Home > स्वदेश विशेष > सर कटने के बाद भी अंग्रेजों से लड़ता रहा चहलारी का वीर

सर कटने के बाद भी अंग्रेजों से लड़ता रहा चहलारी का वीर

अतुल अवस्थी

सर कटने के बाद भी अंग्रेजों से लड़ता रहा चहलारी का वीर
X

देवीपाटन/वेब डेस्क। भारत मां को दासता की बेंड़ियों से मुक्त कराने के लिए हुए महासमर के सैकड़ों ऐसे कई योद्धा हैं, जिन्होंने अपने शौर्य, पराक्रम, देशभक्ति और बलिदान से स्वतंत्रता संग्राम के संघर्ष को ऊर्जा दी और भावी पीढ़ियों के लिए आदर्श बन गये। लेकिन अवध में अंग्रेज़ों के खि़लाफ़ संघर्ष में विद्रोहियों का नेतृत्व कर रहे चहलारी रियासत के राजा बलभद्र सिंह ऐसे वीर आजादी के दीवाने थे, जिन्होंने मात्र 18 वर्ष की आयु में अंग्रेजों के छक्के छुड़ाए। कहा जाता है वह सर कटने के बाद भी अंग्रेजों से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।

स्वतंत्रता आंदोलन में राजा बलभद्र सिंह और उनकी चहलारी रियासत का प्रमुख स्थान है। अंग्रेज़ों के खिलाफ़ युद्ध में बलभद्र सिंह के अदम्य साहस की अंग्रेज सेनानापति ने भी भूरि-भूरि प्रशंसा की और ब्रिटेन की महारानी ने अपने महल में उनका चित्र लगवाया। इसी से वे अवध ही नहीं पूरे देश में अंग्रेज़ों के खि़लाफ़ लड़ाई के नायक बन गये थे। उनके त्याग और बलिदान की गौरव गाथा आज भी अवध के मन मस्तिष्क में गौरव को संरक्षित किए हुए है।

स्वतंत्रता संग्राम के तराई के हीरो राजा बलभद्र सिंह का जन्म 10 जून सन 1840 को बहराइच के चहलारी राज्य (अब बहराइच ज़िले के महसी तहसील क्षेत्र) में हुआ था। उनके पिता का नाम राजा श्रीपाल सिंह और मां का नाम महारानी पंचरतन देवी था। चहलारी रियासत पर कश्मीर से आए रैकवार राजपूतों का शासन होता था। राजा श्रीपाल साधु प्रवृत्ति के थे और अल्पायु में ही कुंवर बलभद्र का राज्याभिषेक कर राज्य कार्य से विरत हो जाना चाहते थे। लेकिन बलभद्र उन्हें समझा-बुझाकर उनके प्रस्ताव को अस्वीकार कर देते थे। अंततः बलभद्र सिंह किशोरावस्था में ही चहलारी के राजा बने। बाल्यकाल से ही निडर और पराक्रमी बलभद्र सिंह युद्ध कौशल में भी महारथी थे। उदारता और संवेदनशीलता के कारण ही राज्य की जनता पूरी तरह से शोषण मुक्त होकर सुख शांति से जीवन यापन कर रही थी। सेना में प्रत्येक जाति धर्म के बहादुर युवकों को भर्ती किया गया, जिसका नेतृत्व अमीर खां कर रहे थे। भिखारी रैदास जैसे बहादुर योद्धा भी सेना में ओहदेदार थे।

