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भारतीय लोकतंत्र के आदर्श नायक अटल बिहारी वाजपेयी

25 दिसम्बर जन्म दिन पर विशेष -

भारतीय लोकतंत्र के आदर्श नायक अटल बिहारी वाजपेयी
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उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।

प्रो. संजय द्विवेदी/ भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी के सम्पूर्ण जीवन को भारतीय राजनीति का आदर्श जीवन निरुपित किया जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं कही जाएगी। उन्होंने अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से जहां अपनों को प्रेरणा दी है, वहीं राजनीतिक विरोधियों को भी दिशा दिखाई है। यहां राजनीतिक विरोधी इसलिए भी कहा गया है कि अटलजी का कोई विरोधी नहीं था, और न ही कोई अटलजी का विरोध करता था। देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने उनके अंदर छिपा हुआ भविष्य का प्रधानमंत्री देख लिया था। अटलजी की यह विशेषता ही कही जाएगी कि वे गलत बात का विरोध करते थे, चाहे वह बात किसी अपने ने ही कही हो, वहीं दूसरे के द्वारा कही गई हर अच्छी बात की प्रशंसा भी किया करते थे। १९७१ में भारत पाकिस्तान युद्ध के समय भारत की विजय पर अटलजी ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को दुर्गा कहकर संबोधित किया था। यह सभी को मालूम था कि उन्होंने राजनीतिक रुप से इंदिरा गांधी का विरोध ही किया था, लेकिन जहां देश हित की बात आती थी, तब अटलजी के अंदर भी देश भक्ति का भाव उमड़ता दिखाई देता था।

भारतीय लोकतंत्र के सात दशक के इतिहास में उनसा नायक खोजने पर भी नहीं मिलता। वे सिर्फ इसलिए महत्वपूर्ण नहीं हैं कि वे भारत के तीन बार प्रधानमंत्री रहे हैं, दरअसल वे खास इसलिए थे कि उन्होंने देश में दक्षिणपंथ की राजनीति को न सिर्फ लोक स्वीकृति दिलाई, वरन वे उसके नायक और उन्नायक दोनों बने। अपने लोक व्यवहार और प्रांजल भाषणशैली से पूरे देश को लंबे समय तक मोहते रहने वाले श्री अटल बिहारी वाजपेयी क्यों जनता के दिलों में राज करते थे, तो इसका विश्लेषण बहुत सहज नहीं है।

