दत्तोपंत ठेंगड़ी जयंती प्रसंग : आधुनिकता के मध्य भारतीय आत्मा की खोज

आज भारत अपनी स्वाधीनता के अमृतमहोत्सव के समय मे दो युगों की संधि काल रेखा पर खड़े होकर स्वतंत्रता की यात्रा पर चल पड़ा है । भारत आज उस ऐतिहासिक युग-संधि पर खड़ा है जहाँ डिजिटल क्रांति की चकाचौंध और ऋषि-परंपरा की शाश्वत ज्योति एक साथ झलकती हैं। एक ओर कृत्रिम बुद्धिमत्ता, अंतरिक्ष विजय और वैश्विक बाजार की स्पर्धा है, तो दूसरी ओर उपनिषदों की एकात्म चेतना और वसुधैव कुटुम्बकम् का संदेश। वास्तव के अंदर यह द्वंद्व नहीं, संवाद है।
दत्तोपंत ठेंगड़ी जी ने ठीक कहा था—
“भारत का संकट यह नहीं कि वह आधुनिक नहीं हुआ, बल्कि यह है कि आधुनिक होकर भी वह भारतीय नहीं रह पाया।”
(Rashtra: Dharma ki Drishti, 1986)
आज स्वाधीनता से स्व तन्त्रता की ओर बढ़ते भारत मे यही वह क्षण है जब भारतीय आत्मा आधुनिकता की आँधी में अपने स्वर की पुनर्खोज कर रही है।
भारतीय आत्मा : शाश्वत प्रवाह
भारतीय आत्मा कोई जड़ स्मृति नहीं, जीवंत नदी है जो काल की हर लहर पर स्वयं को नवीनीकृत करती चलती है। ठेंगड़ी जी ने लिखा है —
“भारतीय संस्कृति की पहचान उसकी निरंतरता में है। वह न अतीत में कैद है, न वर्तमान में भटकी हुई; वह समय के साथ स्वयं को पुनःपरिभाषित करती है।”
(Bharatiya Chintan Dhara, पृ. 42)
वास्तव में उपनिषदों का “सर्वं खल्विदं ब्रह्म” और गीता का “योगः कर्मसु कौशलम्” इसी प्रवाह के सोत हैं। यह आत्मा वस्तुओं में नहीं, भावों में बसती है; उपभोग में नहीं, अनुभव में विश्वास रखती है।
आधुनिकता में मूल्य-संकट
आधुनिकता ने हमें विमान दिए, पर पंख काट लिए। स्मार्टफोन ने दूरी मिटाई, पर हृदयों में दीवारें खड़ी कर दीं। महानगरों की चमचमाती इमारतें खड़ी हुईं, पर भीतर का अंतर्मन उजाड़ हो गया।
ठेंगड़ी जी की चेतावनी मानो आज साकार हो रही है, जब उन्होंने लिखा था कि —
“सभ्यता की प्रगति साधनों में हो रही है, साध्य भूल गए हैं। जब साध्य खो जाता है तो साधन भी बेमानी हो जाते हैं।”
(Sanskriti aur Samajwad, पृ. 58)
यह युग ‘मैं’ का युग बन गया है, सेल्फी, स्वार्थ और सफलता का। जहाँ ‘हम’ की चेतना थी, वहाँ ‘मैं’ की दीवारें खड़ी हो गईं। व्यक्ति की व्यक्ति से दूरी,पारिवारिक सम्बन्धो और जीवन मूल्यों की विस्मृति ,अव्यवस्थित दिनचर्या औऱ खानपान , शहरों में ड्रग, ड्रिंक, डांस की विकृति इत्यादि से भारत भी ग्रस्त प्रतीत है ।
संश्लेषण : भारतीय दृष्टि की कुंजी
भारत ने कभी आधुनिकता को शत्रु नहीं माना। उसने उसे आत्मसात किया, पर अपनी शर्तों पर। गांधी ने चरखे में स्वावलंबन देखा, टैगोर ने विश्वबंधुत्व में भारतीय मानवीयता को केन्द्र में रखा। ठेंगड़ी जी ने इसे नाम दिया—