इतिहास के पन्ने पलटे तो पता चलता है कि सन 1450 में बालदेव रामनगर रियासत के राजा हुए तो उन्होंने अपने भाई शालदेव को घाघरा नदी के उस पार बौंडी (बहराइच) रियासत का राजा बना दिया। शालदेव के बाद उनके पुत्र लखन देव और पौत्र धर्मदेव व प्रपौत्र हरिहर देव ने बौंडी पर राज किया। प्रतापी राजा हरिहर देव और कश्मीर में रैकवारों किए गए वीरतापूर्ण कार्य से प्रसन्न होकर तत्कालीन मुगल सम्राट अकबर ने हरिहर देव बहराइच जिले के बहुत बड़े भूभाग को सौगात के रुप में दे दिया। यही नहीं परम प्रतापी हरिहर देव को बांसी जैसे अजेय राज्य पर विजय प्राप्त करने के लिए बादशाह जहांगीर ने पुरस्कार नौ परगनों का राज्य प्रदान किया। हरिहर देव के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र जितदेव राजा हुए तो कनिष्ठ पुत्र संग्राम सिंह के लिए हरिहर पुर के नाम से अलग रियासत की स्थापना की गई। जितदेव के ज्येष्ठ पुत्र परशुराम सिंह को बौंडी और दूसरे पुत्र गजपति सिंह को नई रियासत रेहुआ का शासन मिला। इन्हीं गजपति सिंह के पुत्र मानसिंह के छोटे पुत्र धर्मधीर सिंह ने 1630 ई. में चहलारी रियासत की स्थापना की। धर्मधीर के पुत्र हिम्मत सिंह के बड़े पुत्र मदन सिंह को बौंडी की रानी द्वारा गोद लेने के कारण छोटे पुत्र देवी सिंह राजा बने। उनके बाद पुत्र उदित सिंह, पौत्र पृथ्वी सिंह, प्रपौत्र रणजीत सिंह तथा बरियार सिंह ने राज्य का प्रबंध संभाला। बरियार के पुत्र पृथ्वीपाल सिंह के बाद श्रीपाल चहलारी के राजा हुए। राजा श्रीपाल के ज्येष्ठ पुत्र बलभद्र सिंह राजा हुए और 13 जून को अंग्रेज सेना से लड़ते हुए वे वीरगति को प्राप्त हुए और चहलारी राज्य ईस्ट इण्डिया कम्पनी में मिला लिया गया।

रैकवार क्षत्रियों के शासनाधीन चहलारी रियासत घाघरा नदी के दोनों ओर दूर तक फैला था। इसके पास वर्तमान सीतापुर और बहराइच जिले का विस्तृत भूभाग था। चहलारी राज्य में तब सीतापुर के 87 और बहराइच के 33 गांव शामिल थे। क्षेत्र में घाघरा नदी के तटवर्ती इलाके में स्थित गोलोक कोंडर गोचरण क्षेत्र में पांच हजार साल पहले राजा विराट की गायों का निवास रहा। यहां की भव्य गढ़ी भवन के पास ही मनमोहक सुगंध बिखेरने वाला केंवड़े का वन था। इसी वन में राजा रणजीत सिंह द्वारा बनाए गए ठाकुरद्वारा में भगवान राम, माता जानकी और हनुमान समेत कई देवी देवताओं की मूर्तियां स्थापित कराई गईं थीं। आज भी विजय दशमी व अन्य त्यौहारों पर यहां उत्सव मनाया जाता है।

