'स्वदेश' की खबर का असर, मप्र विधानसभा ने सुधारी गलती

स्वदेश की खबर का असर, मप्र विधानसभा ने सुधारी गलती
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मुख्यमंत्री नहीं, सदन की नेता रहीं हैं विजयाराजे सिंधिया

मध्यप्रदेश विधानसभा की वेबसाइट पर स्व. विजयाराजे सिंधिया को मध्यप्रदेश की भूतपूर्व मुख्यमंत्री बताने वाली गलती में सुधार कर दिया गया है। 'स्वदेश' में खबर प्रकाशित होने के बाद वेबसाइट में संशोधन कर स्व. श्रीमती सिंधिया के जीवन परिचय में भूतपूर्व मुख्यमंत्री के स्थान पर भूतपूर्व सदन की नेता जोड़ दिया गया है।

26 अक्टूबर को खबर की थी प्रकाशित

उल्लेखनीय है कि 'स्वदेश' ने 26 अक्टूबर के अंक में 'मप्र की विधानसभा की वेबसाइट पर स्व. विजयाराजे सिंधिया मप्र की भूतपूर्व मुख्यमंत्री' शीर्षक से खबर प्रकाशित की थी। संशोधित जानकारी के अनुसार, वेबसाइट पर 1 नवम्बर 1956 से अब तक के मुख्यमंत्रियों और सदन के नेताओं की सूची प्रदर्शित की गई है। इस सूची में अब तक के सभी मुख्यमंत्रियों और सदन के नेताओं का विवरण सही रूप में शामिल है।

स्व. विजयाराजे ने त्यागा था मुख्यमंत्री पद

मध्यप्रदेश विधानसभा के इतिहास में स्व. विजयाराजे सिंधिया एकमात्र ऐसी सदन की नेता रहीं, जिन्होंने स्वयं मुख्यमंत्री पद त्यागा। संविद सरकार बनने पर वे सदन की नेता चुनी गई थीं। सामान्यतः सदन का नेता ही मुख्यमंत्री बनाया जाता है, लेकिन उन्होंने स्वयं मुख्यमंत्री पद त्यागा और विधानसभा में सदन की नेता के रूप में मुक्त रहकर जनसेवा करना स्वीकार किया।

30 जुलाई 1967 से 25 मार्च 1969 तक श्रीमती सिंधिया सदन की नेता रहीं

30 जुलाई 1967 से 25 मार्च 1969 तक श्रीमती सिंधिया सदन की नेता रहीं, जबकि 30 जुलाई 1967 से 12 मार्च 1969 तक मुख्यमंत्री गोविंद नारायण सिंह रहे। इसके पहले और बाद में कभी सदन का नेता और मुख्यमंत्री अलग-अलग नहीं रहे।लेकिन संशोधन से पूर्व उनके जीवन परिचय में उन्हें मध्यप्रदेश की भूतपूर्व मुख्यमंत्री बताया गया था। 'स्वदेश' में समाचार प्रकाशित होने के बाद विधानसभा के प्रमुख सचिव अरविंद शर्मा के निर्देश पर वेबसाइट पर यह गलती सुधार दी गई।

कांग्रेस छोड़कर भी चुनाव जीतीं थीं श्रीमती सिंधिया

श्रीमती सिंधिया सन् 1957, 1962 और 1967 के आम चुनावों में लोकसभा के लिए चुनी गईं। लेकिन तत्कालीन कांग्रेस नेतृत्व की नीतियों से नाराज होकर श्रीमती सिंधिया ने सन् 1967 में कांग्रेस छोड़ दी और एक साथ लोकसभा और राज्य विधान सभा का चुनाव लड़ा। वे दोनों ही चुनावों में विजयी रहीं। इसके बाद उन्होंने लोकसभा की सदस्यता त्यागकर राज्य विधान सभा की सदस्यता ली।चुनाव के बाद छह माह के भीतर उनके प्रयासों से सत्तारूढ़ कांग्रेस का पतन हुआ और संविद सरकार बनी। उन्होंने मुख्यमंत्री पद स्वीकार नहीं किया, बल्कि संविद की एकता बनाए रखने और मुक्त रहकर जनसेवा कार्य करना स्वीकार किया।

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