भोपाल के नवाबों की गद्दारी: स्वतंत्रता संग्राम में विश्वासघात का इतिहास

भारत का स्वतंत्रता संग्राम न केवल वीरता और बलिदान की गाथा है, बल्कि उन गद्दारों की कहानी भी है, जिन्होंने अपने स्वार्थ और अवसरवादी नीतियों के चलते राष्ट्र की एकता और स्वाधीनता की राह में कांटे बिछाए। भोपाल रियासत के नवाब, विशेष रूप से सिकंदर बेगम और नवाब हमीदुल्ला खान, इस विश्वासघात के प्रतीक रहे।
1857 की प्रथम स्वतंत्रता क्रांति में सिकंदर बेगम ने अंग्रेजों का साथ दिया, तो 1947-49 में नवाब हमीदुल्ला खान ने भारत के साथ विलय का विरोध कर देश की एकता को चुनौती दी। यह लेख ऐतिहासिक तथ्यों और संदर्भों के आधार पर भोपाल के नवाबों की राष्ट्र-विरोधी नीतियों का विश्लेषण करता है और भोपाल में इनके नाम पर स्थापित संस्थानों के नाम परिवर्तन की आवश्यकता पर बल देता है।
भोपाल रियासत का प्रारंभिक इतिहास
भोपाल रियासत की स्थापना 18वीं शताब्दी में एक अफगान मूल के पठान, दोस्त मोहम्मद खान ने की थी। मध्य भारत में गोंड राजवंश के शासन के दौरान, भोपाल क्षेत्र गोंड राजा निजाम शाह के अधीन था। उनकी पत्नी रानी कमलापति के समय, दोस्त मोहम्मद ने राजनीतिक अस्थिरता का फायदा उठाकर 1723 में भोपाल पर कब्जा कर लिया।
यह कब्जा धोखे और अवसरवाद का परिणाम था, क्योंकि निजाम शाह के कोई उत्तराधिकारी नहीं थे। इसके बाद, भोपाल रियासत ब्रिटिश संरक्षण में आ गई। 1818 की संधि के तहत भोपाल ने ब्रिटिश अधीनता स्वीकार की, जिसने इसे अंग्रेजों के प्रति निष्ठावान रियासत बना दिया।
1857 की क्रांति में सिकंदर बेगम की गद्दारी
1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ था। मेरठ से शुरू होकर यह क्रांति झांसी, कानपुर, दिल्ली और अवध तक फैली। रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे और नाना साहेब जैसे क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों के खिलाफ हथियार उठाए। लेकिन इस समय भोपाल की शासक सिकंदर बेगम ने न केवल क्रांतिकारियों का साथ देने से इनकार किया, बल्कि अंग्रेजों को सक्रिय समर्थन प्रदान किया।
सिकंदर बेगम की गद्दारी के प्रमुख तथ्य:
1. सैन्य सहायता: सिकंदर बेगम ने ब्रिटिश सेनाओं को रसद, सैनिक और मार्ग उपलब्ध कराए।
2. खुफिया जानकारी: उन्होंने क्रांतिकारियों की योजनाओं की जानकारी अंग्रेजों तक पहुंचाई, जिससे झांसी, सागर और सिवनी जैसे क्रांति के केंद्र कमजोर हुए।
3. क्रांतिकारियों के मार्ग अवरुद्ध: रानी लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे जैसे नेताओं को मध्य भारत में सुरक्षित मार्ग देने से इनकार किया।
4. ब्रिटिश शरण स्थल: भोपाल यूरोपीय अधिकारियों के लिए शरण स्थल बना, जहां उन्हें संरक्षण दिया गया।
इस विश्वासघात के बदले, ब्रिटिश सरकार ने 1861 में सिकंदर बेगम को नाइट ग्रांड कमांडर ऑफ द स्टेट (GCSI) की उपाधि दी और उनकी रियासत को स्थायी उत्तराधिकार का दर्जा दिया। इतिहासकार जॉन के (John Kaye, *History of the Sepoy War in India, Vol. II, 1880*) और सुरेश कुमार (*इतिहास शोध पत्रिका, 2018*) ने इस गद्दारी को भोपाल रियासत की ब्रिटिशपरस्ती का स्पष्ट प्रमाण बताया है।
1947-49 में नवाब हमीदुल्ला खान का भारत-विरोधी रवैया
स्वतंत्रता के समय भोपाल रियासत के अंतिम शासक नवाब हमीदुल्ला खान थे। उनकी नीतियां भारत की एकता और अखंडता के खिलाफ थीं, जिसने उन्हें राष्ट्र-विरोधी की श्रेणी में ला खड़ा किया।
भोपाल रियासत की प्रमुख घटनाएँ और तिथियाँ:
- 15 अगस्त 1947: भारत स्वतंत्र हुआ, लेकिन नवाब हमीदुल्ला ने भोपाल को भारतीय संघ में शामिल करने से इनकार किया।
- सितंबर 1947 : उन्होंने भोपाल को स्वतंत्र इस्लामी रियासत बनाने की योजना बनाई।
- 1947-48 : नवाब ने मुस्लिम लीग और मोहम्मद अली जिन्ना के साथ गुप्त संपर्क बनाए रखा।
- मार्च 1948: उन्होंने भोपाल की स्वतंत्र स्थिति की घोषणा की और भारत सरकार के खिलाफ कथित वैधानिक सरकार स्थापित की।