बौंडी में अंग्रेजों के खिलाफ की थी मंत्रणा

10 मई 1857 को मेरठ में स्वतंत्रता आंदोलन की ज्वाला प्रकट होने पर जहां अंग्रेजों ने भारी दमन चक्र प्रारंभ किया वहीं सम्पूर्ण उत्तर भारत में स्वातन्त्र्य चेतना जाग्रत हुई। इस मुक्ति संग्राम को प्रारम्भिक दौर में आंशिक सफलता मिली। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अवध में बहराइच को मुख्यालय बनाकर विंग फील्ड कमिश्नर और कैप्टन बनबरी को डिप्टी कमिश्नर नियुक्त किया था। इन दोनों ने सत्ता संभालते ही दमन चक्र चलाना शुरू कर दिया। तब अंग्रेजी शासन के खिलाफ बहराइच में बिगुल फूंका गया। इस महाक्रान्ति की अंतिम लड़ाइयां अवध की बेगम हजरत महल के नेतृत्व में लड़ी र्गइं। गजेटियर के अनुसार लखनऊ पर कब्जे के बाद अंग्रेजों ने अवध के नवाब वाजिद अली शाह को गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद उनकी बेगम हजरत महल ने अपने शहजादे बिरजिस कद्र और मम्मू खां जैसे कुछ विश्वास पात्र सैनिकों के साथ लखनऊ से भागकर बहराइच में बौड़ी नरेश हरदत्त सिंह के किले में शरण ली। वहां उन्होंने 40 दिन बिताए और उसी को संघर्ष की रणनीति का केन्द्र बनाया। अवध की राजधानी लखनऊ को अंग्रेजों से मुक्त कराने के लिए उन्होंने वहां अपने विश्वासपात्र राजाओं, जमींदारों तथा स्वाधीनता सेनानियांे की बैठक बुलाकर सबको इस महासंग्राम में कूदने का आह्नान किया। बौंड़ी के किले में हुई बैठक में राजा हरिदत्त सिंह के साथ गोंडा नरेश राजा देवी बख्श सिंह, भिठौली (सीतापुर) के गुरु बख्श सिंह, रायबरेली के राणा बेनी माधव सिंह, रुइया (हरदोई) के राजा नरपति सिंह, फैजाबाद के विद्रोही मौलवी अहमद उल्ला, इकौना के राजा उदित प्रकाश सिंह, चरदा के राजा जगजोत सिंह, रेहुआ के राजा रघुनाथ सिंह, शाहगंज के राज मान सिंह, ईसानगर के राजा जांगड़ा, कमियार गोंडा के तालुकेदार शेर बहादुर सिंह और फीरोजशाह बेरुआ के गुलाब सिंह मौजूद रहे। भयारा (बाराबंकी) के जागीरदार यासीन अली किदवई के अलावा भिनगा, राम नगर, और पयागपुर के राजाओं ने भी बैठक में लिए गए निर्णय का स्वागत किया। सभी की उपस्थिति में मात्र 18 साल के आयु में पराक्रमी योद्धा चहलारी नरेश बलभद्र सिंह ने सेना के नेतृत्व का जिम्मा उठाया तो बेगम हजरत महल समेत सभी क़ी आंखें नम हो गईं। बेगम ने अंगूठा चीरकर अपने रक्त से तिलक लगाया और 100 गांवों की जागीर देने की घोषणा करते हुए रानी कल्याणी देवी को उपहार स्वरुप अपना दिव्य हार प्रदान किया। मात्र कुछ दिन पहले ही बलभद्र और कल्याणी का विवाह की जानकारी मिली तो बेगम के आंखों में वात्सल्य के आंसू छलक आए।

बाराबंकी ओबरी में हुआ अंतिम महासमर

जब बलभद्र सिंह सेना के साथ प्रस्थान करने लगे तो उनकी पत्नी रानी कल्याणी ने उनके माथे पर रोली-अक्षत का टीका लगाया और अपने हाथ से कमर में तलवार और कलाई में रक्षासूत्र बांध कर विदा किया। राजमाता ने भी बेटे को आशीर्वाद देकर अन्तिम सांस तक अपने वंश और देश की मर्यादा की रक्षा करने को कहा। तयशुदा कार्यक्रम के तहत अंग्रेजी सेना से युद्ध के लिए निकली बेगम हजरत महल और दर्जनों देशभक्त राजाओं समेत 20 हजार सैनिकों की भारी भरकम सेना का पहला पड़ाव बहराइच घाघरा के उस पार भयारा (बाराबंकी) में यासीन अली किदवई के गांव में हुआ। अगले दिन सेना नावाबगंज के जमुरिया नाले को पारकर रेठ नदी के पूरब ओबरी गांव के मैदान में युद्ध के लिए पहुंची। सेनापति जनरल होप ग्राण्ट के नेतृत्व में सुसज्जित अंग्रेजी सेना में मेजर हडसन, कर्नल डैली, विलियम रसेल, कालिन कैम्पवेल, हार्षफील्ड जैसे दक्ष सेना नायकों और सिख सेना के साथ नेपाल के जंग बहादुर राणा समेत उनके बड़ी संख्या में गोरखा सैनिक भी थे। अंग्रेज सेना में 10 हजार घुड़सवार, 15 हजार पैदल सेना के साथ भारी संख्या में इनफील्ड गनें और तोपखाना भी था। जबकि क्रान्तिकारी सेना के पास पुरानी तोपें और घिसे पिटे हथियार थे। मातृभूमि के इस महासमर में सर्वस्व न्यौछावर का जज्बा ही उनका मुख्य संबल था। 12 जून 1858 को युद्ध प्रारम्भ हुआ और 16 हजार सैनिकों के साथ बलभद्र सिंह ने फिरंगी सेना पर हमला कर दिया। अवध के जांबाज फुर्तीले सैनिकों और बलभद्र सिंह ने देखते ही देखते युद्ध के मैदान में लाशों का अंबार लगा दिया तो अंग्रेज सैनिकों में भगदड़ मच गई और सेनापति होप भाग गया।

