शाहजहांपुर की ’संस्कृति’ रफ़्ता रफ़्ता तब्दील हो रही ’हड्डियों के कैदखाने’ में: 5.26 करोड़ सालाना का है इलाज, जो बेसिक टीचर मां के बूते से बाहर

5.26 करोड़ सालाना का है इलाज, जो बेसिक टीचर मां के बूते से बाहर
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सौभाग्य : 11 बरस की मन्नतों से हुई बिटिया को संविधान का आर्टिकल 21 देता है जीवन का मौलिक अधिकार दुर्भाग्य : ग्लोबल हेल्थकेयर इंडेक्स में 160 देशों में 120वें पायदान पर खड़े भारत में फाइब्रोडिस्प्लासिया ऑसिफिकेंस प्रोग्रेसिवा को लेकर नीति दूर, दुर्लभ रोग सूची में भी नहीं

बृजेश 'कबीर' । शाहजहांपुर: जिनके चिराग बुझते हों, वो धूप का क्या करें ...शाहजहांपुर की एक मासूम बिटिया संस्कृति जीवन की उस झंझावात में है, जहां हर सुबह पहली किरण उसकी देह में सुबह की सरसराहट नहीं, उसके अंगों का जकड़ना लाती है। दस बरस की ये बच्ची, 11 साल की मन्नतों के बाद संध्या और विनोद गुप्ता की गोद में कली की तरह खिली थी, लेकिन उमर बढ़ने संग खिलखिलाहट जाती रही। वह ऐसी बीमारी से जूझ रही है, जिसका नाम सुनकर रोंगटे खड़े हो जाए। आमतौर पर एफओपी कहते हैं, जिसका पूरा नाम फाइब्रोडिस्प्लासिया ऑसिफिकेंस प्रोग्रेसिवा है।

देह बन रही ’अस्थियों का पिण्ड’

दुनिया में 2 करोड़ में 1 पीड़ित, कुल 900 एफओपी एक जीन म्यूटेशन एसीवीआर 1 जीन (सी.617जी एपी. आर206एच) के कारण होता है, जिसमें शरीर अनावश्यक हड्डियां बनाता है। मांसपेशियाँ, लिगामेंट और टिशू धीरे-धीरे हड्डियों में बदलने लगते हैं। चलना, बैठना, बोलना हर क्रिया पर रोक लगती चली जाती है। 40 की औसत आयु में जीवन की गति थम जाती है। यह रोग दुनिया में हर दो करोड़ में एक को होता है। अभी तक दुनिया भर में इस रोग के 900 पुष्ट मामले हैं। हालांकि, भारत में पुष्ट मामलों की डीटेल नहीं मिलती है। संस्कृति के मामले में यह बीमारी 2 वर्ष की उम्र तक छिपी रही। बाद में कंधे, पीठ, जबड़े और हाथ जकड़ने लगे, तब परिवार डॉक्टरों की तलाश में बरेली, लखनऊ, दिल्ली तक भटकता रहा। अब संस्कृति हाथ नहीं हिला सकती, पीठ सीधी नहीं कर सकती और जबड़ा इतना जकड़ गया है, दवा भी ठीक से नहीं ले सकती। मां संध्या गुप्ता बताती हैं, संस्कृति जब तड़पती है ना, तो कलेजा मुंह को आता है। हम कुछ नहीं कर सकते, बस उसे देख सकते हैं।

एम्स में बीमारी की पुष्टि, लेकिन इलाज मंहगा और देश में मुहैया नहीं

2019 में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (दिल्ली) में जेनेटिक जांच के बाद डॉक्टरों ने बताया, एसीवीआर1 जीन में दुर्लभ म्यूटेशन इस बीमारी का संकेत है। डॉक्टरों ने स्पष्ट कहा है, बीमारी का इलाज भारत में उपलब्ध नहीं है। पैलोवोरोटीन नाम की एक दवा विदेशों में मंज़ूरी पा चुकी है। लेकिन, दवा की कीमत 14 वर्ष से कम उम्र के मरीज के लिए सालाना 622,373 डॉलर (लगभग 5.26 करोड़ रुपए) है। यह कोई मामूली आंकड़ा नहीं है। संध्या कहती हैं, हम सामान्य अध्यापक हैं, पिता बच्ची की देखभाल के लिए बरसों से नौकरी/कारोबार से दूर हैं, करोड़ों की दवा करा पाना हमारे लिए सपना जैसा है।

फिलहाल कोई स्वास्थ्य नीति नहीं, नीयत का पता नहीं

भारत सरकार ने अभी तक इस बीमारी को दुर्लभ बीमारियों (रेयर डिजीज) की सूची में नहीं रखा है। ना कोई नीति है, ना कोई आर्थिक सहायता और ना कोई ऐसा पोर्टल जहां इलाज की प्रक्रिया शुरू हो सके। रहीम कहते हैं, दीन-हीन की पीर को, जाने कोई न और। जाको दरद न जानई, ताको कहे किस ठौर। शाहजहांपुर से सूबे की सरकार में सुरेश खन्ना और जेपीएस राठौर मंत्री हैं। एक तो मुख्यमंत्री के समीप बैठते हैं। केंद्रीय मंत्रिमंडल में जितिन प्रसाद की सूरत में प्रतिनिधित्व है, भले वह पीलीभीत संसदीय सीट का प्रतिनिधित्व करते हैं। जहां, हर गली में 'जनसेवक' हैं, वहां मासूम संस्कृति की पीड़ा का समाचार किसी को नहीं।


संस्कृति के माता-पिता का प्रश्न, उनकी बच्ची को जीवन का मौलिक अधिकार नहीं?

