स्वाधीनता की पहचान "हिंदी"
डॉ. प्रेरणा चतुर्वेदी
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'देश के कामकाज के लिए अपनी भाषाओं का प्रयोग ही व्यावहारिक एवं राष्ट्रीय स्वाभिमान दोनों दृष्टियों से आवश्यक है।'
पं दीनदयाल उपाध्याय का यह कथन आज भी प्रासंगिक है ।हिंदी में 17 बोलियां समाहित हैं । इनमें प्रमुख हैं- कन्नौजी, खड़ी बोली, ब्रज, बांगरु, बुंदेली, अवधी, मारवाड़ी, भोजपुरी, मैथिली ,गढ़वाली, आदि। इस प्रकार हिंदी की सीमा अति विस्तृत है । भाषा का स्वरुप निरंतर परिवर्तनशील है। वह जल प्रवाह की भांति गतिशील रहता है । तभी उसमें नया रूप आता रहता है ।
देववाणी संस्कृत के बाद पालि,प्राकृत, अपभ्रंश, अवहट्ट से होते हुए "हिंदी "आई ।
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हिंदी पूरे राष्ट्र को एकीकरण करने में पूर्णता सफल रही । भाषा केवल मन के विचारों के अभिव्यक्तिकरण का सशक्त माध्यम ही नहीं अपितु उसकी जननी भी है । ज्ञातव्य है कि लाखों प्रयत्नों के बावजूद भारतीय आत्मा की अभिव्यक्ति किसी विदेशी भाषा में संभव ही नहीं हो पायी गहै।
यद्यपि स्वतंत्रता बाद हिंदी को सार्वदेशिक कामकाज के लिए प्रशासनिक भाषा रूप में स्वीकार किया गया था । किंतु उसी समय हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने का राजनीतिक विरोध भी शुरू हो गया । जिसका तात्कालिक समाधान करते हुए अंग्रेजी को सहभाषा का तथा प्रशासनिक एवं तकनीकी कामकाज की भाषा का स्थान प्राप्त हो गया। समय के साथ-साथ अंग्रेजी को मुख्य भाषा और हिंदी को गौड़ भाषा बना दिया गया । जिस प्रकार स्वतंत्रता बाद देश का अपना ध्वज स्वीकृत हुआ । जिससे सभी देशवासियों की मनोभाव एकरस रूप में प्रकट होता है।
उसी प्रकार देश की अपनी एक राष्ट्रभाषा भी होनी चाहिए थी । जिस पर प्रत्येक देशवासी को गर्व हो बिना किसी वाद- विवाद के ।
आज 70 वर्षों से भारत में निरंतर यही समझाने का प्रयास चल रहा है कि, आंग्ल भाषा के द्वारा ही वाह्य दुनिया को समझा जा सकता है। वहां अपना स्थान बनाया जा सकता है ।किंतु वाह्य दुनिया को समझने एवं वहां की संस्कृति को सहर्ष स्वीकार करते -करते भारतीय धीरे-धीरे अपनी जड़ों से ,अपनी संस्कृति,आचार- विचार , साहित्य, इतिहास, धर्म-दर्शन, सभी से दूर होते जा रहे हैं ।
विश्व समस्याओं का हल करने में सदियों से भारतीय संस्कृति सामर्थ्यवान रही है। सभी भारतीय भाषाएं राष्ट्रीय भाषाएं हैं । संस्कृत पूरे भारत की भाषा है ।लेकिन हिंदी भारत की पहचान है।
त्रिभाषा सूत्र में हिंदी -अंग्रेजी एवं स्थानीय भाषा को महत्व मिला था । जबकि इस क्रम में भाषाओं की मूल 'संस्कृत' उपेक्षित हो गई। संस्कृत की उपेक्षा हिंदी एवं भारतीय भाषाओं को आधारहीन बनाएगी। इसका समाधान निकालने हेतु स्थानीय भाषाओं को राज्यों की भाषा बनाया जा सकता है ।केंद्र एवं राज्य में 2 भाषाओं का प्रयोग उचित होगा। जबकि उत्सव एवं अन्य कार्यक्रमों में संस्कृत भाषा का प्रयोग होना चाहिए । इसके साथ ही अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भी संस्कृत का प्रयोग होना चाहिए ।
मुगल काल में फारसी कामकाज की भाषा थी। किंतु तब भी वह जनता की भाषा नहीं बन सकी। ज्ञातव्य है कि ,जन भाषा ब्रज ,अवधी, और मैथिली में ही सूरदास, तुलसीदास और विद्यापति आदि कवि महान काव्य ग्रंथों की रचना करते रहे ।जो जनप्रिय होने के साथ ही कालजयी रचनाओं के रूप में आज भी विद्यमान हैं ।स्वतंत्रता संग्राम में भी उर्दू नहीं बल्कि हिंदी ही ब्रिटिश सरकार के विरोध की भाषा बनी ।
वास्तव में हिंदी ही हमारी स्वाधीनता की पहचान है ।
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