Home > स्वदेश विशेष > अंतिम दिनों में माकपा ने नहीं की सोमनाथ चटर्जी की कद्र

अंतिम दिनों में माकपा ने नहीं की सोमनाथ चटर्जी की कद्र

अंतिम दिनों में माकपा ने नहीं की सोमनाथ चटर्जी की कद्र
X

-उमेश चतुर्वेदी

लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी का निधन हो गया । वह 89 साल के थे। चटर्जी लंबे समय से बीमार चल रहे थे। दिल का हल्का दौरा पड़ने के बाद उनकी स्थिति और बिगड़ गई थी, जिसके बाद उन्‍हें अस्पताल में भर्ती कराया गया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनके निधन पर शोक जताया है।

1995 और 2008 में क्या समानता हो सकती है? सवाल अगर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को लेकर हो तो इसमें समानता ढूंढ़ना ही होगी। 1995 में सीपीएम के एक दिग्गज ने एक सुझाव दिया था। चूंकि वह सुझाव पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व की मंशा के खिलाफ था, लिहाजा संसद की बहसों में छाये रहने वाले उस नाम को अगली बार टिकट ही नहीं दिया...इसके ठीक 13 साल बाद संसद की ही बहसों में छाये रहने वाले दूसरे नाम ने संविधान और नैतिकता के मुताबिक कदम तो उठाया, लेकिन पार्टी की बात मानने से इनकार कर दिया। अंजाम वही हुआ, 40 साल की सदस्यता पार्टी ने एक झटके में खत्म कर दी और उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया।

पहले शख्स थे सैफुद्दीन चौधरी और दूसरे शख्स रहे सोमनाथ चटर्जी। दोनों की जिंदगी में एक और समानता रही। दोनों को आखिरी दिनों में उस पार्टी की ओर से कोई मिलने तक नहीं आता था, जिसके लिए उन्होंने खून-पसीना बहाया था। सैफुद्दीन चौधरी दिल्ली के मयूर बिहार फेज एक के अपने फ्लैट में गुमनाम सी जिंदगी गुजारते हुए 15 सितंबर 2014 को गुमनाम ही इस दुनिया से कूच कर गए। इन अर्थों में सोमनाथ चटर्जी की स्थिति थोड़ी बेहतर रही। दुनिया से रवानगी के वक्त कम्युनिस्ट आंदोलन में उनकी भूमिका से कहीं ज्यादा उनके संसदीय जीवन और नैतिकता को याद किया जा रहा है। हालांकि स्पीकर रहते उन्होंने कई बार उनका भारतीय जनता पार्टी के प्रति आग्रही रूख भी नजर आया। एक बार तो लालकृष्ण आडवाणी ने सवाल भी उठाया था।

जुलाई 2008 में अमेरिका से परमाणु समझौते के विरोध में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की अगुआई में वाममोर्चे ने तत्कालीन मनमोहन सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। तब तत्कालीन सरकार के खिलाफ भारतीय जनता पार्टी ने अविश्वास प्रस्ताव पेश किया था, जिस पर 22 जुलाई 2008 को चर्चा हुई थी और तब समाजवादी पार्टी के सहयोग से सरकार बच गई थी। बहरहाल तब मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के तत्कालीन महासचिव प्रकाश करात ने सोमनाथ चटर्जी को लोकसभा के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने का निर्देश दिया था। हालांकि उनके एक वोट से सरकार की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता। लेकिन उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष के रूप में निष्पक्षता की अपनी भूमिका पर बल देते हुए इस्तीफा देने से इनकार कर दिया। इससे नाराज पार्टी पोलित ब्यूरो ने चालीस साल पहले कार्ड होल्डर बनने का भी ध्यान नहीं रखा और उन्हें पार्टी से निकाल दिया। तब पश्चिम बंगाल में पार्टी के प्रमुख नेता विमान बोस ने कहा था, "संविधान के लिहाज से सोमनाथ चटर्जी का कदम सही हो सकता है, लेकिन पार्टी सर्वोच्च है और पार्टी संविधान का उन्होंने उल्लंघन किया है।" इसके बाद सोमनाथ चटर्जी ने अपना कार्यकाल पूरा किया, लेकिन सीपीएम से उनका नाता टूट गया।

वे चाहते तो कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के सहयोग से राज्यसभा में जा सकते थे। अंदरखाने में उन्हें ऐसे प्रस्ताव दिए भी गए थे, लेकिन उन्होंने नैतिकता का ध्यान रखा और राजनीति से दूर कोलकाता के अपने घर में लौट गए। जहां उनसे मिलने वाले उनके निजी परिचित ही आते रहे। राजनीति की दुनिया में उन्होंने जिनके साथ कंधा से कंधा मिलाया था, वे लोग उनसे मिलने से कतराते रहे। भारतीय जनता पार्टी के शुरूआती उभार के दौर में भी उन्होंने जिस तरह अपनी पार्टी की तरफ से मोर्चा संभाला, उसका भी पार्टी ने लिहाज नहीं किया। माना जाता है कि चूंकि वे प्रकाश करात की कार्यशैली और नीतियों के आलोचक रहे। शायद यही वजह रही कि परमाणु समझौते के दौरान उन्होंने नैतिकता के नाम जो कदम उठाया, उसकी कीमत पार्टी से निष्कासन के रूप में चुकाई और आखिरी वक्त उन्हें तनहाई में गुजारना पड़ा। अगर वे अपनी पार्टी के आला नेतृत्व की हां में हां मिलाते रहते तो शायद उनका ऐसा हश्र नहीं होता।

