कौन हैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक ?

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फाइल फोटो 

डॉ. इंदिरा दाँगी

सौ बरस कितनी लंबी अवधि होती है ! कितना कुछ मिटा, ...टूटा, ...बदला ! अब सोचिए, कितनी गहरी रही होंगी उस विचारधारा की जड़ें जो वास्तव में विचारधारा नहीं इस राष्ट्र की जातीय अस्मिता, गौरव और संस्कृति के परिपालन की कार्य योजना है। कौन रहा होगा वो स्वप्नद्रष्टा जिसकी विचारधारा आज सौ बरस बाद भी न सिर्फ स्थापित है बल्कि गहरी पैठी भी है। जेन जी (जनरेशन Z) भी जिसे आधुनिक राष्ट्र निर्माता होने का मान देती है; सदी के उस महा नायक की सोच कितनी दूरदर्शी थी ! विश्व के सबसे बड़े स्वयंसेवी संगठन (जो अपने चरित्र प्रशिक्षण के लिए जाना जाता है) को बनाने वाले कौन थे ? कैसे थे ?

नागपुर गए हैं कभी ? इस बार आप जाएँ तो डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार का स्थान देखने अवश्य जाइएगा। नहीं ! महाल जाने को नहीं कह रही हूँ जहाँ संघ का मुख्यालय है; मैं तो आपको संघ के संस्थापक के घर जाने को कह रही हूँ। जाइएगा और देखिएगा -कैसे आम जनता के बीच से कोई नायक बनता है ? कैसे एक परिवार राष्ट्र के पुनर्निर्माण में अपने बेटे के साथ चुपचाप, पीछे खड़ा रहा ! खड़ा रहा ! ...कोई बहन, कोई भाभी स्वयंसेवकों के लिए अपनी रसोई में जब भोजन पकाती है तो उसका भी योगदान होता है सांस्कृतिक उत्थान के महायज्ञ में! वो भी एक समिधा होती है उस हवन की जो सोये हुए हिन्दू राष्ट्र को जगाने के लिए प्रज्वलित किया गया ...जो सौ बरस से अनवरत अनवरत चलता आ रहा है।

डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार का जन्म 1 अप्रैल, 1889 (गुड़ीपड़वा) को नागपुर के एक परंपरागत हिन्दू परिवार में हुआ। अपनी छोटी उम्र से ही वे क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़ गए थे और स्कूली दिनों से ही आपने ’विद्यार्थी समाज’ और ‘आर्य बांधव वीथिका’ जैसे संगठनों से जुड़कर ‘तिलक पैसा फंड’ के लिए वैसे ही काम किया जैसे भविष्य का कोई नायक अपने बचपन से ही अपने प्रखर सूर्य होने का पूर्वाभास देता है। ...सन 1901 में अपने स्कूल में उन्होंने दो हज़ार छात्रों के वन्देमातरम आंदोलन का नेतृत्व किया और स्कूल से निष्कासित किए गए। ...सन 1909 में थाने पर बम फेंकने का आरोप उन पर लगा। इसके दो माह बाद दशहरे के उत्सव में, उन्होंने एक विशाल धार्मिक कार्यक्रम को एक विराट जनसभा में बदल दिया जिसमें चहुँओर धर्म की जय के नारे गूँजे; और बाद में इस ‘राजद्रोही भाषण’ के लिए उन पर मुकदमा भी चला। वे गिरफ्तार भी हुए और रामपायली में भाषण देने, उन पर एक वर्ष का प्रतिबंध भी लगा।