“भारत की संस्कृति विरोध में नहीं, संश्लेषण में विश्वास करती है।”
(Manav aur Samaj, पृ. 21)
श्री अरविंद का कथन ठेंगड़ी जी ने बार-बार दोहराया—
“Modernism must become spiritual or it will perish.” अर्थात “आधुनिकतावाद को आध्यात्मिक बनना होगा अन्यथा यह नष्ट हो जाएगा।
वास्तव के अंदर आज भारत अपनी स्वाधीनता के अमृतमहोत्सव के समय मे दो युगों की संधि काल रेखा पर खड़े होकर स्वतंत्रता की यात्रा पर चल पड़ा है । अपने संघ के शताब्दी वर्ष में राष्ट्रतात्विक स्वयंसेवक समाज मे पंचपरिवर्तन का सूत्रपात करने के लिए निकल भी पड़े हैं ।
विज्ञान में आध्यात्म : भारतीय आत्मा का नया अवतार
जब भारतीय वैज्ञानिक चंद्रयान को चंद्रमा पर उतारता है, तो वह केवल यान नहीं भेजता, वह सत्य की खोज का आधुनिक संस्करण भेजता है। आईटी इंजीनियर जब कोड लिखता है, तो वह केवल प्रोग्राम नहीं लिखता, वह कर्मयोगी बनता है।
इसलिए ठेंगड़ी जी ने भी कहा है -
“विज्ञान का प्रयोग तभी पूर्ण होता है जब वह समाज की प्रयोगभूमि में सार्थकता प्राप्त करे।”
(The Third Way, पृ. 67)
भारतीय दृष्टि में शोध का उद्देश्य प्रयोगशाला नहीं, लोकमंगल है। इसलिए हमारे वैज्ञानिक प्रक्षेपण से पहले प्रार्थना करते हैं और सफलता के बाद मंदिर जाते हैं। वास्तव में वह तेरा तुझको अर्पण की भावना से परम् परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं ।
युवा : आधुनिकता का वाहक, सांस्कृतिक आत्मा का संरक्षक
आज का भारतीय युवा सिलिकॉन वैली से लेकर इसरो तक छाया हुआ है। वह कोड लिखता है, रॉकेट बनाता है, दुनिया चलाता है। पर जब थक जाता है, तो ऋषिकेश में ध्यान करने चला जाता है। यह दोहरा जीवन नहीं, भारतीयता का प्रमाण है।
ठेंगड़ी जी की पुकार आज भी युवाओं को प्रेरित करती हुई ,उनके अंतर्मन में आज भी गूँजती है—
“युवा यदि पश्चिम की नकल करेगा तो भारत खो जाएगा; यदि वह भारत को समझेगा तो विश्व बचेगा।”
(Rashtra aur Yuva Shakti, 1992)
युवा को तकनीक चाहिए, पर चरित्र भारतीय चाहिए। मोबाइल बदलने से नहीं, मन बदलने से जीवन बदलता है। भौतिकता के भोग से नही संयम पूर्वक त्याग से ही शांति मिलती है ,जीवन का उद्देश्य पूर्ण होकर जीवन सार्थक होता ज
है ।
परिवार व्यवस्था : भारतीय आत्मा का अभेद्य किला
आधुनिकता ने संयुक्त परिवार को तोड़ा, पर जड़ें नहीं मिटा सकी। आज शहरों में योग रिट्रीट, आयुर्वेद क्लिनिक, गुरुकुल स्कूल और संस्कार शिविरों की बाढ़ आ रही है। यह कोई फैशन नहीं, आत्मा का पुनर्जागरण है। लोग अपनी जड़ों से जुड़ रहे हैं , भारत की नित नूतन चिर पुरातन संस्कृति के संस्कारों से संस्कारित होकर , ज्ञान परम्परा से लाभान्वित होते प्रतीत हैं। भारत की परिवार परम्परा में लोगों का विश्वास बढ़ रहा है ।