बहुत साधारण परिवार से आकर अपने संस्कारों, कार्यक्षमता और विचारधारा के प्रति समर्पण तथा सातत्य से उन्होंने जो जगह बनाई थी, वह अप्रतिम और अभूतपूर्व रही है। भारत का संसदीय इतिहास उनके उल्लेख के बिना अधूरा रह जाएगा। कवि हृदय, संवेदनशील राजनेता के रूप में उनकी ऊंचाई आज भी नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा और प्रोत्साहन का कारण है। राजनीति में आने वाले तमाम लोग आज भी उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से प्रेरणा लेते हैं। इसका कारण सिफऱ् यह है कि वे भारत की विविध भाषा-भाषी और विविध संस्कृतियों में रची-बसी अस्मिता को पहचानते थे और आम हिंदुस्तानी उन पर भरोसा करता था। भारतीय संसद के दोनों सदनों में सांसद के रूप में उनकी उपस्थिति बहुत गंभीरता से ली जाती रही। वे जब सदन में खड़े होते थे, तो पक्ष और विपक्ष दोनों उन्हें सुनना चाहते थे, क्योंकि श्री वाजपेयी बेहद सहज और सरल भाषा में कठिन से कठिन मुद्दों का भी जैसा विश्लेषण करते थे, उससे विषय बहुत आसान नजऱ आने लगते था। उनके लिए राष्ट्र सर्वोपरि रहा और राष्ट्रनिष्ठा को वे हर प्रकार की राजनीति से ऊपर मानते थे। उनकी यही दृढ़ता उन्हें भारतीय राजनीति में एक विशिष्ट जगह दिलाती थी। ग्वालियर में एक अध्यापक के परिवार में जन्म लेकर राजनीति के शिखर पर पहुँचना इतना आसान नहीं था और वह भी एक ऐसी विचारधारा के साथ जो उन दिनों बेहद संघर्ष में थी तथा जनसंघ के रूप में पार्टी की शुरुआत हो रही थी। वे कानपुर में पढ़ाई के दौरान ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संपर्क में आए। इसके बाद तो विचारधारा के प्रति इस तरह समर्पित हुए कि वे उसी के होकर रह गए। लखनऊ से पांचजन्य, राष्ट्रधर्म और स्वदेश पत्रों का प्रकाशन हुआ, तो वे उसके संपादक बने। पंडित दीनदयाल उपाध्याय का आशीर्वाद उन्हें मिलता रहा और वे एक ऐसे पत्रकार के रूप में अपनी पहचान बनाने में सफल रहे, जो प्रखर राष्ट्रवाद का प्रवक्ता बन गया। बाद में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की कश्मीर आंदोलन के दौरान शहादत के बाद श्री वाजपेयी जनसंघ में शामिल हो गए। इसके बाद जनसंघ ही उनका जीवन बन गया। पार्टी की अहर्निश सेवा और लगातार दौरों ने उन्हें देश का एक लोकप्रिय व्यक्तित्व बना दिया। जब वे पहली बार संसद पहुँचे, तो उनकी भाषण कला से संसद भी प्रभावित हुई। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने भी श्री वाजपेयी की तारीफ की। इसके बाद श्री वाजपेयी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। अपने लक्ष्य के लिए समर्पण और लगातार कार्य ही उनका उद्देश्य बन गया। ध्येय पथ पर चलने की ऐसी मिसाल शायद ही दूसरी हो। उनके नेतृत्व में जनसंघ ने अपना भौगोलिक विस्तार तो किया ही, वैचारिक दृष्टि से भी उसके विचार आम जनता तक पहुँचे। वाजपेयी की भाषण कला इसमें सहयोगी साबित हुई। लोग उनके भाषणों के दीवाने हो गए। उनकी लोकप्रियता बढ़ती गई और प्रधानमंत्री के रूप में वे पार्टी के ही नहीं, तमाम लोगों की आकांक्षाओं के केंद्र बन गए। उन दिनों पार्टी की स्थिति संसदीय लोकतंत्र को बहुत प्रभावित करने की नहीं थी। बावजूद इसके देश के जनमन में श्री वाजपेयी के प्रति भरोसा बढ़ता गया और लोग चाहने लगे कि वे एक बार देश के प्रधानमंत्री ज़रूर बनें। इस बीच देश में आपातकाल लग गया और श्रीमती इंदिरा गांधी की तानाशाही के खिलाफ एक बड़े आंदोलन का प्रारंभ हुआ। श्री वाजपेयी समेत देश के सभी बड़े विपक्षी नेता जेल में डाल दिए गए। आपातकाल विरोधी शक्तियों के समन्वय से जनता पार्टी का गठन हुआ, जिसे बाद में सरकार बनाने का मौका भी मिला। इस सरकार में श्री वाजपेयी विदेश मंत्री बनाए गए। उनके विदेश मंत्री के रूप में किए गए कार्यों की आज भी याद किया जाता है। उन्होंने विश्व मंच पर भारत की एक खास पहचान बनाई। बावजूद इसके जनता पार्टी का प्रयोग विफल रहा और सरकार कार्यकाल पूरा न कर सकी। इसके बाद 1980 में जनता पार्टी से अलग होकर जनसंघ घटक के लोगों ने भारतीय जनता पार्टी का गठन किया। भाजपा के प्रथम अध्यक्ष श्री अटल बिहारी वाजपेयी बनाए गए। इसके बाद श्री वाजपेयी और श्री लालकृष्ण आडवाणी की जोड़ी ने भाजपा को फिर से खड़ा करना प्रारंभ किया। वाजपेयी वैसे भी सम्मोहित कर देने वाले वक्ता थे, जो लोगों के दिलो-दिमाग में हलचल मचा देता था। वे एक स्वप्नद्रष्टा तो थे ही और उनके हाव-भाव सम्मोहित कर देने वाले होते थे। भारतीय जनता पार्टी को प्रारंभ में साधारण सफलताएं ही मिलीं, किंतु पार्टी को मिले असाधारण नेतृत्व ने इन सामान्य सफलताओं को आगे चलकर बड़ी सफलताओं में बदल दिया। सबको साथ लेकर चलने की क्षमताओं के नाते वाजपेयी वैसे ही लोगों के चहेते थे। शायद इसी के चलते वे देश में पहली स्थिर गैर कांग्रेसी सरकार चलाने में सफल रहे। उन्हें प्रधानमंत्री के रूप में मिले कार्यकाल में देश में अनेक महत्वपूर्ण योजनाएं प्रारंभ हुईं। उनकी सरकार ने लगभग 24 दलों को साथ लेकर चलने का जादू कर दिखाया। यह वाजपेयी के नेतृत्व का ही कमाल था कि पहली बार ऐसा प्रयोग दिल्ली में सफल रहा।

