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फादर आॅफ माॅब लिंचिंग को एक स्वयंसेवक का आइना

यशवंत इंदापुरकर

फादर आॅफ माॅब लिंचिंग को एक स्वयंसेवक का आइना
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यह दौर नए-नए शब्दों के हथियारों के साथ विरोधी पर हमलावर होने का हैं। सूचना क्रांति की आंधी में नए शब्द आते हैं, लोगों के दिलो दिमाग पर कुछ-कुछ असर छोड़कर आगे बढ़ते हैं और जब तक कोई उनकी वास्तविकता समझ पाए तब तक कोई नया शाब्दिक हथियार जन्म ले चुका होता हैं। हिन्दी में अंग्रेजी के शब्द ज्यादा प्रभावी लगने की विडंबना के मध्य पिछले दिनों शब्द चला था ''इनटाॅलरेंस''। बुद्धिजीवियों के एक समूह ने इसके सहारे असहिष्णुता का भूचाल मचा दिया। और अब एक नया हथियार आया है "माॅब लिचिंग"। हिन्दी अर्थ बताया गया हैं भीड़ की हिंसा, अवसर हैं वे घटनाएं जिनमें निशाने पर आए अल्पसंख्यक या अनुसूचित जाति के बंधु और उद्देश्य हैं एक विचार धारा पर प्रहार जिसके चलते कईयों की हवा पानी खतरे में है, दुकानों के शटर ड़लने लगे है।

हमला होगा तो जवाबी हमला तो होना ही है, इसी सिद्धान्त के तहत एक नई उपाधि सुनने में आई ''फादर आॅफ माॅब लिंचिंग''। शायद यह अप्रिय शब्द मीडिया की प्रभावी ताकतों के कानों खटकने वाला होने से उतना ध्यान नहीं खींच पाया, कि संयोगवश तथाकथित "फादर आॅफ माॅब लिंचिंग" के सुपुत्र श्रीमान राहुल गांधी जी ने सिख विरोधी हिंसा में अपनी पार्टी की भूमिका को साभार सधन्यवाद नकारते हुए साढ़े तीन दशक पुरानी उस भयानक मानवीय त्रासदी की यादें ताजा कर दीं ,जो भारत की सहिष्णु, सह्दय भूमि पर एक कलंक के रूप में याद की जाती है।

हथियार उलटा असर करता हुआ दिखाई दे रहा हैं, जिस विचार को ''माॅब लिंचिंग" की प्रेरणा बताया जा रहा था, उससे उलट अतीत के मात्र कुछ ही पन्ने पलटने पर वे भयानक दानवी चेहरे दिखाई देने लगे हैं जो छुट पुट 10-20-25 नहीं हजारों की दर्दनाक मौतों के कारक बने। वे ''माॅब लिचिंग'' नहीं मास माॅब लिचिंग, खुदरा सामान बेचने वाले नहीं वरन गगनचुंबी गोदामों की गद्दी पर बैठे थोक व्यापारियों की तरह मौतों का तांडव लेकर आए थे।

याद करें तो 1984 के दंगों के साथ जोड़कर याद किए जा रहे "फादर आॅफ माॅब लिचिंग" अर्थात स्व. श्रीमान राजीव गांधी के पूर्वजों और उनकी की पार्टी के साथ 1947 के विभाजन का पिशाच भी खड़ा दिखाई देता हैं। 84 के हजारों कत्लेआमों से भी भयावह मानव इतिहास की शर्मनाक त्रासदी के रूप में इसे याद किया जाता रहेगा, भारत विभाजन के दौर का वह नरसंहार जिसमें लाखों लोगों को भीड की हिंसा का शिकार बनाया गया, क्या विश्व उसे भूल सकेगा ?

जिस विचारधारा को लेकर बुद्धिजीवियों की यह "सेल्फ मेड-हाइली पेड" जमात विधवा विलाप करती हैं, उसी विचारधारा के लोगों ने दोनों ही त्रासदियों में जान की बाजी लगाकर मानवता की रक्षा की। निरापराध नरों को कत्लेआम, माॅ बहनों को पाशविकता के चंगुल से बचाया। शरणार्थी शिविरों में अपने खून पसीने से इन उजड़े हुओं की सेवा घर आए मेहमानों की भाॅति की। 1947 की विभाजन की त्रासदी की घटनाएं हो या 84 दंगो का निरापराध सिख कत्लेआम, संघ के जाबांज स्वयंसेवकों ने या यूं कहें कि हिन्दू दर्शन के मूल विश्व बंधुत्व के तत्व को जीवन में उतारने वालों ने अपने मानव होने के कर्तव्य को बखूबी निभाया।

ऐसे सैकड़ो रोमांचित कर देने वाले उदाहरण इतिहास के पन्नों में अंकित हैं जिनमें जान की बाजी लगाकर संघ के स्वयंसेवकों ने निर्दोषों की रक्षा की। संघ की प्रेरणा से पत्रकारिता के क्षेत्र में अपनी 51 वर्षीय साधना से एक श्रेष्ठ उदाहरण स्थापित करने वाले श्रद्धेय राजेन्द्र शर्मा जी, जिनका कल ही इस निमित्त भोपाल में अभिनंदन हो रहा है, के जीवन के एक प्रसंग को उदाहरण के रूप में आज याद करना एक सुखद संयोग होगा। 34 वर्ष पूर्व हम जैसे तब युवा पत्रकारों के लिए ही नहीं वरन पूरे प्रदेश के लिए वह प्रसंग प्रेरणा एवं गौरव का विषय बना था, जिसमें स्वदेश संपादक राजेन्द्र जी ने दिल्ली से ग्वालियर लौटते समय स्व. इंदिरा गांधी की हत्या के चलते दंगों के भडकने और उसमें भी ट्रेनों, बसों में और राह चलते सिखों को ढूंड - ढूंडकर जिंदा जलाने की भयावह जानकारी पाकर अपने ट्रेन के सफर के दौरान अपने डिब्बे में सिख सहयात्रियों की अपने दाढ़ी बनाने के सामान में से रेजर और कैंची निकालकर, उन्हें केश काटकर मोना बन प्राण रक्षा करने में सहायता की थी। एक पत्रकार केवल भयावह घटनाओं का साक्षी बन ''सबसे आगे सबसे पहले हम'' के दावें करने के बजाए जान पर खेलकर कुछ निरीह प्राणियों की रक्षा कर अपना स्वयंसेवक धर्म निभा रहा था। उनकी पत्रकारिता साधना को प्रणाम के साथ "माॅब लिचिंग" नामक शब्दास्त्र से लैस आधुनिक आक्रामकों से निवेदन हैं कि वे कृपया फादर्स आॅफ माॅब लिचिंग को भी याद करें हो सके तो साथ में संघ के एक सामान्य स्वयंसेवक की मानवीयता को भी।


Updated : 1 Sep 2018 5:08 AM GMT
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Swadesh Digital

स्वदेश वेब डेस्क www.swadeshnews.in


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