ठेंगड़ी जी ने बहुत पहले लिखा था —
“पश्चिम ने व्यक्ति को केंद्र बनाया, भारत ने परिवार को। परिवार वह सेतु है जो व्यक्ति को समाज और संस्कृति से जोड़ता है।”
(Swa-Tantrata se Samaj-Tantrata Tak, पृ. 84)
जब माँ-बाप व्हाट्सएप ग्रुप में वेदपाठ करते हैं, जब दादाजी पोते को पंचतंत्र की कहानियाँ सुनाते हैं, तब भारतीय आत्मा जीवित हो उठती है। इस परिवर्तन से परिवर्तित युवा जब तर्कपूर्ण बात रखता है ,तो कुंठित होकर वामपंथी ताकतें इसे व्हट्स एप यूनिवर्सिटी का ज्ञान कह कर अपना पीछा छुड़ाते हैं ।
कला-साहित्य : आत्मा की अनुगूँज
आज का सिनेमा जगत भी ‘कांतारा’ की चैतन्य आराधना से लेकर ‘ब्रह्मास्त्र’ के आध्यात्मिक प्रभाव तक ,मिट्टी की गंध लौटा रहा है। नवयुवक कवि जब ईश्वर को ‘कॉस्मिक एनर्जी’ कहता है, तो वह नास्तिक नहीं , वह ऋग्वेद को नई भाषा दे रहा है।
ठेंगड़ी जी ने कहा—
“कला तब तक जीवित रहती है जब तक उसमें समाज की आत्मा बोलती है।”
(Sanskriti aur Samajwad, पृ. 63)
आज का संगीतकार राग भैरवी में इलेक्ट्रॉनिक बीट्स मिलाता है, पर भक्ति नहीं छोड़ता। यही संश्लेषण है।
शाश्वत संदेश : प्रगति करो, पतन मत करो
भारतीय आत्मा का संदेश सरल है—
आधुनिक बनो, पर मूल मत भूलो।
तकनीक अपनाओ, पर करुणा मत त्यागो।
विश्व विजेता बनो, पर विश्वबंधु बनकर।
ठेंगड़ी जी का अंतिम संदेश था—
“भारत का मिशन है—विश्व को आत्मा की भाषा सिखाना। जब पश्चिम थक जाएगा, तब वह भारत के पास विश्रांति ढूंढेगा।”
(Bharat: Ek Drishtikon, पृ. 19)
निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि साधन और साध्य का संगम आज संक्रमण काल मे हो रहा है ।
आधुनिकता साधन है, भारतीय आत्मा साध्य। जब साधन साध्य का दास बनता है, तभी यांत्रिक सभ्यता सांस्कृतिक राष्ट्र बनती है।
ठेंगड़ी जी के शब्दों में—
“भारत का भविष्य न पश्चिम की नकल में है, न अतीत की जड़ता में, बल्कि उस संश्लेषण में है जो आत्मा को युगधर्म से जोड़ता है।”
(The Third Way, पृ. 93)
भारत का सूर्योदय पश्चिम से नहीं, अपने हृदय से होगा। जब तक हम अपने भीतर के सूर्य को पहचानते रहेंगे, तब तक आधुनिकता की कोई आँधी हमें डिगा नहीं सकेगी। क्योंकि, आधुनिकता बिना आत्मा केवल यांत्रिकता है, आत्मा बिना आधुनिकता केवल स्मृति।
दोनों का संगम ही भारत की सच्ची यात्रा है ,
“यत्र नित्यं नवत्वं तत्रैव भारतम्।”
(दत्तोपंत ठेंगड़ी, पुणे भाषण, 1988)
पूज्य दत्तोपंत ठेंगड़ी की आंग्ल जन्म जयंती तिथि पर कृतज्ञ राष्ट्र की उनको आकाश भर सादर श्रद्धांजलि ।