भारत की सेहत का कांटा 2024 के ग्लोबल हेल्थ केयर इंडेक्स में 160 देशों में 120वें अंक पर है। स्वास्थ्य नीतियां लचर हैं, संसाधन कम हैं और दुर्लभ बीमारियों पर तो चर्चा तक नहीं होती। अमेरिका, कनाडा, ब्राज़ील जैसे देशों में एफओपी के लिए विशेष नीति, दवाएं और सपोर्ट सिस्टम मौजूद है। संस्कृति के माता-पिता का एक ही प्रश्न है, उनकी बच्ची को जीवन का मौलिक अधिकार नहीं? वे चाहते हैं, सरकार एफओपी को दुर्लभ रोग सूची (रेयर डिजीज इंडेक्स) में शामिल करे। पैलोवोरोटीन जैसी दवाओं को सरकारी फंडिंग से मरीजों को उपलब्ध कराए। हर राज्य में रेयर डिजीज सेल की स्थापना करे। एफओपी पर जन-जागरूकता अभियान चलाए।

अनुच्छेद 21 कहता, राज्य का दायित्व है, स्वास्थ्य सेवाएं दे, सुविधाएं बेहतर करे

स्वास्थ्य का अधिकार भारत में एक मौलिक अधिकार है। संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार की व्यापक व्याख्या है। यह अधिकार व्यक्ति को गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए आवश्यक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच प्रदान करता है। अधिकार सुनिश्चित करता है, व्यक्ति को आवश्यक स्वास्थ्य सेवाएं प्राप्त हों, जिसमें प्रोत्साहक और निवारक स्वास्थ्य देखभाल शामिल है। राज्य का दायित्व है, नागरिकों को स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करे और स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर बनाये। स्वास्थ्य का अधिकार में शारीरिक, मानसिक और सामाजिक आरोग्य शामिल है।

न्यायालयों ने की है मौलिक अधिकार बतौर व्याख्या

भारतीय न्यायालयों ने स्वास्थ्य के अधिकार की अनुच्छेद 21 के तहत एक मौलिक अधिकार के रूप में व्याख्या की है। उदाहरण के लिए, पश्चिम बंगाल खेत मज़दूर समिति बनाम पश्चिम बंगाल राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा, राज्य का प्राथमिक कर्तव्य है, नागरिकों को पर्याप्त चिकित्सा सेवाएं प्रदान करना।बावजूद इसके देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं का दायरा सीमित है। स्वास्थ्य सेवाओं के लिए अपर्याप्त धन आवंटन बड़ी चुनौती है।

संस्कृति के सवाल पर चुप्पी मानव धर्म के विरुद्ध

संस्कृति जैसे बच्चे भारत में अनदेखी के शिकार होंगे, तो ये सवाल एक परिवार का नहीं, समाज की आत्मा का सवाल है। संस्कृति की आवाज़ बनें, क्योंकि चुप रहना मानवता के विरुद्ध होगा। मदद करना चाहते हैं, तो सम्पर्क स्थल और सूत्र यूं हैं... 202, कटिया टोला, शाहजहांपुर, उत्तर प्रदेश, फोन : 9389144245

केस हिस्ट्री : न्यूयॉर्क के जो सूच ने खोई 95 फीसद गतिशीलता

न्यूयॉर्क के जो सूच (29) का शरीर फाइब्रोडिस्प्लासिया ऑसिफिकन्स प्रोग्रेसिवा के प्रभाव में धीरे-धीरे पत्‍थर में बदल रहा है। जिस एफओपी सिंड्रोम से सूच ग्रस्त हैं, उसे 'स्टोन मैन सिंड्रोम' भी कहते हैं। इस बीमारी से इन्‍होंने 95 प्रतिशत गतिशीलता खो दी है। जो सूच को इस सिंड्रोम के बारे में पहली बार 3 साल की उम्र में पता चला, जब उनके शरीर पर सूजन दिखने लगी। उन्होंने एक साक्षात्कार में शारीरिक रूप से दर्दनाक बीमारी मेंटली बहुत डिस्टर्बिंग बताई थी। हालांकि, जब उनमें रोग के लक्षण दिखे थे और रोग डायग्नोज हुआ था, तब कोई बहुत असरदारक दवा नहीं थी। सूच अब व्हीलचेयर का उपयोग करते हैं। उन्‍हें खाने से लेकर वॉशरूम जाने तक लगभग हर चीज में मदद की जरूरत पड़ती है।

स्टोन मैन सिंड्रोम : 18वीं शताब्दी में पहली बार रोग का नाम आया सामने

फाइब्रोडिस्प्लासिया ऑसिफिकेंस प्रोग्रेसिवा (एफओपी) संयोजी ऊतकों का एक ऑटोसोमल प्रमुख रूप से वंशानुगत विकार है, जिसकी विशेषता प्रगतिशील हेटरोटोपिक (कंकाल के बाहर) कैल्सीफिकेशन है। 18वीं शताब्दी में, इसे 1868 में वॉन डूश ने मायोसिटिस ऑसिफिकेंस प्रोग्रेसिवा नाम दिया था। चूंकि मांसपेशियां केवल गौण रूप से प्रभावित होती थीं, इसलिए फाइब्रोडिस्प्लासिया शब्द 1940 में बाउर और बोडे ने गढ़ा।

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