संघ कार्य के 100 वर्ष: आज भी मेरे पास डॉ. हेडगेवार के जन्म शताब्दी वर्ष का प्रमाण पत्र मौजूद है

संघ कार्य के 100 वर्ष: आज भी मेरे पास डॉ. हेडगेवार के जन्म शताब्दी वर्ष का प्रमाण पत्र मौजूद है
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पुरानी स्मृतियों में एक प्रसंग आज भी खास है। हाल ही में पुराने कागजों में एक पत्र मिला, जिस पर सुधाकर राव गोखले के हस्ताक्षर थे। डॉ. हेडगेवार के शताब्दी वर्ष 1989 में सूर्य नमस्कार के एक विशाल कार्यक्रम का प्रमाण पत्र था। आज के डिजिटल युग में, जब प्रमाण पत्रों की भरमार है, वह यह एक कागज़ का टुकड़ा अपने भीतर पूरी पीढ़ी की यादें समेटे हुए है। यही धरोहर है, जिससे पता चलता है कि यात्रा कितनी पुरानी और सतत है।

दोस्त कहते थे, “शाखा में जाकर क्या मिलेगा?” वही आज कहते हैं, “काश! हम भी शाखा में गए होते।”

संघ की शाखा में जब पहली बार कदम रखा, तब मन में उत्सुकता से ज्यादा संशय था। उम्र शायद सत्रह अठारह साल होगी, पढ़ाई का वक्त था, और मोहल्ले के कुछ लोग कहते, “चलो शाखा चलते हैं।” तब लगा, यह समय शायद किताबों को देना चाहिए, पर उस दिन शाखा ने जीवन की दिशा बदल दी। धीरे-धीरे समझ में आया कि यहां सिर्फ व्यायाम या खेल नहीं होते, यहां जीवन का मर्म सिखाया जाता है। राष्ट्र, समाज और मनुष्य के प्रति कर्तव्य का महत्व यहीं सिखाया जाता है।

यह बात सन् 1987-88 की है। दाल बाजार की शाखा में कुछ समर्पित स्वयंसेवक थे — सुरेश अग्रवाल, निर्मल जैन, डॉ. दिनेश भूरानी और डॉ. जे.एस. नामधारी जी। डॉ. भूरानी और डॉ. नामधारी आज समाज में प्रतिष्ठित चिकित्सक के रूप में काम कर रहे हैं। दोनों के साथ मेरा संपर्क आज भी सतत बना हुआ है। हमारी शाखा के अन्य स्वयंसेवक भी आज व्यापार, सरकारी सेवा और समाज कार्य के क्षेत्रों में सफलता के साथ कार्यरत हैं। इसी दाल बाजार शाखा से मेरी सीधे जुड़ाव की यात्रा प्रारंभ हुई, जो आज भी जारी है।

वर्षों बाद जब किसी वर्ग या शिविर में जाने का अवसर मिलता है, तो वहीं कई पुराने अनुभव फिर से जीवित हो जाते हैं। वहां कोई छोटा-बड़ा नहीं, कोई जात-पांत नहीं, कोई पद या अहंकार नहीं। बस एक भाव है — हम सब भारत माता की संतान हैं और राष्ट्रसेवा ही जीवन का उद्देश्य है। जीवन के विविध पक्षों को देखें तो यह केवल संघ ही है, जो इस तरह की सीख देता है। कोई जाति की बात करता है, कोई अपने फायदे की बात करता है, लेकिन संघ वह स्थान है, जहां देश और समाज के लिए आवश्यक तत्वों पर ध्यान दिया जाता है।

जब पढ़ाई के दौरान संघ की गतिविधियों में जाता था, तब मेरे साथी कहते थे, “तुम अपना समय खराब कर रहे हो। इससे क्या मिलेगा?” मेरे एक साथी, जो आज बड़े चिकित्सक हैं, कुछ साल पहले मेरे पास आए और बोले कि उनके पास सब कुछ है, लेकिन एक कमी हमेशा खलती है- उन्होंने संघ के साथ खुद को क्यों नहीं जोड़ा। आजकल वे सोशल मीडिया पर वामपंथी लॉबी से मोर्चा ले रहे हैं।

व्यक्ति बदलते रहते हैं, विचार कभी नहीं बदलता

किसी संगठन के लिए सौ वर्ष पूरे करना सामान्य नहीं होता। यह केवल समय की गिनती नहीं, बल्कि निरंतरता, समर्पण और निस्वार्थ सेवा की कहानी है। भारत जैसे विविधताओं वाले देश में किसी विचार का शताब्दी तक स्थिर रहना और समाज को जोड़ते रहना, यह प्रमाण है कि यह संगठन किसी महत्वाकांक्षा से नहीं, बल्कि राष्ट्र के भाव से चल रहा है। व्यक्ति बदलते रहते हैं, पर विचार अमर रहता है।

संघ में अहंकार मिटता है

केदारपुर में एक वर्ग लगा था। तीन दिन वहीं रहना हुआ। जीवन में पद और जिम्मेदारी होती है, पर वहां सब बराबर थे। जब स्वयं थाली धो रहे थे, कुछ लोगों ने मुस्कराकर कहा, “डीन साहब, आप भी अपनी थाली साफ कर रहे हैं।” जवाब में बस यही कहा-“यही तो संघ का स्वरूप है। यहां व्यक्ति नहीं, संगठन बड़ा है।” संघ में जाकर अहंकार मिट जाता है और सेवा का भाव भीतर से निकलता है।

आरोप व्यक्ति पर लग सकते हैं, संगठन पर नहीं

संघ पर लगाए जाने वाले आरोपों को लेकर एक स्पष्ट दृष्टिकोण है — आरोप व्यक्ति पर लग सकते हैं, संगठन पर नहीं। व्यक्ति आते-जाते हैं, पर विचार अमर रहता है। संघ शाश्वत इसलिए है, क्योंकि यह व्यक्ति नहीं, विचार का संगठन है। जो लोग आलोचना करते हैं, उन्हें एक बार शाखा में जाकर देखना चाहिए। वहां की समरसता, अनुशासन और भाईचारा सारे भ्रम मिटा देता है।

परिवार की जड़ों में भी वही विचारधारा

संघ से जुड़ाव कोई आकस्मिक नहीं था। परिवार की जड़ों में भी उसी विचारधारा की मिट्टी थी। गांव में दादा जी जनसंघ के कार्यकर्ता थे। वे ही बताते थे कि विचार का बीज बोना और उसे कर्म में बदलना दोनों अलग बातें हैं। शायद कहीं बीज घर के संस्कारों के साथ मन में पड़ा और शहर आकर शाखा के वातावरण में अंकुरित हो गया।

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