पहले से ही विद्यमान पूर्णता की अभिव्यक्ति है”। विद्यार्थी को केवल उपयुक्त वातावरण की आवश्यकता होती है। अपने संघ कार्य के बारे में डॉक्टर साहब ने भी कहा है कि “मैं कोई नया कार्य प्रारंभ नहीं कर रहा हूँ। यह पहले से हमारी संस्कृति में है। परंपरा से चले आ रहे व्यक्ति निर्माण का कार्य करने के लिए यह तंत्र अवश्य नया है”। जब हम आरएसएस की 100 वर्ष की यात्रा का सिंहावलोकन करते हैं तो संघ के विकास के पाँच चरण प्रमुखता से दिखायी देते हैं-

1. संगठन (1925 से 1950)

2. कार्य विस्तार (1950 से 1988)

3. सेवाकार्यों को गति (1889 से 2006)

4. समाज की सज्जनशक्ति के साथ कदमताल (2006 से 2025) : श्री गुरुजी की जन्मशती से संघ की 6 गतिविधियों की शुरुआत।

मजबूत संगठन ही कार्य का आधार :

अपनी स्थापना के बाद पहले चरण में संघ नेतृत्व ने पूरा ध्यान संगठन की जड़ों को मजबूत करने पर दिया। क्योंकि डॉक्टर साहब देख रहे थे कि भविष्य में स्वयंसेवकों को समाज जीवन के विविध क्षेत्रों में कार्य करना है, उसके लिए मजबूत संगठन चाहिए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय सह प्रचार प्रमुख नरेन्द्र कुमार लिखते हैं कि “डॉ. हेडगेवार ने संघ स्थापना का लक्ष्य सम्पूर्ण हिन्दू समाज को संगठित कर हिन्दुत्व के अधिष्ठान पर भारत को समर्थ और परमवैभवशाली राष्ट्र बनाना रखा। इस महत्वपूर्ण कार्य हेतु वैसे ही गुणवान, अनुशासित, देशभक्ति से ओत-प्रोत, चरित्रवान एवं समर्पित कार्यकर्ता आवश्यक थे। ऐसे कार्यकर्ता निर्माण करने के लिए उन्होंने एक सरल, अनोखी किन्तु अत्यंत परिणामकारक दैनन्दिन ‘शाखा’ की कार्यपद्धति संघ में विकसित की”। नागपुर के बाहर भी संघ की शाखाएं शुरु होनी चाहिए इसी उद्देश्य के साथ 18 फरवरी, 1926 को डॉक्टर साहब अप्पाजी जोशी के पास वर्धा गए। अर्थात् नागपुर के बाहर वर्धा में पहली शाखा लगी। 1930 से डॉक्टर साहब ने कार्यकर्ताओं को प्रचारक के रूप में देश के अलग-अलग हिस्सों में भेजकर शाखाएं शुरु करायीं। भाऊराव देवरस (लखनऊ), राजाभाऊ पातुरकर (लाहौर), वसंतराव ओक (दिल्ली), एकनाथ रानाडे (महाकौशल), माधवराव मूळे (कोंकण), जनार्दन चिंचालकर एवं दादाराव परमार्थ (दक्षिण भारत), नरहरि पारिख एवं बापूराव दिवाकर (बिहार) और बालासाहब देवरस (कोलकाता) ने संघ कार्य का विस्तार करना शुरू किया। परिणामस्वरूप, लगभग एक दशक बाद देशभर में 600 से अधिक शाखाएँ और लगभग 70,000 स्वयंसेवक सक्रिय हो गए। वर्ष 1939 तक दिल्ली, पंजाब, बंगाल, बिहार, कर्नाटक, मध्य प्रांत, बंबई (वर्तमान महाराष्ट्र और गुजरात) में संघ शाखाएँ लगनी शुरू हो गईं। सन् 1940 तक असम तथा उड़ीसा छोड़कर शेष सभी प्रान्तों में संघ शाखाएँ प्रारम्भ हो गई थीं। डॉक्टर साहब 15 वर्षों तक संघ के पहले सरसंघचालक रहे। इस दौरान शाखाओं के माध्यम से संगठन खड़ा करने की प्रणाली उन्होंने विकसित कर ली थी। डॉक्टर साहब कहते थे- “अच्छी संघ शाखाओं का निर्माण कीजिए, उस जाल को अधिकतम घना बुनते जाइए, समूचे समाज को संघ शाखाओं के प्रभाव में लाइए, तब राष्ट्रीय स्वतंत्रता से लेकर हमारी सर्वांगीण उन्नति करने की सभी समस्याएं निश्चित रूप से हल हो जाएंगी”।

