लालू के आगे कांग्रेस का झुकना- एक राजनीतिक सबक

लालू के आगे कांग्रेस का झुकना- एक राजनीतिक सबक
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बिहार की सियासत एक बार फिर वही पुराना दृश्य दोहरा रही है, जहाँ राष्ट्रीय दल कांग्रेस, क्षेत्रीय दलों के सामने अपने अस्तित्व को बचाने की जुगत में लगी दिखाई देती है। लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी, जो दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद से बिहार में पार्टी के पुनरुत्थान की नई पटकथा लिखने का दावा कर रहे थे, अंततः लालू प्रसाद यादव के सामने नतमस्तक हो गए। यह सरेंडर कैवल न तो कोई राजनीतिक समझौता है, न ही रणनीति, बल्कि कांग्रेस की आंतरिक असुरक्षा और संगठनात्मक कमजोरी का स्पष्ट प्रमाण है।

बिहार चुनाव से पहले जो संकेत मिल रहे थे, वे यही बता रहे थे कि कांग्रेस इस बार ‘सम्मानजनक समझौते’ की शर्त पर ही महागठबंधन का हिस्सा बनेगी। राहुल गांधी का तेवर और ‘वोटर अधिकार यात्रा’ जैसी मुहिम इस विश्वास को मजबूत कर रही थी कि पार्टी अपने दम पर निर्णायक उपस्थिति दर्ज कराना चाहती है। परंतु नतीजा ठीक उलटा निकला। लालू यादव ने सीट बंटवारे की राजनीति में कांग्रेस को इस तरह घेरा कि अंततः पार्टी 61 सीटों पर सिमटने को मजबूर हो गई, जबकि पिछली बार वह 72 सीटों पर चुनाव लड़ चुकी थी।

राहुल गांधी की अनुपस्थिति ने कांग्रेस की रणनीतिक कमजोरी को और उजागर किया। महागठबंधन की प्रेस कॉन्फ्रेंस में जहां तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित किया गया, वहां कांग्रेस का चेहरा कहीं नहीं दिखा। पार्टी की ओर से अशोक गहलोत को प्रतिनिधित्व के लिए भेजा गया, जो लालू परिवार के समक्ष कांग्रेस की ‘अनिच्छुक स्वीकृति’ का प्रतीक बनकर रह गए। जिस आत्मविश्वास से कांग्रेस नेतृत्व बिहार में राजनीतिक क्रांति की बात कर रहा था, वह आत्मविश्वास उस प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहीं नजर नहीं आया।

यहाँ तक कि बिहार प्रभारी कृष्णा अल्लावरू को भी मंच के एक कोने में बैठा दिया गया, मानो यह स्पष्ट संकेत हो कि इस महागठबंधन में कांग्रेस की हैसियत केवल सहायक किरदार की रह गई है। राहुल गांधी की चुप्पी कई सवाल छोड़ जाती है। क्या उन्होंने सचमुच लालू यादव के दबाव के आगे घुटने टेक दिए? क्या सीट बंटवारे और मुख्यमंत्री पद के चेहरे पर कांग्रेस को डराने-धमकाने की राजनीति चली?

जानकारी यह भी सामने आई कि 12 अक्टूबर को दिल्ली में लालू परिवार से राहुल गांधी की बैठक तय थी, लेकिन राहुल ने मुलाकात करने से इनकार कर दिया था। उस समय उन्होंने झुकने से इंकार किया, लेकिन बाद की घटनाओं ने दिखा दिया कि दबाव अंततः काम कर गया। यह परिदृश्य केवल बिहार की राजनीति का नहीं, बल्कि कांग्रेस की राष्ट्रीय रणनीति की विफलता का भी आईना है। पार्टी अभी भी यह तय नहीं पा रही कि वह क्षेत्रीय दलों की सहयोगी बनना चाहती है या वैकल्पिक राष्ट्रीय विकल्प।

राहुल गांधी की ‘वोटर अधिकार यात्रा’ यदि वास्तविक राजनीतिक इरादे से जुड़ी होती, तो शायद कांग्रेस आज इतना रक्षात्मक रुख नहीं अपनाती। लेकिन यात्रा के बाद जोश ठंडा पड़ गया, प्रियंका गांधी की रैलियां रद्द हो गईं, और पूरा अभियान ‘मॉक ड्रिल’ बनकर रह गया।

लालू यादव की राजनीति भले ही गठबंधन की मजबूरी हो, लेकिन कांग्रेस के लिए यह पराजय का प्रतीक है। क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन करते समय यदि कांग्रेस अपनी स्वतंत्र पहचान खो देती है, तो राष्ट्रीय विकल्प बनने का उसका दावा खोखला प्रतीत होगा। राहुल गांधी के लिए यह क्षण आत्ममंथन का है: क्या वे अपने सिद्धांतों और आत्मसम्मान को बचाकर आगे की राह चुनेंगे, या फिर क्षेत्रीय दबावों में पार्टी को और कमजोर होने देंगे।

बिहार की यह कहानी कांग्रेस के लिए केवल एक चुनावी पराजय का संकेत नहीं है, बल्कि एक चेतावनी है कि आत्मविश्वास से अधिक खतरनाक चीज है राजनीतिक भय। जब नेतृत्व ही भयभीत हो जाए, तो संगठन केवल नाम का रह जाता है। राहुल गांधी को यह समझना होगा कि जनता उन पर तभी भरोसा करेगी, जब वे किसी के आगे झुकने के बजाय अपने दम पर खड़े होने का साहस दिखाएंगे।

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