कानूनी जटिलताओं में फंस सकती है प्रदेश सरकार की 'जन-बस' सेवा

प्रदेश सरकार की महत्वाकांक्षी जन-बस (मातृ बस परिवहन) सेवा को लेकर परिवहन विभाग के अधिकारियों ने हाल ही में मंत्रालय में हुई 'यात्री परिवहन एवं इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड' संचालक मंडल की बैठक में एक ऐसा एआई मॉडल पेश किया, जिसमें बसों का संचालन पूरी तरह सफल दिखाया गया। लेकिन इस प्रस्तुति से अलग, वास्तविक स्थितियाँ कई सवाल खड़े करती हैं—विशेषकर तब, जब योजना का प्राथमिक फोकस ग्रामीण क्षेत्र है, जहाँ ऑनलाइन बुकिंग और एआई आधारित ट्रैकिंग व्यवस्था लगभग अप्रभावी होने की आशंका है।
एआई मॉडल की चमक, जमीनी हकीकत धुंधली
संचालक मंडल के सामने अधिकारियों ने जिस एआई मॉडल को पेश किया, उसमें ऑनलाइन बुकिंग, बस ट्रैकिंग, जीपीएस मॉनिटरिंग और डिजिटल प्रबंधन जैसे फीचर शामिल थे। प्रस्तुति इतनी प्रभावशाली थी कि संचालक मंडल ने 'समय पर बसों का संचालन' सुनिश्चित करने के निर्देश दे दिए।परंतु इंदौर, भोपाल जैसे बड़े शहरों में चल रही सिटी बस सेवाओं के आँकड़े बताते हैं कि एआई आधारित ऑनलाइन संचालन लगभग ठप है। करीब 90 प्रतिशत यात्री ऑनलाइन बुकिंग नहीं करते, और ग्रामीण क्षेत्रों में यह प्रतिशत नगण्य होगा। ऐसे में ग्रामीण क्षेत्रों में एआई मॉडल की सफलता पर सवाल उठते हैं।
ग्रामीण परिवहन-सर्वाधिक आवश्यकता, सबसे कम तैयारी
राज्य में ग्रामीण परिवहन कभी भी सुदृढ़ नहीं रहा। वर्ष 2006 तक मप्र राज्य सड़क परिवहन निगम दूरदराज के गाँवों तक बस सेवा देता था। निगम बंद होने के बाद से पूरा संचालन निजी हाथों में चला गया। इसी कमी को पूरा करने के लिए मुख्यमंत्री ने जून 2024 में नई यात्री बस सेवा शुरू करने के निर्देश दिए थे।लेकिन न प्रदेश में एक भी स्थायी कार्यालय खुला है, न ही सातों संभागों (इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, जबलपुर, उज्जैन, सागर, रीवा) में गठित कंपनियों ने अपनी संरचना खड़ी की है, और न ही जिलों में उन रूटों पर संचालित होने वाले बस अड्डे विकसित किए गए हैं, जहाँ बसें चलनी हैं। फिलहाल एक निजी कंपनी को मंत्रालय में एक अस्थायी कक्ष उपलब्ध कराया गया है। इससे स्पष्ट है कि जिस पैमाने की योजना का दावा किया जा रहा है, उसके लिए बुनियादी ढाँचा ही तैयार नहीं है।
न्यायालयीन जोखिम-सबसे बड़ी चुनौती
विभाग की सबसे बड़ी चिंता यह है कि बस संचालन शुरू होने से पहले ही कोई मामला अदालत में न पहुँच जाए। इसके लिए पहले से कानूनी तैयारी की जा रही है, ताकि समय पर जवाब दायर किए जा सकें।
दूसरी बड़ी चुनौती है-राज्य परिवहन प्राधिकरण के चेयरमैन की नियुक्ति। यदि उच्च न्यायालय ने वर्तमान चेयरमैन की नियुक्ति पर सवाल उठाए या बदलाव के आदेश दिए, तो उनके द्वारा लिए गए निर्णयों को निरस्त करने की मांग उठ सकती है। पिछली बार भी ऐसी स्थिति में विभाग के फैसले रद्द किए जा चुके हैं।
सरकार की यह योजना निस्संदेह ग्रामीण आमजन की जरूरतों को ध्यान में रखकर बनाई गई है, लेकिन विभागीय स्तर पर तैयारियों से अधिक दिखावे पर ज़ोर दिखाई दे रहा है—एआई मॉडल की चमक के पीछे जमीनी हकीकत को दबाया जा रहा है। यदि वास्तविक समस्याओं को समय रहते स्वीकार कर सुधार नहीं किया गया, तो योजना शुरू होने से पहले ही कानूनी और व्यवस्थागत "ट्रैफिक जाम" में फँस सकती है।
बस ऑपरेटरों का एकाधिकार टूटने का डर-न्यायालय जाने की तैयारी
ग्रामीण क्षेत्र में इस समय कोई सरकारी बस सेवा उपलब्ध नहीं है। निजी ऑपरेटर अपने मनमाने रूट और किराए तय कर संचालन कर रहे हैं। नई सेवा शुरू होने पर, निर्धारित रूटों और परमिट व्यवस्था के कारण उनका एकाधिकार टूटेगा। यही कारण है कि कई निजी बस ऑपरेटर नई नीति के खिलाफ न्यायालय जाने की तैयारी में हैं।परिवहन विभाग को भी आशंका है कि जैसे ही परमिट वितरण शुरू होगा, कानूनी विवाद खड़े हो सकते हैं।