लोकप्रिय छात्र नेता और क्रांतिकारी होने के साथ ही साथ वे एक मेधावी छात्र भी रहे और माध्यमिक शिक्षा में सफल होने के बाद उन्होंने अध्यापन का कार्य भी किया। गुरु डॉ. मुंजे और अन्य तिलकवादी नेताओं ने उन्हें आगे पढ़ाई के लिए कलकत्ता के नेशनल मेडिकल कॉलेज भेजा। यहाँ वे क्रांतिकारियों के बीच ‘कोकेन’ छद्म नाम से राष्ट्रवादी गतिविधियों में शामिल रहे। अनुशीलन समिति में उनकी अहम भूमिका थी। एक ओर वे क्रांतिकारी गतिविधियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते रहे तो दूसरी ओर अपनी मेडिकल की पढ़ाई भी अच्छी तरह से करते रहे। डॉक्टर की डिग्री मिलने के बाद दो महीने वे कलकत्ता के विक्टर अस्पताल में प्रशिक्षण भी लेते रहे। एक योग्य डॉक्टर बनकर वे सन 1915 में नागपुर लौटे लेकिन उनकी पहचान अब तक एक राष्ट्रवादी क्रांतिकारी की बन चुकी थी। 1916 में उन्होंने क्रांतिकारियों को संगठित करना आरंभ किया। कुछ समय के लिए वे होम रूल आंदोलन से भी जुड़े। अपनी गुप्त क्रांतिकारी गतिविधियों को बाहरी तौर पर उन्होंने सांस्कृतिक मंच ‘नरेंद्र मण्डल’ का नाम दे दिया। प्रथम विश्व युद्ध के उन दिनों में डॉक्टर हेडगेवार भारत के अनेक प्रांतों के क्रांतिकारियों के संपर्क में रहे। वे पूर्ण विद्रोह चाहते थे लेकिन प्रथम विश्व युद्ध के बाद, जिसमें ब्रिटेन विजयी हुआ था, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के युद्ध के प्रति रुख को देखकर डॉक्टर साहब का उनसे मोह भंग हुआ और सशक्त क्रान्ति वाली गतिविधियों से भी ! ...चिकित्सक होकर भी वे पूर्णकालिक राष्ट्रवादी क्रान्तिकारी थे और देश सेवा की अडिग भावना के कारण ही उन्होंने विवाह न करने का निर्णय लिया। आज आप जिन

ब्रह्मचारी, आजीवन संघ की सेवा में रत, प्रचारकों को देखते हैं, उनके पीछे वही प्रथम स्वयंसेवक खड़ा है जिसने अपना पूरा जीवन इस देश के

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, सनातन राष्ट्रवाद के उन्नयन में मिटा दिया ! ...जिनके कारण आज भी हिन्दू संगठित हैं। सुखी हैं। और सबसे बड़ी बात -सुरक्षित हैं !

क्रान्तिकारी गतिविधियों की अपनी तरुणाई की उम्र के बाद जब वे एक प्रखर युवा नेता होने की उम्र में आए, उन्होंने

सांस्कृतिक और जन उत्थान की महती आवश्यकता महसूस की। अब वे कांग्रेस में शामिल हो गए। यहाँ उन्होंने ‘राष्ट्रीय मण्डल’ की राह छोड़कर सन 1919 में ‘नागपुर नेशनल यूनियन’ की स्थापना की जो पूर्ण स्वतंत्रता चाहती थी। कांग्रेस में रहते हुए उन्होंने पत्र ‘संकल्प’ के लिए कार्य किया और असहयोग आंदोलन में भाग लिया। उनके प्रभाव से सैकड़ों युवा स्वयंसेवक के रूप में भर्ती हुए। ...उन पर अंग्रेज सरकार ने राजद्रोह का मुकदमा चलाया और अपने ओजस्वी भाषण के लिए इस साहसी जन नेता को जेल भी हुई।

अब ‘स्वातंत्र्य’ के संपादक का मन कांग्रेस की आंतरिक गुटबाजी, कथनी-करनी के अंतर एवं मूल्यों में गिरावट से उचटा हुआ था और वे देश के