संघ ठीक प्रकार से चले इसके लिए प्रशिक्षण का महत्व ध्यान में आया तब 1927 से संघ शिक्षा वर्ग प्रारंभ किए गए। पहले वर्ग 17 चयनित कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण हुआ, तब इसे ‘अधिकारी शिक्षण वर्ग’ कहते थे। 1940 में आयोजित संघ शिक्षा वर्ग में 1400 स्वयंसेवक शामिल हुए थे। तब डॉक्टर साहब ने कहा था कि “मैं अपनी आँखों के सामने एक लघु भारत देख रहा हूँ”। संघ कार्य को दृढ़ करने के लिए संगठन का आत्मनिर्भर होना आवश्यक है। इसी दृष्टि से डॉक्टर साहब ने 1928 में गुरु दक्षिणा की अभिनव पद्धति प्रारंभ करके संघ को स्वावलंबी बना दिया। उसी वर्ष पहली बार ‘प्रतिज्ञा’ कार्यक्रम भी सम्पन्न हुआ। प्रतिज्ञा, संघ कार्य के प्रति स्वयंसेवकों के मन में श्रद्धा एवं निष्ठा उत्पन्न करती है।

संपूर्ण देश में कार्य विस्तार :

स्वतंत्रता के बाद संघ के विकास का दूसरा चरण प्रारंभ होता है, जिसमें संघ कार्य का विस्तार संपूर्ण भारत में होता है। संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के निधन के बाद सरसंघचालक का दायित्व माधव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्य ‘श्रीगुरुजी’ को मिला। जून, 1940 से श्रीगुरुजी के नेतृत्व में संघ की वैचारिक यात्रा के साथ-साथ संगठनात्मक विस्तार भी प्रारंभ हुआ। श्रीगुरुजी ने पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं (प्रचारकों) की नयी पद्धति को जन्म दिया। वर्ष 1941-42 में उन्होंने कार्यकर्ताओं से प्रचारक के रूप में अपना जीवन संघ को देने का आग्रह किया, जिसका परिणाम यह हुआ कि बड़ी संख्या में प्रचारक आगे आए। ये प्रचारक देश के विभिन्न हिस्सों में गए और संघ कार्य को प्रारंभ किया। स्वयं श्रीगुरुजी ने भी देशभर में प्रवास किया। उन्होंने अपने 33 वर्ष के कार्यकाल में 66 बार देश की परिक्रमा की। उनके बराबर देश का भ्रमण शायद ही किसी और नेता ने किया हो। उनके लिए गीत लिखा गया- “गाड़ी मेरा घर है कहकर, जिसने की दिन-रात तपस्या”। देश के विभाजन की घोषणा के बाद पाकिस्तान में इस्लामिक आतंक का शिकार हो रहे हिन्दुओं को सुरक्षित निकालकर भारत लेकर आने का बड़े दायित्व का निर्वहन भी श्रीगुरुजी की प्रेरणा से संघ के स्वयंसेवकों ने किया। महात्मा गांधी की हत्या का झूठा आरोप लगाकर संघ को कुचलने का निंदनीय प्रयास भी 1948 में किया गया, जिसका उत्तर श्रीगुरुजी के नेतृत्व में हजारों स्वयंसेवकों ने सत्याग्रह करके दिया। देशभर में आयोजित सत्याग्रहों में शामिल हो रहे स्वयंसेवकों की संख्या ने बता दिया था कि संघ किसी की मुट्‌ठी में नहीं आएगा।

देशभर में संघ की शाखाएं प्रारंभ होने से संघकार्य राष्ट्रव्यापी हो गया। संघ के स्वयंसेवक समाज परिवर्तन में अपनी भूमिका निभाएं और संघकार्य सर्वव्यापी एवं सर्वस्पर्शी बने, इस संबंध में श्रीगुरुजी ने स्वयंसेवकों का मार्गदर्शन करना प्रारंभ कर दिया। श्रीगुरुजी की प्रेरणा से संघकार्य को सर्वव्यापी और सर्वस्पर्शी बनाने के लिए स्वयंसेवकों ने समाज जीवन के विविध क्षेत्रों में समविचार संगठन प्रारंभ किए। सबसे पहले 1949 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की स्थापना की गई। 1951 में जनसंघ, 1952 में वनवासी कल्याण आश्रम एवं विद्या भारती, 1955 में भारतीय मजदूर संघ और 1964 में विश्व हिन्दू परिषद जैसे संगठन प्रारंभ हुए। शिक्षा, कृषि, कला, राजनीति, विज्ञान सहित विविध क्षेत्रों भारत के ‘स्व’ के आधार पर कार्य खड़ा हो, इसके लिए आज उपरोक्त संगठनों के साथ ही भारतीय किसान संघ, सेवा भारती, संस्कार भारती, लघु उद्योग भारती, स्वदेशी जागरण मंच, प्रज्ञा प्रवाह जैसे 32 से अधिक संगठन समाज जीवन में सक्रिय हैं। ये सभी संगठन अपने-अपने क्षेत्र में बहुत प्रभावी हैं।