सोमनाथ चटर्जी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की इस रवायत के पहले शिकार नहीं रहे। 1995 में उकी ही तरह संसद में छाए रहने वाले पार्टी सांसद सैफुद्दीन चौधरी ने पार्टी आलाकमान की अवहेलना तो नहीं की, अलबत्ता आलाकमान की मर्जी के खिलाफ एक सुझाव दे डाला था। वह दौर था, जब कांग्रेस कमजोर हो रही थी और भारतीय जनता पार्टी का उभार हो रहा था। लेकिन तत्कालीन पार्टी महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत कांग्रेस का सहयोग करने की बजाय तीसरे मोर्चे के नेताओं, खासकर मुलायम सिंह यादव के प्रभा मंडल में थे। चूंकि अयोध्या आंदोलन में मुलायम ने कार सेवकों पर गोली चलवा दी थी,इसलिए उनमें धर्मनिरपेक्ष राजनीति की बड़ी संभावना सुरजीत देख रहे थे। लेकिन सैफुद्दीन चौधरी ने 1995 में हुई चंडीगढ़ पार्टी कांग्रेस में सुझाव दिया था कि बढ़ती सांप्रदायिकता को रोकने के आज की जरूरत यह है कि पार्टी कांग्रेस को सहयोग देने की लाइन पर चले। चूंकि तब वाममोर्चे को अपने प्रभाव वाले तीनों राज्यों केरल, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में कांग्रेस से ही चुनौती मिलती थी, इसलिए पार्टी ने सैफुद्दीन के सुझाव को सिरे से खारिज कर दिया। उन्होंने अपने सुझाव पर जोर दिया तो अगले साल होने वाले संसदीय चुनावों में उनका उस कटवा लोकसभा सीट से टिकट काट दिया गया, जहां से वे चार बार से सांसद थे। अगले साल हुए चुनावों में भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी,उसने 13 दिनी सरकार भी चलाई, लेकिन शिवसेना के अलावा दूसरे दल ने उसका साथ नहीं दिया। इसके बाद तीसरे मोर्चे को कांग्रेस ने समर्थन दिया। तब सीपीएम महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत मुलायम सिंह यादव को प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे। लेकिन तीसरे मोर्चे में सबसे ज्यादा ताकतवर जनता दल था,उसके नेता शरद यादव जैन डायरियों में नाम आने से चुनाव नहीं लड़े थे और तब लालू प्रसाद यादव अध्यक्ष थे। लालू खुद भी प्रधानमंत्री बनना चाहते थे,लेकिन चारा घोटाले की छाया उन दिनों घनी होती जा रही थी, लिहाजा उन्होंने प्रधानमंत्री पद पर अपने दल का ही दावा ठोका और मुलायम के नाम पर सहमति नहीं दी। इसी खींचतान में करूणानिधि और एन चंद्रबाबू नायडू के बीचबचाव के बाद कर्नाटक के अनाम से मुख्यमंत्री रहे देवेगौड़ा का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए उभरा।

सीपीएम नेतृत्व की सोच कैसी है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिस वजह से उसने सैफुद्दीन चौधरी का टिकट काटा, सिर्फ तीन साल बाद वही काम खुद सुरजीत करने लगे। 1998 में जब जयललिता के समर्थन वापस लेने से वाजपेयी सरकार गिर गई तो तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनवाने के लिए उन्होंने दिन-रात एक कर दिया था। यह बात और है कि सोनिया प्र्धानमंत्री नहीं बन पाईं। तब मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर सुरजीत की तत्कालीन कांग्रेस लाइन को लेकर बाबा नागार्जुन की मशहूर कविता गायी जाने लगी थी, आओ रानी ढोएं हम तुम्हारी पालकी।

अपनी पुस्तक रिपब्लिक में प्लेटो ने आदर्श राज्य और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बात की है। लेकिन कैडर आधारित पार्टियों में निजी आजादी का सिरा बेहद संकुचित है। सोमनाथ चटर्जी और सैफुद्दीन चौधरी इसके उदाहरण हैं। संसद को हिलाने वाले दोनों ही नेता अपने आखिरी दौर में बेहद अकेले रहे। उनसे मिलने वे पार्टी कार्यकर्ता तक कतराते रहे, जो सोमनाथ के अच्छे दिनों में उनका कृपा पात्र बनने के लिए तरसते रहे। सैफुद्दीन चौधरी तो आखिरी दिनों में दिल्ली के मयूर बिहार फेज एक में सब्जी-भाजी खरीदते दिख जाते। लोग उन्हें पहचानते तक नहीं थे।

क्या कैडर आधारित राजनीति में आवाज उठाने की आखिरी परिणति अकेलापन ही है, सोचिए एक दौर में राजनीति के केंद्र में रही इन शख्सियतों ने अपने अकेलेपन को कैसे भोगा होगा। उनके निधन के बाद हमें उनकी उपलब्धियां तो खूब याद आती हैं, हम उन्हें गिनाते भी हैं, लेकिन उनकी जिंदगी के आखिरी पल के अंधेरे और अकेले कोने कैसे रहे होंगे, इन पर हमारा ध्यान नहीं जाता। पहले सैफुद्दीन चौधरी और अब सोमनाथ चटर्जी की जिंदगी के आखिरी पल हमें इस नजरिए से सोचने को मजबूर करते हैं

Updated : 13 Aug 2018 10:13 PM GMT
Tags:    
author-thhumb

Swadesh Digital

स्वदेश वेब डेस्क www.swadeshnews.in


Next Story
Top