आपातकाल की आपबीती: पिता-पुत्र दोनों जेल की सलाखों के पीछे

आपातकाल की आपबीती: पिता-पुत्र दोनों जेल की सलाखों के पीछे
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आपातकाल के दौर में जब आवाज उठाना भी अपराध बन गया था, तब कुछ परिवारों ने अपने साहस से लोकतंत्र को जीवित रखा। भोपाल के ओमप्रकाश मेहता और उनके पिता उद्धवदास मेहता ऐसे ही परिवार से थे, जिन्होंने न केवल जेल की यातनाएं सहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए लोकतंत्र की कीमत का एहसास भी छोड़ा।

आपातकाल का कठिन समय आज भी यादों में जिंदा है। देश में लोकतंत्र पर पहरा था और नागरिक अधिकार निलंबित थे। ऐसे समय में जब संघ की ओर से आंदोलन का आह्वान हुआ, तो स्वयंसेवक निर्भीक होकर सड़कों पर उतर आए। भोपाल के वरिष्ठ स्वयंसेवक और 86 वर्षीय लोकतंत्र सेनानी ओमप्रकाश मेहता उन दिनों अनेक युवाओं के साथ संघर्ष की पंक्ति में खड़े थे।

वे बताते हैं- “अक्टूबर 1975 में तत्कालीन नेता बाबूलाल गौर का संदेश मिला कि सुभाष मैदान में विरोध सभा रखी गई है। हम सभी कार्यकर्ता समय पर पहुंचे। जैसे ही श्री गौर ने भाषण शुरू किया, पहले से तैनात पुलिस ने चारों ओर से घेराबंदी कर दी। कुछ ही पलों में आधा सैकड़ा से अधिक स्वयंसेवक गिरफ्तार कर लिए गए। थाने में औपचारिक कार्यवाही के बाद सभी पर मीसा की धाराएं लगाकर जेल भेज दिया गया।”

मेहता बताते हैं- “आपातकाल में न कोई कानून था, न न्याय की सुनवाई। पुलिस को मनमानी का अधिकार था। जिसने भी विरोध किया, उसे जेल में ठूंस दिया गया।”

वे मुस्कराते हुए कहते हैं – “मैं तो नई नवेली पत्नी को मायके छोड़कर लौटा ही था कि बाबूलाल गौर का संदेश आ गया। सुबह पत्नी को घर छोड़कर सुभाष मैदान पहुंच गया और सीधे जेल चला गया। जेल से मुक्ति भी आपातकाल की समाप्ति के बाद ही मिल सकी।”

पिता भी बने मीसाबंदी

मेहता जी के पिता स्व. उद्धवदास मेहता भोपाल के पहले नगर संघचालक थे। पूरा परिवार संघ कार्य के लिए समर्पित था, इसलिए पुलिस की निगाह शुरू से ही उनके घर पर थी। ओमप्रकाश जी के जेल जाने के कुछ दिन बाद ही उनके पिता को भी गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया।कैंसर की बीमारी के कारण उन्हें 15 दिन बाद रिहा कर दिया गया, जबकि पुत्र को पूरे आपातकाल तक जेल में रहना पड़ा।मेहता जी बताते हैं-“मेरे भाई को भी पुलिस ने पकड़ा था, लेकिन वह किसी तरह थाने से ही छूट गया। वह भी हमारे साथ आंदोलन में शामिल था।”

संयुक्त परिवार ने संभाला घर

उस समय ओमप्रकाश मेहता की शादी को नौ साल हुए थे। वे पेशे से वकील थे और परिवार की स्थिति ठीक-ठाक थी। जेल जाने के बावजूद घर में चिंता नहीं हुई क्योंकि परिवार संयुक्त था।वे बताते हैं- “मेरी पत्नी और तीन साल की बेटी का पूरा ख्याल घर के अन्य सदस्यों ने रखा। यही पारिवारिक एकता उस कठिन समय में सबसे बड़ा सहारा थी।”

जेल में अनुशासन और साथ

वे याद करते हैं कि जेल में कोई विशेष कठिनाई नहीं हुई। “जेल में कई संघ कार्यकर्ता साथ थे। अनुशासन, चर्चा और अध्ययन का माहौल था। वरिष्ठ कार्यकर्ता युवाओं को निराश नहीं होने देते थे। हमें यह एहसास था कि यह बलिदान देश के लिए है।”

लोकतंत्र सेनानी से जनसेवक तक

आपातकाल की समाप्ति के बाद ओमप्रकाश मेहता ने अपना जीवन समाजसेवा के लिए समर्पित कर दिया। अगस्त 2012 में राज्य सरकार ने उन्हें मध्यप्रदेश तीर्थस्थान एवं मेला प्राधिकरण का उपाध्यक्ष नियुक्त किया और राज्यमंत्री का दर्जा दिया। वे लगभग डेढ़ वर्ष तक इस पद पर कार्यरत रहे।आज 86 वर्ष की आयु में भी वे उस संघर्ष को गर्व से याद करते हैं। वे कहते हैं – “आपातकाल ने हमें सिखाया कि जब राष्ट्र संकट में हो, तो चुप रहना सबसे बड़ा अपराध होता है। पिता-पुत्र दोनों ने जेल की सजा काटी, पर यह हमारे जीवन का सबसे बड़ा गौरव भी बना।”

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