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5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था और खैराती भीड़ गढ़ती संसदीय राजनीति

... और भारत राजनीतिक तू- तू मैं- मैं में कहीं खो जाएगा।

5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था और खैराती भीड़ गढ़ती संसदीय राजनीति
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डॉ. अजय खेमरिया

जबाबदेह नागरिक समाज के अपरिहार्य तत्व को खत्म करने की समवेत सहमति बनाती चुनावी राजनीति एक खतरनाक संकेतक है।दिल्ली विधानसभा चुनाव में जिस तरह मुफ्तखोरी की उद्घोषणाए हो रही है वह भारत के संसदीय लोकतंत्र की परिपक्वता को प्रश्नचिंहित करता है।औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के प्रस्ताव का विरोध करते हुए ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने कहा था "धूर्त, बदमाश, एवं लुटेरे हाथों में सत्ता चली जायेगी।सभी भारतीय नेता सामर्थ्य में कमजोर और महत्वहीन व्यक्ति होंगे।वे जुवान से मीठे होंगे।सत्ता के लिए आपस में लड़ मरेंगे और भारत राजनीतिक तू- तू मैं- मैं में कहीं खो जाएगा।"

चर्चिल इस पूर्वानुमान को पूरी तरह से सत्य तो नही कहा जा सकता लेकिन जिस तरह से भारत को सत्ता का टापू बना दिया गया है उसे समझते हुए उनके आंकलन को सिरे से खारिज भी नही किया जाना चाहिए।

दिल्ली के मुख्यमंत्री आईआईटीयन है इनकम टैक्स ऑफिसर रहे है।वे जिस अंदाज में फिर से सत्ता की चाबी मतदाताओं से मांग रहे है उसे आप सुशासन कैसे निरूपित कर सकते है।जबाब में बीजेपी के संकल्प पत्र को देखिये जिस मुफ्तखोरी के धरातल पर केजरीवाल खड़े है उससे चार कदम आगे बीजेपी दिखना चाहती है।इस बीच मेट्रो मैन ई श्री धरण ने अपील जारी कर मेट्रो जैसी राष्ट्रीय धरोहर को चुनावी अड्डा न बनाएं जाने की अपील की है।श्री धरण की अपील का कोई असर दिल्ली दंगल के सियासी पहलवानों पर होगा इसकी भी कोई संभावना नही है।सवाल यह है कि क्या भारत मुफ्तखोर और राज्य प्रायोजित अनुदान पर आश्रित समाज मे तब्दील हो रहा है ?क्या लोकतंत्र से नागरिक पूरी तरह विस्थापित कर सिर्फ वोट बेस्ड हितग्राही बना दिये गए है?भारत में लोकतंत्र नही वोटतंत्रीय राज स्थापित हो रहा है।बेशक हमारी प्रतिबद्धता एक लोककल्याणकारी राज्य के लिए है।समाजवाद और सामाजिक न्याय हमारे संविधान के नैतिक निर्देश है सत्ता चलाने वालों के लिए।लेकिन क्या लोकतंत्र केवल "मतदान व्यवहार"की प्रवर्तियों से चलना चाहिये?आज का भारत केवल चुनावी राजनीति का एक टापू नही बन गया है।चर्चिल ने जिस चरित्र को 1947 में आशंकाओं के साथ रेखांकित किया था वह आज हमारे संसदीय चरित्र में स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है। सच यह है कि मौजूदा भारत संवैधानिक उपबन्धों से नही नेताओं की दलीलों उनके वादों से चलाया जा रहा है।बिडम्बना यह है कि सब कुछ संविधान की किताब हाथों में लेकर किया जा रहा है।पिछले तीन दशक भारत के लोकजीवन में दो परिघटनाओं के लिए चिन्हित किए जाने चाहिए।पहली अर्थनीति से राजनीति के नियंत्रण और दूसरा चुनावी राजनीति के लिए एक गैर जबाबदेह भीड़ के निर्माण।

1991 से भारत का पीएमओ वित्त मंत्रालय की आज्ञापरक छाया में चला गया। जिसने राजव्यवस्था से नागरिकशास्त्र विलोपित कर उपभोक्ताशास्त्र को स्थापित कर दिया।अब राज्य के नीतिनिर्माण में नागरिक नही कम्पनियों के उपभोक्ता केंद्र में आ गए।इसने गरीबी और अमीरी को स्थाई बना दिया बस थोड़ा नया मिडिल क्लास बनाकर।