सेवाकार्यों को गति :

सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत कहते हैं कि “सेवा कार्यों की प्रेरणा के पीछे हमारा स्वार्थ नहीं है। हमें अपने अहंकार की तृप्ति और अपनी कीर्ति-प्रसिद्धि के लिए सेवा-कार्य नहीं करना है। यह अपना समाज है, अपना देश है, इसलिए हम कार्य कर रहे हैं। स्वार्थ, भय, मजबूरी, प्रतिक्रिया या अहंकार, इन सब बातों से रहित आत्मीय वृत्ति का परिणाम है यह सेवा।” संघ ने अपने विकास के तीसरे चरण के अंतर्गत 1988-89 में संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार जी की जन्मशताब्दी के प्रसंग से सेवा कार्यों को अधिक गति और व्यवस्थित रूप देने का निर्णय लिया। इसी क्रम में 1990 में संघ में विधिवत सेवा विभाग प्रारंभ हुआ। हालांकि, संघ के बीज में प्रारंभ से ही सेवा का भाव निहित था। स्वयंसेवकों के लिए सेवा अलग से करने का विषय नहीं है। संघ का मानना है कि सेवा करणीय कार्य है। यद्यपि डॉ. हेडगेवार की जन्मशताब्दी के अवसर पर सम्पूर्ण समाज को प्रेम और आत्मीयता के आधार पर संगठित करने की दिशा में सेवा कार्यों को गति देना महत्वपूर्ण कदम था। वर्तमान समय में संघ की ओर से अभावग्रस्त क्षेत्र एवं लोगों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, संस्कार और स्वावलंबन के विषयों पर ग्रामीण और नगरीय क्षेत्रों में लगभग 1 लाख 29 हजार सेवा कार्य चलाए जा रहे हैं। इस बीच संघ ने श्रीरामजन्मभूमि आंदोलन का नेतृत्व भी किया। वर्षों से चले आ रहे इस आंदोलन में संघ ने नये प्राण फूंक दिए। आज परिणाम स्वरूप हमें श्रीराम की जन्मभूमि पर भव्य राममंदिर दिखायी दे रहा है, जिसमें श्रीरामलला विराजमान हैं।

वर्ष 1989 में डॉ. हेडगेवार जन्म शताब्दी समारोह समिति बनी, जिसमें सुभाष बाबू के सहायक निहारेन्दु दत्त मुजुमदार अध्यक्ष और रज्जूभैया महासचिव बने। शताब्दी वर्ष के दौरान 2 लाख 16 हजार 284 गाँवों में 76 हजार 427 सभाएं हुईं, 67 लाख जनता ने सहभाग किया। इस दौरान संघ कार्य को जन-जन तक पहुँचाने के लिए व्यापक जनसंपर्क अभियान भी चलाया गया, जिसमें ‘गर्व से कहो हम हिन्दू हैं’, ‘संगठित हिन्दू समर्थ भारत’, ‘नर सेवा नारायण सेवा’ जैसे स्टीकर, पत्रक तथा डॉक्टर साहब के जीवन की पुस्तक ‘संघ वृक्ष के बीज’ वितरित की गई। वर्ष 2000 में जब संघ के 75 वर्ष पूर्ण हुए तक स्वयंसेवकों ने 4 लाख 25 हजार गाँवों तक व्यापक संपर्क किया। ‘अमृत बाजार पत्रिका’ में कम्युनिस्ट नेता उदयन ने लिखा कि संघ ने एक साधारण व्यक्ति की जन्मशती को महत्वपूर्ण बना दिया जबकि उसी समय पंडित जवाहरलाल नेहरू की जन्मशती केवल सरकारी व्यवस्था में रह गई।

समाज की सज्जनशक्ति के साथ कदमताल :

