जिन्होंने स्वतंत्रता-स्वधर्म के लिए सर्वस्व अर्पित किया

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भगवान बिरसा मुंडा की आज पुण्यतिथि

डॉ. आनंद सिंह राणा

भारतीय इतिहास में स्व के लिए पूर्णाहुति देने वाले महानायकों में बिरसा मुंडा को भगवान के रूप में शिरोधार्य किया गया है। न भूतो न भविष्यति के आलोक में धरती आबा, ईश्वर का अवतार, हिंदुत्व के ध्वजवाहक ,भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान क्रांतिकारी योद्धा हमारे महा महारथी बिरसा मुंडा के बलिदान दिवस पर शत्-शत् नमन है। विडंबना यह है कि भगवान् बिरसा ने जिन उद्देश्य और संकल्प के लिए अंग्रेजों और ईसाई मिशनरियों से संघर्ष करते हुए अपना बलिदान दिया,उसे भलीभांति समझा ही नहीं गया। यदि समझ लिया गया होता तो भारत से ईसाई मिशनरियों का सूपड़ा साफ हो जाता और जनजातियों का व्यापक रुप से मंतातरण नहीं होता। इसलिए वर्तमान संदर्भ में भगवान् बिरसा के विचार और संघर्ष का इतिहास जानना परम आवश्यक है, ताकि समस्त हिन्दू समाज देश में हो रहे ईसाई मिशनरियों,लव जेहाद की आड़ में धर्मांतरण, वामियों और तथाकथित सेकुलरों के षड्यंत्रों का एकजुट हो सामना कर सके।

शब्द ब्रह्म होते हैं और जैसे ही उलगुलान-हूल जोहार- भूमि जोहार और जय हो जोहार हो, लड़ाई आर-पार हो शब्द अर्थ देते हैं, तो महा महारथी श्रीयुत बिरसा मुंडा के गौरवशाली इतिहास के पन्ने खुलने लगते हैं। महा महारथी, महानायक बिरसा मुंडा मुझे हमेशा से महान् क्रांतिकारी योद्धा के साथ ईश्वर का अंशावतार के रूप दिखते हैं। कभी - कभी ऐसा लगता है कि राणा पूंजा (पूंजा भील) जिसने महाराणा प्रताप के साथ मुगलों के विरुद्ध सर्वस्व अर्पित कर अपने गोरिल्ला युद्ध से छक्के छुड़ा दिये थे, वही बिरसा मुंडा के रूप में अवतरित हुए, जिसने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये। याद आ रहा महारथी बिरसा का वह नारा अबुआ दिशुम, अबुआ राज (हमारा देश, हमारा राज्य) ऐंसा लगता है कि लोकमान्य तिलक जी के 'स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार और भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद के पूर्ण स्वतंत्रता के संकल्प,नेताजी सुभाषचंद्र बोस के तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा के संकल्प, तथा गांधीजी के भारत छोड़ो आंदोलन में, बिरसा मुंडा के नारे की सुगंध है। भुजंग मेश्राम ने क्या खूब लिखा है महारथी बिरसा के लिए कि 'मैं केवल देह नहीं..

मैं जंगल का पुश्तैनी दावेदार हूँ,...

पुश्तों और उनके दावे मरते नहीं..

मैं भी मर नहीं सकता..

मुझे कोई भी जंगलों से बेदखल नहीं कर सकता..

उलगुलान! उलगुलान! उलगुलान!