- दिसंबर 1948 : भोपाल की जनता ने “भोपाल रियासत भारतीय संघ में मिलाओ” आंदोलन शुरू किया।
- 23 जनवरी 1949: सरदार वल्लभभाई पटेल ने वी.पी. मेनन को विलय वार्ता के लिए भोपाल भेजा।
- 30 अप्रैल 1949: भारी जन दबाव और आंदोलन के बाद नवाब ने Instrument of Accession पर हस्ताक्षर किए।
- 1 जून 1949 : भोपाल औपचारिक रूप से भारतीय संघ का हिस्सा बना।
नवाब हमीदुल्ला खान की गद्दारी के तथ्य
1. विलय का विरोध - नवाब ने भारत में विलय का विरोध कर भोपाल को स्वतंत्र इस्लामी रियासत बनाने का प्रयास किया।
2. मुस्लिम लीग से संबंध - वह जिन्ना के करीबी सहयोगी थे और मुस्लिम लीग के “डायरेक्ट एक्शन” और कैबिनेट मिशन प्लान में अप्रत्यक्ष रूप से शामिल रहे।
3. जन आंदोलन का दमन - “भोपाल रियासत भारतीय संघ में मिलाओ” आंदोलन को हिंसक रूप से दबाने का प्रयास किया। स्वतंत्रता सेनानी श्री शंकरदयाल शर्मा, श्री रामचंद्र देशमुख और श्री उत्तमचन्द्र इसराणी को जेल में डाला गया और यातनाएं दी गईं।
वी.पी. मेनन (The Story of the Integration of Indian States, 1956) और आर. पटेल (भारतीय इतिहास सम्मेलन, 1975) जैसे इतिहासकारों ने नवाब की इन नीतियों को भारत की एकता के खिलाफ बताया है।
भोपाल में जनता का प्रतिरोध
1948 में भोपाल की जनता ने “भोपाल रियासत भारतीय संघ में मिलाओ” आंदोलन शुरू किया, जिसका नेतृत्व श्री शंकरदयाल शर्मा (बाद में भारत के राष्ट्रपति),श्री रामचंद्र देशमुख और श्री उत्तम चन्द्र जी इसराणी जैसे नेताओं ने किया। इस आंदोलन में बड़े पैमाने पर सत्याग्रह, प्रदर्शन और जनसभाएं आयोजित की गईं। नवाब ने इस आंदोलन को दबाने के लिए हिंसा का सहारा लिया।
5-6 जनवरी 1949 को शंकरदयाल शर्मा सहित कई नेताओं को आठ महीने की जेल की सजा दी गई। लेकिन जनता के दबाव और सरदार वल्लभभाई पटेल के कड़े रुख के कारण नवाब को 30 अप्रैल 1949 को विलय पत्र पर हस्ताक्षर करने पड़े, और 1 जून 1949 को भोपाल भारतीय संघ का हिस्सा बना।
अगर हम भोपाल के नवाबो के कार्यकलापों का ऐतिहासिक मूल्यांकन करें तो स्पष्ट हो जाता है कि 1857 में सिकंदर बेगम की अंग्रेजों के प्रति निष्ठा ने मध्य भारत में क्रांति की गति को कमजोर किया और भोपाल ब्रिटिश हितों का गढ़ बन गया।
इसी प्रकार नवाब हमीदुल्ला खान ने 1947 से 1949 तक भारत की एकता को चुनौती देते हुए भोपाल को स्वतंत्र इस्लामी रियासत बनाने की कोशिश की। उनकी मुस्लिम लीग और जिन्ना से निकटता ने रियासत को साम्प्रदायिक राजनीति का केंद्र भी बनाया।
कुल मिलाकर भोपाल के नवाबों का इतिहास स्वतंत्रता संग्राम में नायकत्व के बजाय ब्रिटिशपरस्ती और राष्ट्र-विरोधी नीतियों का दस्तावेज है।
निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि भोपाल के नवाबों का इतिहास भारत के स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्र निर्माण के संदर्भ में एक कलंकित अध्याय है। सिकंदर बेगम की 1857 में अंग्रेजों के प्रति निष्ठा और हमीदुल्ला खान का 1947-49 में भारत-विरोधी रवैया उनकी गद्दारी और अवसरवादी मानसिकता को उजागर करता है। इस ऐतिहासिक सत्य को पाठ्यपुस्तकों और शैक्षिक विमर्श में शामिल करना आवश्यक है, ताकि भावी पीढ़ियां समझ सकें कि राष्ट्र निर्माण न केवल बलिदानियों की वीरता से, बल्कि गद्दारों की पहचान और प्रतिरोध से भी संभव हुआ।
आज समय आ गया है कि भोपाल में सिकंदर बेगम और हमीदुल्ला खान के नाम पर स्थापित सभी संस्थानों, जैसे सड़कों, भवनों और संगठनों का नाम तत्काल बदलकर गुलामी और गद्दारी के इस कलंक को मिटाया जाए। इसके स्थान पर रानी लक्ष्मीबाई, शंकरदयाल शर्मा या अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के नाम पर इनका नामकरण किया जाए, ताकि भोपाल का इतिहास देशभक्ति और बलिदान का प्रतीक बने।
लेखक - डॉ. विश्वास चौहान (प्राध्यापक, विधि, स्टेट लॉ कॉलेज, भोपाल)