संघ के विकास का चौथा चरण वर्ष 2006 में श्री गुरुजी की जन्मशती के साथ प्रारंभ होता है। श्रीगुरुजी का जन्म शताब्दी वर्ष संघ ने महत्त्वपूर्ण सामाजिक आयोजनों के साथ मनाया। इस अवसर पर खंड स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक हिंदू सम्मेलन और समरसता बैठकों की श्रंखला आयोजित की गई। देशभर में विभिन्न स्थानों पर बड़े-बड़े हिन्दू सम्मेलनों का आयोजन किया गया। जिनमें समाज के सभी वर्गों, जातियों एवं मत-पंथों के लोगों ने सहभागिता की। पूरे वर्ष चले इन आयोजनों में लगभग 1 करोड़ 60 लाख सामान्य लोगों, 13,000 संतों एवं 1,80,000 सामाजिक नेताओं ने भाग लिया। 2006 के दौरान गाँव-गाँव, खंड-खंड में आयोजित समरसता बैठकों ने समाज में फैले भेदभाव को मिटाने और एकता का संदेश देने का काम किया।

समाज की सज्जनशक्ति को साथ लेकर समाज परिवर्तन के कार्य में स्वयंसेवक सक्रिय हों, इसके लिए संघ ने श्रीगुरुजी की जन्मशती के प्रसंग पर 6 गतिविधियों- सामाजिक समरसता, पर्यावरण संरक्षण, समग्र ग्राम विकास, गोसेवा, कुटुंब प्रबोधन और धर्मजागरण- की शुरुआत की। यह ऐसे कार्य हैं, जिनमें समाज का सामान्य व्यक्ति भी जुड़ना चाहता है। सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी कहते हैं कि संघ की सभी गतिविधियां समाज परिवर्तन का साधन है। परिवर्तन के नाम पर राज्य व्यवस्था बदल जाती है, लेकिन उससे सभी बीमारी ठीक नहीं होती है। समाज के स्वभाव में परिवर्तन होना चाहिए। हमें धर्म आचरण करने वाला समाज बनाना है।

संघमय बने समाज :

2 अक्टूबर, 2025 को संघ 100 वर्ष की यात्रा पूर्ण करके अपने पाँचवे चरण में प्रवेश करने जा रहा है। संघ और समाज के लिए यह पाँचवा चरण बहुत महत्वपूर्ण रहनेवाला है। संघ अपने पाँचवे चरण में समाज के साथ एकरस होना चाहता है। यानी संघ जिन उद्देश्यों को लेकर चला है, वह समाज के उद्देश्य बन जाएं। यानी भारतीय समाज संघमय हो जाए। समाज और संघ में कोई अंतर न दिखे। संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार ने कहा था कि हमें अपने संगठन को अंनतकाल तक नहीं चलाना है। अपितु अपने उद्देश्य को जल्द से जल्द प्राप्त करके समाज में संघ का विसर्जन कर देना है। संघ के अखिल भारतीय सह प्रचार प्रमुख नरेन्द्र कुमार लिखते हैं कि “संघ के स्वयंसेवक अपने परिवार में संघ जीवन शैली को अपनाते हुए समाजानुकूल परिवर्तन करने का निरन्तर प्रयास करते हैं। साथ ही व्यापक समाज परिवर्तन के लिए विभिन्न प्रकार के उपक्रम नियमित रूप से करते रहते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शताब्दी वर्ष के पश्चात समाज परिवर्तन के अगले चरण में प्रवेश कर रहा है। और यह समाज जागरण का एक बड़ा और व्यापक अभियान होगा। इस चरण में स्वयंसेवक समाज की सज्जन शक्ति के साथ मिलकर कार्य करने की दिशा में अग्रसर होंगे। इस हेतु समाज में जागरूकता निर्माण करने के लिए और व्यक्तिगत, पारिवारिक जीवन में व्यवहार में लाने के लिए पाँच विषयों का आग्रह है। इसे पंच परिवर्तन कहा गया”। अपने शताब्दी वर्ष में संघ अपने कार्य का विस्तार और दृढ़ीकरण भी कर रहा है ताकि समाज की सज्जनशक्ति के साथ मिलकर प्रभावी ढंग से राष्ट्रीय कार्य को सम्पन्न किया जा सके।

हम 100 वर्ष की संघ साधना में सरसंघचालकों की भूमिका, प्रभाव एवं योगदान को देखते हैं, तब हमें ध्यान आता है कि प्रत्येक सरसंघचालक ने संघ को नये क्षितिज दिए। संघकार्य को नये फलक पर लेकर गए। सरसंघचालकों के साथ संघ की पहली पीढ़ी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का बीजारोपण किया। दूसरी पीढ़ी ने संघकार्य को राष्ट्रव्यापी बनाया। तीसरी पीढ़ी ने संघ कार्य को सर्वस्पर्शी-सर्वव्यापी बनाया। चौथी पीढ़ी ने संघकार्य को सर्वस्वीकार्य बनाया। पाँचवी पीढ़ी संघ कार्य को यशस्वी बना रही है। उसे सार्थक एवं सफल कर रही है।