भाजपा के पास डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, पंडित दीनदयाल उपाध्याय से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी जैसे समर्थ और आदरणीय व्यक्तित्वों की पूरी परंपरा मौजूद है। सही अर्थों में वाजपेयी डा. मुखर्जी और पंडित उपाध्याय की परंपरा के सच्चे उत्तराधिकारी थे। दायित्वबोध के साथ राष्ट्रवाद का ऐसा समुच्चय साधारणतया देखने में नहीं आता। राजनीति में रहकर भी राजनीति के राग-द्वेष से मुक्त रहना साधारण नहीं था। श्री वाजपेयी ने पार्टी और राष्ट्र को ही अपना सब कुछ माना और इसके भवितव्य के लिए ही उनका पूरा जीवन समर्पित रहा। आज जबकि राजनीति में अनैतिकता, भ्रष्टाचार और तमाम तरह के कदाचरण प्रभावी होते जा रहे हैं तब श्री अटल बिहारी वाजपेयी जैसे व्यक्तित्व की याद आती है। वे विश्वास की एक ऐसी पूंजी थे, जो कार्यकर्ताओं के हिलते हुए आत्मविश्वास का सहारा बने रहे। ऐसे ही संकल्पवान और नैतिक व्यक्तित्व, विचारधारा से जुड़े राजनैतिक कार्यकर्ताओं को यह संबल देते थे कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। विश्वास और नैतिकता की यह डोर एक वैचारिक दल का सबसे बड़ा सहारा होती है। श्री अटल बिहारी वाजपेयी जैसे लोग इस विश्वास को और मजबूत करते थे और भरोसा जगाते थे कि आने वाला समय वैचारिक तथा नैतिक राजनीति का समय वापस लाएगा। आज की भारतीय जनता पार्टी और उसके कार्यकर्ताओं के लिए वाजपेयी सिफऱ् एक इतिहास नहीं हैं, वे चुनौती भी हैं, क्योंकि वाजपेयी दिखते भले साधारण रहे हों, वे एक असाधारण राजनेता थे। उन सा होना, उन सा जीना, उन सा करना, उन सा दिखना सरल नहीं है। वे वाणी और जीवन में साम्य का एक ऐसा उदाहरण थे, जो अपने विश्वासों के लिए जीता था और उन्हीं के आधार पर जीतता भी आया था। आज जबकि राजनीतिक दलों के सामने विश्वास का संकट खड़ा है, आम जनता के मन में राजनेताओं के प्रति एक गहरा अवसाद और निराशा भाव घर कर गया है वाजपेयी जैसे नाम हमें राहत देते थे। वे राजनीतिक क्षेत्र की एक ऐसी प्रेरणा हैं, जिसकी चमक कभी भी खत्म नहीं होगी। उनकी अनुपस्थिति में उनकी याद और गहरी हो गयी है।

(प्रो. संजय द्विवेदी, लेखक मीडिया विमर्श के कार्यकारी संपादक हैं)

Updated : 23 Dec 2018 8:04 AM GMT
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