(उलगुलान = जल - जंगल - जमीन पर दावेदारी के लिए -कोलाहल, क्रांति, संघर्ष, आंदोलन )। झारखंड के उलिहातु गांव में माता करमी हातु और पिता सुगना मुंडा के यहां 15 नवंबर 1875 को बिरसा मुंडा का अवतरण हुआ था। बिरसा कुशाग्र बुद्धि के थे इसलिए अंग्रेजों ने जर्मन स्कूल में भर्ती करवाया, वहां उनको बिरसा डेविस नाम दिया गया, परंतु जल्दी ही बिरसा ने ईसाई मिशनरियों के षड्यंत्र को समझ लिया और धर्मांतरण का विरोध किया और ये कहते हुए स्कूल छोड़ दिया कि 'साहेब साहेब एक टोपी है।Ó ईसाई धर्म स्वीकार करने सभी मुंडाओं को हिन्दू धर्म में पुन: दीक्षित किया। 'साहब-साहब एक टोपीÓ यानी अंग्रेज सरकार, ईसाई मिशनरी सब एक ही है। इसी बीच बिरसा का आनंद पांडेय (भ्रम से कतिपय के अनुसार पांण, पांड ) से संपर्क हुआ। उन्होंने रामायण, महाभारत जैसे ग्रंथों का अध्ययन किया। इन ग्रंथों का उनके मन पर काफी गहरा प्रभाव निर्माण हुआ। धीरे-धीरे एक आध्यात्मिक महापुरुष के रूप में उनका स्थान निर्माण होने लगा। बिरसाइत नाम से उन्होंने एक आध्यात्मिक आंदोलन को प्रारंभ किया। मुंडा - उरांव और अन्य कई समाज के हजारों लोग इस आंदोलन में सम्मिलित होने लगे। भगवान् बिरसा ने उपदेश दिए कि शराब मत पिओ, चोरी मत करो, गौ हत्या मत करो, पवित्र यज्ञोपवीत पहनो, तुलसी का पौधा लगाओ और सर्वोच्च देवता सिंगबोंगा अर्थात् सूर्य देवता की उपासना करो। यही तो हिंदुत्व के मूल में है। आध्यात्मिक चेतना जागृत होने लगी।सन् 1894 में छोटा नागपुर में महामारियां फैलीं, तब महारथी बिरसा ने सभी साथियों को अंधविश्वासों से दूर कर अकेले ही सामना किया और विजय हासिल की। बिरसा को देवीय आशीर्वाद मिलने लगा था, इसलिए सभी पीड़ित वर्ग, उनके स्पर्श मात्र से स्वस्थ्य होने लगे थे। आलोचकों को बता दूँ कि जापान में रेकी पद्धति यही है - आध्यात्मिक स्पर्श। इस समय तक बिरसा भगवान् के अवतार बन गए थे। अंग्रेज़ों ने 'इंडियन फॉरेस्ट एक्टÓ द्वारा सभी वनवासियों को जंगल से बेदखल कर दिया। यहाँ से आरंभ हुआ महारथी बिरसा का अंग्रेजों के विरुद्ध महान् स्वतंत्रता संग्राम का आंदोलन 'उलगुलानÓ। महारथी बिरसा ने 1897 से 1900 तक अंग्रेजों से परंपरागत हथियारों से 8 गोरिल्ला युध्द किये अंग्रेजों को भयंकर पराजय दी। सन् 1897 में महारथी बिरसा ने 400 वीर मुंडाओं के साथ 'खूंटी थानेÓ पर भयंकर आक्रमण किया और अंग्रेज़ों को खदेड़ दिया। सन् 1898 में 'तांगा नदीÓ के युद्ध में पुन: महारथी बिरसा ने अंग्रेजों की दुर्दशा कर दी। इस समय लाला बाबा के साथ सभी वनवासी, ये गीत गाते कि " कटोंग बाबा कटोंग, साहेब कटोंग, रारी कटोंग कटोंग "(काटो बाबा काटो..यूरोपीय साहबों को काटो)।अंग्रेजों में महारथी बिरसा की दहशत व्याप्त हो गई थी। भगवान् बिरसा सभी को एक मुंडारी गीत गाकर अपना संदेश देते -'विशाल नदी में बाढ़ आई है..

आसमान में धूल भरी आंधी उमड़ - घुमड़ रही है..

ओ! मैना चली जा, चली जा..

जंगल में आग और धुंआ जोरों से उठ रहा है..

ओ! मैना चली जा,चली जा..

तुम्हारे माँ - बाप बरसाती तूफान में असहाय बहे जा रहे हैं..

ओ! मैना चली जा, चली जा।।Ó

बिरसा अंग्रेजों के लिए आतंक का पर्याय बन गये थे, परंतु कुटिल और धोखेबाज अंग्रेजों ने हमेशा की तरह हमेशा की तरह कुछ गद्दारों की सहायता से सन् 1900 में दुम्बरी (डोमबाड़ी) की पहाड़ी में घेर लिया तब आमने - सामने की लड़ाई हुई 3घंटे घमासान युद्ध चला लेकिन तोपखाना और बंदूकें भारी पड़ीं। लगभग 2000 हजार मुंडाओं सहित अन्य जनजातीय समुदाय से बलिदान हुआ। यद्यपि ये युद्ध अंग्रेजों के पक्ष में रहा परंतु बिरसा सुरक्षित रहे। अंग्रेज़ों ने 500 रुपये का ईनाम रखा इस ईनाम के चक्कर में मुखबिरी हो गयी और 3 फरवरी सन् 1900 को बिरसा पकड़े गए।

(लेखक श्री जानकीरमण महाविद्यालय

जबलपुर में इतिहास के विभागाध्यक्ष हैं )

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