संघ के सरसंघचालक :

डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार (1925-1940) :

• डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने 36 वर्ष की उम्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। इन्हें आद्य सरसंघचालक कहा जाता है।

• संघ की स्थापना के बाद 19 दिसंबर, 1926 को डॉ. हेडगेवार को संघ के मुख्य संयोजक (चालक) की जिम्मेदारी दी गई। जबकि सरसंघचालक पद का निर्माण 9 और 10 नवंबर 1929 को नागपुर में आयोजित बैठक में हुआ, तब उन्हें सरसंघचालक के रूप में दायित्व दिया गया।

• आपका जन्म 1 अप्रैल सन् 1889 को हुआ। उस दिन विक्रम संवत् 1946 की वर्ष प्रतिपदा थी।

• 13 वर्ष की उम्र में केशव ने प्लेग की बीमारी में अपने माता-पिता को खो दिया।

• आप जन्मजात देशभक्त थे। स्कूल में ब्रिटिश महारानी की हिरक जयंती की मिठाई खाने से इनकार कर ब्रिटिश सत्ता के प्रति अपना विरोध दर्ज कराया।

• लोकमान्य तिलक से प्रभावित होकर आप स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हुए। क्रांतिकारियों की संस्था ‘अनुशीलन समिति’ के सदस्य रहे। चिकित्सा की शिक्षा प्राप्त करने के लिए कलकत्ता जाने का निर्णय ही क्रांतिकारियों के साथ काम करने की दृष्टि से लिया था।

• महात्मा गांधी के आह्वान पर स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेते हुए 1921 में कटोल एवं भरतवाड़ा में दिए गए आक्रामक भाषणों के कारण आपको देशद्रोह के आरोप लगाकर गिरफ्तार कर, जेल भेज दिया गया।

• सन् 1930 में डॉक्टर साहब ने कई स्वयंसेवकों को साथ लेकर जंगल-सत्याग्रह में भाग लिया। उन्हें इस कारण सजा हुई और उन्हें अकोला (विदर्भ) कारागार में रखा गया।

• 26 जनवरी, 1930 को सभी शाखाओं पर स्वतंत्रता दिवस मनाने के लिए उन्होंने पत्र लिखा।

• 1934 में महात्मा गांधी ने वर्धा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शिविर का दौरा किया और डॉ. हेडगेवार से भेंट की।

• 20 जून, 1940 को नेताजी सुभाष चंद्र बोस संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार से मिलने के लिए आए लेकिन अत्यधिक स्वास्थ्य खराब होने के कारण डॉक्टर साहब से उनकी कोई चर्चा नहीं हो सकी।

• 20 जून को ही डॉक्टर साहब ने सबकी उपस्थिति में माधव सदाशिवराव गोलवलकर ‘श्रीगुरुजी’ को सरसंघचालक नियुक्त किया।

• 21 जून, 1940 को डॉक्टर साहब का नागपुर में निधन हुआ। उस समय उनकी आयु केवल 51 वर्ष की थी।

श्री माधव सदाशिवराव गोलवलकर ‘श्रीगुरुजी’ (1940-1973) :

• सरसंघचालक के नाते श्रीगुरुजी ने सबसे अधिक समय 33 वर्ष तक संघ का मार्गदर्शन किया।

• विक्रम संवत् 1962 के फाल्गुन कृष्ण एकादशी के दिन श्रीगुरुजी का जन्म हुआ। दिनांक के अनुसार 19 फरवरी, 1906 को।

• श्रीगुरुजी ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से प्राणिशास्त्र में एम.एस.सी. की उपाधि प्राप्त की।

• सन् 1930 में श्रीगुरुजी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्राणिशास्त्र के प्राध्यापक के रूप में नियुक्त हुए। तब से उन्हें ‘गुरुजी’ नाम प्राप्त हुआ।

• काशी में रहते हुए उनका संघ से घनिष्ठ परिचय हुआ। काशी में ही उनका डॉ. हेडगेवार जी से परिचय हुआ।

• प्राध्यापक रूप में दो वर्ष कार्य करने पर वे नागपुर लौटे और वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण की, किन्तु वकालत कभी नहीं की।