राज्यों की सल्तनत सरकार के खजाने से लुटाई जा रही अविवेकपूर्ण सब्सिडी से निर्धारित होने लगीं।लुटाने और लूटने के इस दौर में कोई भी पीछे नही रह जाना चाहता है।सब चैम्पियन बनने के जुनून से लबरेज है।मुफ्त बिजली,पानी, बेरोजगारी भत्ता, प्रसव भत्ता, तीर्थ यात्रा,हज,लाडली लक्ष्मी,मजदूर सुरक्षा,कामगार सुरक्षा,2 रुपए किलो अनाज, साड़ी,स्कूटी,साइकिल,जूते,मेट्रो ,रंगीन टीव्ही, किसान निधि,दहेज,से लेकर अंतेष्टि तक सब कुछ सरकार के दरवाजे पर खड़ा है।यानी गर्भधारण के साथ ही वोटर की घेराबंदी शुरू हो रही है और उसके अंतिम संस्कार तक मुफ्तखोरी पूरी ठसक के साथ भोगने और मांगने पर किसी को कोई गुरेज नही है।

आखिर हम किस नागरिक समाज के निर्माण पर निकल दिए है?जो सिर्फ अतिशय अधिकार की चेतना से लबरेज है।जिसके जेहन में राज्य की अवधारणा केवल खैरात केंद्र की बना दी गई है।केजरीवाल जैसा शख्स जो व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर सत्ता में आया वह क्यों ये कहकर वोट मांगने पर विवश है कि अगर उन्हें वोट नही दिया तो मुफ्त पानी,बिजली,दवा,मेट्रो सब बन्द हो जाएगा।क्या उनके पास अपने सुशासन का कोई आधार नही है।वह भी उस दिल्ली में जहां के निवासियों की प्रति व्यक्ति आमदनी राष्ट्रीय औसत से तीन गुना है।क्यों नितिन गडकरी जैसा विजनरी नेता मुफ्त स्कूटी के वादे के साथ अपनी पार्टी के संकल्प पत्र को जारी करते है।तथ्य यही है कि भारत की संसदीय राजनीति एकमेव सत्ता संधान के लक्ष्य पर आकर टिक गई है।किसानों की कर्जमाफी के वादों को लेकर कई राज्यों में सरकारें बनाई जा रही है।एन टी रामाराव ने मुफ्त टीव्ही बांटकर सत्ता हासिल की तो जयललिता ने अम्मा भोजन,पानी,साड़ी,एलसीडी तक वोटरों को बांटे।यानी चारों तरफ भारत मे सरकारें खैरात की शहंशाह बनने की प्रतिस्पर्धा में।यूपीए के नेतृत्व वाली मनमोहन सरकार ने नरेगा जैसी योजना शुरू की।आज भी दावा किया जाता है कि ये दुनिया की सबसे बड़ी रोजगार देने वाली स्कीम है।हकीकत यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में आज नरेगा में पंजीकृत मजदूर इसलिये कोई अन्य काम करने के लिए नही मिलते है क्योंकि उन्हें एक दिन की मजदूरी में महीने भर का अनाज एक तरह मुफ्त में मिल जाता है।मिड डे मील और आंगनबाड़ी से बच्चों को एक वक्त का भोजन मिल जाता है।नतीजतन खेती किसानी या निर्माण क्षेत्रों के लिये मजदूर मिलना बड़ी समस्या हो गया।नरेगा और मुफ्त अनाज जैसी योजनाओं में वास्तविक जरूरतमंदों के लिए फिल्टर करने का कोई तंत्र नही है।गांव की वोटर लिस्ट उठाकर नरेगा के कार्ड बना दिये गए।कमोबेश बीपीएल, मजदूर सुरक्षा और आयुष्मान जैसी सभी फ्लैगशिप स्कीम्स का यही हाल है।इसलिए किसी भी मंत्री,मुख्यमंत्री, डीएम की जनसुनवाई का जायजा लीजिये आपको आधे लोग बीपीएल कार्ड बनबाने की सिफारिश लेकर आये हुए मिलेंगे।

क्या यह उलटबांसी नही है कि हम पिछले 50 सालों से गरीबी हटाने के जुमले गढ़ रहे है और भारत मे लोग गरीब होने के सरकारी सर्टिफिकेट हक से मांग रहे है।

निर्मम सच यही है कि हमारी राजव्यवस्था भी यही चाहती है कि भारत में गरीबी बनी रहे।मुफ्तखोरी से ऐसे समाज और वर्ग का निर्माण होता रहे जो सदैव खैरात के लिए ताकता रहे।यह स्थिति समेकित रूप से एक रुग्ण समाज व्यवस्था को जन्म देगी। इस अनुत्पादकीय और जबाबदेही निर्मुक्त भीड़ के बीच वैश्विक आर्थिक ताकत बनने के दावे कहा से सफल होंगे यह केजरीवाल, गडकरी, नायडू ,अमरिंदर, चंद्रशेखर राव जैसे नेता ही बता सकते है।

Updated : 3 Feb 2020 11:47 AM GMT
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