सिर धड़ से अलग हुआ फिर भी शीश काटती रही तलवारें

पराजय से आहत होप ने बड़ी संख्या में तोपें और रायफलें मंगाई और 13 जून को पुनः युद्ध के लिए आ डटा। अंग्रेजी सेना के जबरदस्त तैयारियों को देखकर बेगम चिंतित हुईं और उन्होंने बलभद्र की कम उम्र को देखते हुए हुए उन्हें एक दिन विश्राम करने की सलाह देते हुए स्वयं नेतृत्व की इच्छा जताई। उन्होंने स्वयं को उनकी मां बताते हुए नववधू रानी के भविष्य का वास्ता दिया तो वीर बलभद्र ने 'युद्ध में सेनापति का आदेश चलता है मां का नहीं' कहकर उन्हें निरुत्तर कर दिया। तब विवश होकर बेगम ने सुरक्षा कवच पहनाकर आर्शीवाद देकर विदा किया। सेना को तीन भागों में बंाटकर 'खल्क खुदा का, मुल्क बादशाह का और हुक्म सेनापति बलभद्र सिंह का' नारे के साथ सेना फिरंगियों पर टूट पड़ी। बलभद्र सिंह चीते की भांति फिरंगी सैनिकों को काट रहे थे। युद्ध क्षेत्र में लाशों का अंबार लग गया। लेकिन बलभद्र के काका वीर योद्धा हीरा सिंह मारे गए। राजा देवी बख्श सिंह की मार से कैम्पवेल, बलभद्र की तलवार से घायल हडसन और राना बेनी माधव के वार से रसेल का घोड़ा मरा तो रसेल भाग खड़ा हुआ। अंततः बलभद्र और सेनापति होपग्राण्ट आमने सामने आ गए। बलभद्र के वार से होपग्राण्ट का युनियन जैक कटकर गिर गया और वह बेहोश हो गया, किन्तु तभी तोप के गोले ने उनके हाथी को धराशायी कर दिया। महावत सुभान खां ने बच निकलने की सलाह दी तो बलभद्र ने फटकार लगाई और घोड़े पर बैठकर नरसंहार शुरु कर दिया। लेकिन भाग्य ने फिर धोखा दिया और गोला लगने से उनका घोड़ा भी चल बसा। तब बलभद्र पैदल ही दोनों हाथों में तलवार लेकर अंग्रेज सैनिकों का संहार करने लगे। इसी बीच होपग्राण्ट ने घोखे से पीछे से वार किया और उनका सिर धड़ से अलग कर दिया। कहा जाता है कि सिर कट जाने के बाद भी उनका शरीर आठ घंटे तक लड़ता रहा, दोनों हाथों की तलवारें लगातार वार कर रहीं थीं। इस दृश्य को देखकर होपग्राण्ट के भी होश उड़ गए। चहलारी नरेश का यह रूप देख 800 क्रान्तिकारी सैनिक अंतिम सांस तक लड़े और मातृभूमिकी बलिबेदी पर न्यौछावर हो गए। इस युद्ध में चहलारी के प्रत्येक परिवार का लाल वीरगति को प्राप्त हुआ।

अंग्रेज सेनापति ने की प्रशंसा, बकिंघम पैलेस में लगा चित्र

ओबरी युद्ध के अप्रतिम योद्धा बलभद्र के साहस और शौर्य की प्रशांसा करते हुए अंग्रेज सेनापति जनरल होपग्राण्ट ने 'दि सिपाय वार इन इंडिया' शीर्षक से अपनी डायरी में लिखा कि 'मैंने तमाम युद्ध और वीर योद्धाओं को देखा लेकिन बलभद्र सिंह जैसा शानदार सैनिक, जांबाज योद्धा और अनूठा सेनापति नहीं देखा। इस लम्बे चौड़े और निर्भीक योद्धा को मृत्यु का भय भी नहीं झुका सका।' ओबरी के युद्ध में नायक रहे राजा बलभद्र सिंह के करिश्माई वीरता का समाचार लंदन टाइम्स और न्यूयार्क टाइम्स में छपा तो वे दुनिया भर में चर्चित हुए। विद्वान लेखक परमेश्वर सिंह ने अपनी पुस्तक राजपूत में लिखा है कि इसी वीरता से प्रभावित होकर महारानी विक्टोरिया ने चहलारी नरेश बलभद्र सिंह का भव्य और दिव्य चित्र अपने राज महल बकिंघम पैलेस में सम्मान के साथ लगवाया। भारत के इतिहास में बलभद्र सिंह की कालजयी गौरवा गाथा स्वर्णाक्षरों में सदैव अंकित रहेगी। एक कवि ने ठीक ही कहा है-'कालचक्र के मस्तक पर जो पौरुष की गाथा लिखते, उनकी मृत्यु कभी न होती वे केवल मरते दिखते।'