• श्रीगुरुजी का आकर्षण अध्यात्म की ओर बढ़ा। नागपुर के रामकृष्ण आश्रम में उनका जाना बढ़ता गया। वे बंगाल के सारगाछी आश्रम में पहुँचे। स्वामी विवेकानंद के गुरु भाई स्वामी अखण्डानन्द इस आश्रम के प्रमुख थे। गुरुजी ने उनसे संन्यास की दीक्षा ली।

• सन् 1938 के नागपुर संघ शिक्षा वर्ग के सर्वाधिकारी रूप में उन्हें नियुक्त किया गया।

• सन् 1939 में श्रीगुरुजी को संघ का सरकार्यवाह बनाया और डॉक्टर जी की मृत्यु के पश्चात् 21 जून, 1940 के दिन वे सरसंघचालक हुए।

• श्रीगुरुजी के कार्यकाल में सबसे कठिन वर्ष सन् 1948 था। महात्मा गांधी की हत्या के बहाने संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। श्रीगुरुजी को भी गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया था।

• श्रीगुरुजी के दृढ़ और कुशल नेतृत्व से संघ प्रतिबंध और झूठे आरोपों की अग्नि-परीक्षा से सकुशल बाहर निकला।

• विभाजन की विभीषिका में पाकिस्तान से हिन्दुओं को सकुशल भारत लाने में श्रीगुरुजी की महत्वपूर्ण भूमिका रही।

• जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय करने के लिए श्रीगुरुजी ने महाराजा हरि सिंह से मुलाकात की और उन्हें समझाया। उसके बाद महाराजा हरिसिंह विलय के लिए तैयार हो गए।

• 1952 में देशव्यापी गो-रक्षा आंदोलन का मार्गदर्शन किया। गो-हत्या पर प्रतिबंध लगाने के लिए एक करोड़ 79 लाख 89 हजार 332 लोगों ने हस्ताक्षर किए।

• संघ कार्यपद्धति के विकास में महत्वपूर्ण सिंदी (महाराष्ट्र) बैठक मार्च 1954 में सम्पन्न हुई।

• 1955 में आपके मार्गदर्शन में ही संघ के स्वयंसेवकों ने गोवा मुक्ति आंदोलन शुरू किया।

• श्रीगुरुजी के प्रयासों से 13-14 दिसंबर, 1969 को उडुपी में आयोजित धर्म संसद में देश के प्रमुख संत-महात्माओं ने एकसुर में समरसता के मंत्र का उद्घोष किया।

• श्रीगुरुजी को सन् 1971 से कर्क रोग (कैंसर) ने घेर लिया। मुम्बई में उनकी चिकित्सा भी हुई। शल्य क्रिया के पश्चात् कुछ समय विश्राम कर उन्होंने पुनः देशव्यापी प्रवास आरम्भ किया। अन्त में 5 जून, 1973 को नागपुर में उनका देहावसान हुआ।

श्री बालासाहब देवरस (1973-1993):

• तृतीय सरसंघचालक श्री बाळासाहेब देवरस का पूरा नाम मधुकर दत्तात्रय देवरस। मार्गशीर्ष शुक्ल 5, सन् 1915 को आपका जन्म हुआ। आपकी सम्पूर्ण शिक्षा नागपुर में ही हुई।

• डॉ. हेडगेवार जी ने उन्हें बंगाल प्रान्त का कार्य करने भेजा; किन्तु शीघ्र ही उन्हें नागपुर बुला कर नागपुर के कार्य का दायित्व सौंपा।

• आप नागपुर नगर कार्यवाह, सह सरकार्यवाह, सन् 1965 में सरकार्यवाह और सन् 1973 में श्री गुरुजी के देहावसान के पश्चात् सरसंघचालक रहे।

• जब आप सरसंघचालक हुए तब आपकी आयु 58 वर्ष की थी और मधुमेह की बीमारी से ग्रस्त थे; लेकिन अपनी बीमारी की चिन्ता न करते हुए उन्होंने डॉ. हेडगेवार जी द्वारा स्थापित और गुरुजी द्वारा विस्तार-प्राप्त संघ को और अधिक बढ़ाया।

• आपके प्रयास से संघ में सेवा कार्य प्रभावी हुए।

• सन् 1975 में प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगाया और संघ पर भी अलोकतांत्रिक ढंग से प्रतिबंध लगा दिया। संघ के हजारों कार्यकर्ताओं को ‘मीसा’ नाम के काले कानून के अन्तर्गत कारागारों में डाल दिया। देश में आपातकाल के विरुद्ध बड़ा आंदोलन संघ ने बालासाहब जी के मार्गदर्शन में चलाया।

