जनरल रावत की शहादत पर जश्न मनाते कुछ लोग, इस बर्बर मानसिकता का इलाज क्या है?

जनरल रावत की शहादत पर जश्न मनाते कुछ लोग, इस बर्बर मानसिकता का इलाज क्या है?
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प्रकाश भटनागर

जनरल रावत ने सेना में रहते हुए जो कुछ कहा और किया, वह इस देश के हर एक नागरिक की सुरक्षा से जुड़ा मामला था। तो फिर ऐसा क्यों कि इसी देश से एक मानसिकता-विशेष उनके दुखद अवसान को अपनी उपलब्धि मान रही है?

ये कौन लोग हैं। ये जश्न मना रहे हैं। देश शोक में हैं। लेकिन ये सोशल मीडिया पर खिलखिला रहे हैं। इनकी इस मानसिकता की जड़ कहीं बहुत दूर है और गहरी भी। इसलिए ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। ऐसी मानसिक बीमारी का परिचय देने वाले उन्हीं जड़ों से जुड़े हैं। कोई उन मुगल आक्रांताओं का प्रतिनिधित्व कर रहा है, जिन्होंने सैंकड़ों निदोर्षों की जान लेने के बाद उनके नरमुंडों को किसी इमारत की शक्ल देने में अपने शौर्य को जताने की बेशर्मी की थी। तो कोई आक्रांताओं की इसी श्रृंखला के उस आततायी से प्रेरित है, जिसने धर्म न बदलने वाले लोगों को यातनाएं देकर मार दिया और खुद ठहाके लगाता रहा। जनरल बिपिन रावत की मृत्यु का जश्न मनाने वाले विशुद्ध रूप से अतीत की इन्हीं जड़ों में अपने वर्तमान की अगाध आस्था का परिचय दे रहे हैं।

जो किसी आतंकवादी की मौत पर छाती पीट-पीटकर रोते हैं, वे आज जनरल रावत की मृत्यु पर तालियां बजाकर हर्ष प्रकट कर रहे हैं। क्यों? क्या इसलिए कि मृतक का संबंध हमारे देश की सीमाओं की सुरक्षा व्यवस्था से जुड़ा हुआ था? ये उल्लास इस बात का है कि मृतक ने देश के दुश्मन को एक गोली का जवाब अनंत गोलियों से देने की बात न सिर्फ कही थी, बल्कि समय आने पर उस पर अमल भी कर दिखाया था? जनरल रावत ने सेना में रहते हुए जो कुछ कहा और किया, वह इस देश के हर एक नागरिक की सुरक्षा से जुड़ा मामला था। तो फिर ऐसा क्यों कि इसी देश से एक मानसिकता-विशेष उनके दुखद अवसान को अपनी उपलब्धि मान रही है?

पाकिस्तान तो राहत महसूस कर खुशी मना सकता है। क्योंकि उसके लिए जनरल बिपिन रावत एक बड़ी चुनौती चुनौती थे। फिर पकिस्तान जैसे आतंकवादी देश के लिए तो ऐसा आचरण ही उसका असली परिचय है। विदेश मंत्री रहते हुए दिवंगत सुषमा स्वराज ने सबसे अधिक मदद पाकिस्तान के लोगों की ही की थी। लेकिन तब भी उनके निधन पर पाकिस्तान में खुशियां मनाई गयीं। तब भी भारत में ऐसे कुछ लोगों ने इस जश्न में सहभागिता की थी। ये रावत की मृत्यु के बाद एक बड़े समूह का रूप लेकर सामने आ चुके हैं।

जनरल रावत की शहादत पर कांग्रेस नेता संदीप दीक्षित की प्रतिक्रिया देखने/सुनन को नहीं मिली। दीक्षित ने देश की सुरक्षा के लिए रावत के एक संकल्प पर उन्हें 'सड़क छाप गुंडा' बताया था। मुमकिन है कि दीक्षित आज भी अपने इस विचार पर कायम हों, लेकिन कुछ बचे-खुचे अपने संस्कारों की वजह से शायद वे दिवंगत के सम्मान में अब चुप हों। किंतु उनके कोई संस्कार हैं भी या नहीं, जो रावत के निधन पर हर्षोल्लास में डूबे हुए हैं? इनमें वह युवा कांग्रेसी भी शामिल है, जिसने सोशल मीडिया पर यह आशय लिखा है कि मनोहर पर्रिकर के बाद रावत को भी इसलिए जान से हाथ धोना पड़ा, ताकि रफाल सौदे का सच सामने आने नहीं दिया जा सके।

कांग्रेस मुखपत्र की संपादक महोदया ने भी इस मामले में दैवीय कृपा का ट्वीट कर बता दिया कि इस दल का वैचारिक अधोपतन क्यों हुआ है।

ये वही घिनौनी सोच है, जो अपने विकृत मानस के चलते देश की सेना का गौरव कम करने में भी पीछे नहीं रहती। ठीक उसी तरह, जैसे कि जेएनयू फेम कन्हैया कुमार ने कभी सेना को बलात्कारी बताया था और जिस तरह अरविन्द केजरीवाल ने सेना के शौर्य पर संदेह जताते हुए सर्जिकल स्ट्राइक के सबूत मांग लिए थे। आप खूब तुष्टिकरण कीजिये। इस देश का खाने के बाद भी जमकर पाकिस्तान का गाना गाइये। लेकिन रहम कर इस ओछी सोच का विस्तार तो ना करें, जो श्रीमती स्वराज के बाद अब जनरल रावत को लेकर भी निर्लज्जता के साथ प्रकट की जा रही है।

कभी-कभी मन होता है कि मौत पर हंसने वालों के घर जाकर देखा जाए कि आखिर वहां का माहौल कैसा होता होगा? आखिर किस तरकीब से वह घुट्टी पिलाई जाती होगी कि किसी इंसानियत के दुश्मन की मौत पर रुदन किया जाना चाहिए और किस तरह किसी सच्चे इंसान के न रहने की खुशी मनाई जाना चाहिए। आखिर ये है तो संस्कारों की बजाय कु-संस्कार देने का मामला ही। अब तो यह पड़ताल भी की जाना चाहिए कि आखिर वह कौन लोग हैं, जो घरों से मिले ऐसे संस्कारों को समाज में आगे ले जाने का काम करते हैं। उनकी सोच क्या है? उनका उद्देश्य क्या है? किसी के शोक को अपने और अपने जैसों के लिए खुशियों के भोग में तब्दील कर देने का छिपा हुआ एजेंडा क्या है?

हम तो उस देश और संस्कृति वाले लोग हैं, जो किसी अनजाने की शव यात्रा देखकर भी उसके सम्मान में सिर झुका लेते हैं। किसी के निधन की सूचना से अफसोस महसूस करने लगते हैं। फिर भले ही मृतक से हमारा दूर-दूर तक कोई नाता न हो। तो ऐसे लोगों के बीच ये उन्मादी कहां से आ गए? इन मुर्दाखोरों के प्रदूषण से समाज को बचाना बहुत जरूरी हो गया है।

( लेखक अनादि टी व्ही के संपादक है)

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