ऐसे हुआ चहलारी रियासत का अंत

ओबरी के महासमर में राजा बलभद्र के वीरगति प्राप्त होते ही का्रन्तिकारी भागने पर विवश हुए और अंग्रेजों की विजय हुई। बेगम हजरत महल उनके पुत्र बिरजिस, राजा सवाई हरिदत्त सिंह, गोंडा नरेश राजा देवी बख्श सिंह, रायबरेली के राणा बेनी माधव सिंह समेत तमाम क्रातिन्कारी नेपाल के दुर्गम पहाड़ियों में स्थित दांग-देवखर चले गए। पूरे अवध पर कब्जा करके अंग्रेजों ने बौंड़ी का किला ध्वस्त करा दिया और चहलारी राज्य को चार भागों में विभाजित कर 52 गांव का जंग बहादुर राणा, 08 गांव थानगांव के भया, तीसरा भाग में 2200 बीघा मुनुवा शिवदान सिंह और शेष चौथा भाग पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह के वंशजों को दे दिया। राज बलभद्र सिंह की महारानी कल्याणी देवी ने अंग्रेजों का अनुग्रह अथवा सहायता स्वीकार नहीं था इसलिए वे अपने मायके चली गईं। उनके भाई छत्रपाल भी घाघरा पार करके सुरक्षित स्थान मुरौवा डीह चले गए। चहलारी राज्य के निकट सम्बन्धी मुनुवा शिवदान सिंह ने उनका पालन पोषण किया। वैसे चहलारी के कई बार बसाने का प्रयास किया गया लेकिन हर बार घाघरा ने आबाद हिस्से को नदी में समाहित कर लिया।

उपेक्षा से मिट रहा नामोनिशान

अवध की ऐतिहासिक धरोहरों में चहलारी रियासत का नाम सबसे पहले आता है। हालांकि बाराबंकी जिला मुख्यालय पर कांग्रेस कार्यालय परिसर में चहलारी नरेश बलभद्र सिंह की प्रतिमा स्थापित है किन्तु युद्ध के मैदान में जहां उन्हें वीरगति मिली थी वहां घने जंगलों के बीच उनकी मिट्टी की समाधि 162 साल से अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रही है। समाधि तक पहुंचने के लिए कोई मार्ग तक नहीं है। ऐसे में आजादी के नायकों को समर्पित यह कविता 'शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा' भी बेमानी साबित हो रही है। इसी प्रकार स्वतंत्रता आंदोलन का गवाह होने के बावजूद महसी में घाघरा नदी के तट पर स्थित बौंडी किला पूरी तरह उपेक्षित है। किले के समीप से ही घाघरा नदी बह रही है। किले के अवशेष भी नदी में समा कर विलुप्त हो रहे हैं। लेकिन सुरक्षा के लिए कोई इंतजाम नहीं किया गया। चहलारी नरेश के खानदान के आदित्यभान का कहना है कि उन्होंने किले की सुरक्षा व संरक्षा के लिए कई बार शासन व प्रशासन को पत्र लिखा। राजा बलभद्र सिंह की तलवार अभी भी सुरक्षित है। उसे लखनऊ स्थित म्यूजियम को सौंपने का प्रयास किया गया। लेकिन पुरातत्व विभाग की उपेक्षा से यह भी संभव नहीं हो सका।

Updated : 10 Jun 2022 3:57 PM GMT
author-thhumb

Swadesh News

Swadesh Digital contributor help bring you the latest article around you


Next Story
Top