• अयोध्या आंदोलन (1992) के कठिन समय में भी आपने आरएसएस का नेतृत्व किया।

• सन् 1992 में स्वास्थ्य खराब होने से श्री बाळासाहेब के लिए प्रवास करना कठिन हो गया। बोलने में भी कठिनायी होने लगी। तब उन्होंने स्वयं सरसंघचालक के दायित्व से निवृत्त होने का निर्णय लिया और सन् 1994 में श्री राजेन्द्र सिंह (रज्जू भैया) को अपना उत्तराधिकारी अर्थात् सरसंघचालक के रूप में नियुक्त किया।

• स्वयं दायित्व छोड़कर नये सरसंघचालक की घोषणा करने की नयी परंपरा देवरस जी ने ही शुरू की। जिसका पालन अभी तक हो रहा है।

• छुआछूत के विरुद्ध बालासाहब देवरस जी ने बहुत बड़ा बयान दिया था, जिसका उल्लेख आज भी किया जाता है- "यदि अस्पृश्यता पाप नहीं है तो दुनिया में कुछ भी पाप नहीं है"।

• 1973 से 1994 तक 21 वर्षो में सरसंघचालक के रूप में आपने संघ को अनेक नये विचार दिय, हिन्दुत्व पर आने वाली किसी भी चुनौती को उन्होंने अस्वीकार नहीं किया। 1983 में तामिलनाडु के भीपाक्षीपुरम ग्राम में जब कुछ हिन्दुओं ने सामूहिक रूप से मुस्लिम पथ स्वीकार कर लिया तो सारे देश में इसकी आलोचना हुई। पर श्री बालासाहब ने इस चुनौती को स्वीकार कर किया तथा धर्मान्तरण के इस कुचक्र को तोड़ने के लिए सार्थक पहल की

• परिवार में जब सम्पत्ति का बंटवारा हुआ तो बालासाहब और भाऊराव के हिस्से में चिखली (नागपुर) तथा कारंजा (मध्यप्रदेश) की कुछ खेती वाली भूमि आई । चिखली की भूमि, मकान, हल-बैल आदि तो उन्होंने उसे जोतने-बोने वाले नौकर ‘चिन्धबाजी’ को ही नाममात्र के मूल्य पर दे दी। उसे यह भी छूट दी कि वह जब चाहे धीरे-धीरे अपनी सुविधानुसार इनका मूल्य चुका दे। जबकि कारंजा की भूमि को बेचकर उसका समस्त पैसा डाक्टर हेडगेवार स्मारक समिति को दे दिया गया।

• 17 जून, 1996 को पुणे के ‘रूबी शल्य क्लीनिक’ चिकित्सालय में उनका निधन हुआ।

प्रो. राजेन्द्र सिंह ‘रज्जू भैया’ (1993-2000) :

• 11 मार्च, 1994 को प्रो. राजेन्द्र सिंह को बालासाहब देवरस जी ने सरसंघचालक नियुक्त किया। संघ के इतिहास में यह पहली घटना थी कि सरसंघचालक के जीवित रहते उनके उत्तराधिकारी की घोषणा की गई।

• रज्जू भैया का जन्म 1922 में हुआ। उनके पिताजी श्री कुंवर बलवीर सिंह उत्तर प्रदेश शासन के सिंचाई विभाग में अभियन्ता थे।

• रज्जू भैया की प्राथमिक पढ़ाई नैनीताल में हुई। बाद की शिक्षा प्रयाग विश्वविद्यालय में हुई। केवल 21 वर्ष की आयु में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से भौतिक शास्त्र में एम.एस.सी. की पदवी प्राप्त की। पूरे विश्वविद्यालय में उनका द्वितीय क्रमांक था। तुरन्त ही वे विश्वविद्यालय में प्राध्यापक के रूप में नियुक्त किए गए।

• 1942 के “भारत छोड़ो आन्दोलन” में रज्जू भैय्या ने सक्रियता से भाग लिया।

• नोबल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक डॉ. सीवी रमन एमएससी अन्तिम वर्ष की परीक्षा लेने प्रयाग आये तो वे रज्जू भैया की प्रतिभा से इतने प्रभावित हुए कि उन्हें बंगलूरू चलकर अपने साथ शोध कार्य में सहायक बनने का निमंत्रण दिया।

• उत्तर प्रदेश में संघ कार्य की बढ़ती आवश्यकता को देखकर सन् 1966 में रज्जू भैया ने स्वेच्छा से भौतिक शास्त्र विभागाध्यक्ष पद से त्यागपत्र दिया और वे संघ के प्रचारक बने।

• आप 1978 में संघ के सरकार्यवाह बने। 1987 तक इस पद पर कार्य करते रहे। स्वास्थ्य के कारण उन्होंने 1987 में वह पद छोड़ा और नूतन सरकार्यवाह श्री हो.वे. शेषाद्रि के सहयोगी के रूप में सह सरकार्यवाह के नाते कार्य करते रहे।

• प्रो. राजेन्द्र सिंह ऐसे पहले सरसंघचालक हैं, जिन्होंने विदेश में जाकर वहाँ के हिन्दू स्वयंसेवक संघ के कार्यों का निरीक्षण किया। इस हेतु इंग्लैंड, मारिशस, केनिया, दक्षिण अफ्रीका आदि देशों में उनका प्रवास हुआ।

• आपने भी स्वास्थ्य कारणों से अपने दायित्व को छोड़ते हुए 10 मार्च, 2000 को नागपुर में आयोजित अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में श्री कुप.सी. सुदर्शन की सरसंघचालक के नाते घोषणा की।

• 14 जुलाई, 2003 को रज्जू भैया जी का पुणे में स्वर्गवास हो गया।

श्री कुप. सी. सुदर्शन (2000-2009) :

• रायपुर में 18 जून, 1931 को श्री सुदर्शन जी का जन्म हुआ। रायपुर, दमोह, मण्डला तथा चन्द्रपुर में प्रारम्भिक शिक्षा पूर्ण करने के बाद उन्होंने जबलपुर (सागर वि.वि.) से 1954 में दूरसंचार विषय में बी.ई. की उपाधि प्राप्त करते ही संघ के माध्यम से समाज कार्य करने के लिए प्रचारक जीवन स्वीकार कर लिया।

• 1964 में उन्हें मध्य भारत प्रान्त-प्रचारक का दायित्व मिला। 1969 से 1971 तक अखिल भारतीय शारीरिक शिक्षण प्रमुख का दायित्व तथा 1979 में उन्हें अखिल भारतीय बौद्धिक शिक्षण प्रमुख का दायित्व मिला। 1990 में उन्हें सह सरकार्यवाह का दायित्व सौंपा गया।

• अपने पूर्ववर्ती सरसंघचालकों की परिपाटी का पालन करते हुए श्री सुदर्शन जी ने मार्च, 2009 में नागपुर में आयोजित अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में नवीन सरसंघचालक के रूप में डॉ. मोहन भागवत जी की घोषणा कर दी।

• सुदर्शन जी दायित्व निवृत्ति के बाद भी देशभर में प्रवास करते रहे। 15 सितम्बर, 2012 को रायपुर में अकस्मात् आपका निधन हो गया।

• आप अहिन्दी भाषी होकर भी शुद्ध हिन्दी के आग्रही थे। एक बार देश के प्रतिष्ठित समाचारपत्र के मुख्यालय में पहुँच गए और उनके सामने उस दिन का समाचार पत्र रख लिया, जिस पर सुदर्शन जी ने अंग्रेजी के शब्दों पर लाल पेन से गोले लगा रखे थे।

• सुदर्शन जी विभिन्न संप्रदायों के साथ संवाद के आग्रही थे।

डॉ. मोहन भागवत (2009 से अब तक) :


• 11 सितम्बर, 1950 को महाराष्ट्र के चन्द्रपुर में जन्मे डॉ. मोहन भागवत जी ने अकोला स्थित पंजाबराव कृषि विद्यापीठ से पशु चिकित्सा विज्ञान में स्नातक उपाधि प्राप्त की।

• पशु चिकित्सा विज्ञान में स्नातकोत्तर अध्ययन अधूरा छोड़ वे आपातकाल में संघ के प्रचारक बन गए।

• आपके पिता मधुकरराव भागवत ने गुजरात प्रांत में प्रचारक के रूप में कार्य किया था।

• 1977 में अकोला में प्रचारक, 1981 में नागपुर विदर्भ, प्रान्त प्रचारक, 1989 में अ.भा. सह शारीरिक प्रमुख, फिर 1991 में शारीरिक शिक्षण प्रमुख तथा एक वर्ष तक प्रचारक प्रमुख रहे।

• सन् 2000 में वे सरकार्यवाह के पद पर निर्वाचित हुए और सन् 2009 से संघ के छठे सरसंघचालक हैं।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक हैं)

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