सांस्कृतिक पुनरुत्थान के लिए कार्य करना चाहते थे। एक ऐसा संगठन जो हिंदुओं के सांस्कृतिक-सामाजिक सुधारों, उत्थान और उत्कर्ष के लिए कार्य करे। वे लगातार चिंतन मनन कर रहे थे; इसी से आगे, 1925 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना हुई। स्वयं एक प्रसिद्ध, लोकप्रिय सुविख्यात नाम होते हुए भी डॉक्टर हेडगेवार ने अपने संगठन को अखबारी प्रचार से दूर रखा। स्थापना के छह माह बाद संगठन का नामकरण (दिनाँक 17.04.1926 को) किया गया। इसके नियम, संरचना और संगठनात्मक विधान समय के साथ बने, लोगों के और और जुड़ने से बने। इस तरह ये जनता के एक संगठन के रूप में विस्तार पाता रहा। डॉ. साहब चुपचाप इसके लिए काम करते रहे और भारत के नगरों, महानगरों से लेकर दूर दराज ग्रामीण अंचलों तक, देश की रग-रग में उत्थान, सुधार और संगठन की शक्ति की चेतना पहुंचाते रहे। ...आज जिसे आप विश्व का सबसे बड़ा संगठन कहते हैं, वो उसी कर्मयोगी स्वप्नद्रष्टा के बीज जीवन से बना विराट वटवृक्ष है।

‘हिन्दू अनुशासन’ के उनके मानस को जानेंगे तो आप और भी बहुत कुछ जानेंगे उनके बारे में। उनकी मानवतावादी, आधुनिक सोच के बारे में भी कि वे बाल विवाह ही नहीं, बेमेल विवाह के भी विरोधी थे। और भी ऐसे अनेकानेक विचार, सिद्धांत, आदर्श जिन पर चल कर ही संघ आज विश्व का सबसे बड़ा, सबसे अनुशासित, अपनी उज्ज्वल चारित्रिक योग्यताओं के लिए पहचाना जाने वाला संगठन है।

संघ के दूसरे सरसंघचालक थे माधव सदाशिवराव गोलवलकर। वे सन 1940 में डॉ. हेडगेवार के बाद संघ प्रमुख बने। श्री गुरुजी सन 1973 तक इस पद पर रहे। भारत-पाक विभाजन के समय संघ ने हजारों हिंदुओं की प्राण रक्षा की तो उन्हीं के नेतृत्व में। असंख्य-असंख्य स्वयंसेवक आरएसएस में भर्ती हुए और संघ ने एक राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पहचान पाई। ...जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय श्री गुरुजी के कारण संभव हो पाया। उनके समझाने पर ही कश्मीर के राजा श्री हरि सिंह राजी हुए थे। ...1948 में गांधी जी की हत्या हुई और तत्कालीन सरकार ने इस आड़ में संघ पर निशाना साधा। न सिर्फ श्री गुरुजी को गिरफ्तार कर लिया गया बल्कि संघ पर प्रतिबंध भी लगा दिया गया। तब देश ने एक विराट किन्तु शांतिपूर्ण विरोध आंदोलन देखा। हजारों स्वयंसेवकों ने जेलों को भर दिया। आखिर सरकार झुकी। श्री गुरुजी के रिहा होने पर और संघ पर से प्रतिबंध हटने पर प्रसन्न सरदार बल्लभ भाई पटेल ने हृदय तल से उन्हें लिखा, “...मैं आपको अपनी शुभकामनाएँ भेजता हूँ !”

चीन से हुए युद्ध के समय जिस तरह स्वयंसेवकों ने सहायता की, न सिर्फ सेना की बल्कि देश के नागरिकों की भी; उसे पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी माना और कृतज्ञ होकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को 26 जनवरी 1963 की परेड में आमंत्रित भी किया। गणवेश में, अनुशासित, मुस्तैद हजारों स्वयंसेवकों को देख, देखने वालों के मुंह खुले के खुले रह गए।

श्री गुरुजी के नेतृत्व में देश की राजनीति पर संघ की पकड़ और अधिक मजबूत हुई। गोवा, दादर और नगर हवेली को स्वयंसेवकों ने पुर्तगालियों से आजाद करवाया और भारत सरकार को सौंपा। माधव सदाशिवराव गोलवलकर मूलतः एक प्रोफेसर थे। एक गुरु की तरह इस सरसंघचालक ने न सिर्फ संघ बल्कि राष्ट्र की प्रगति में भी अमूल्य योगदान दिया। तो इसलिए ‘श्री गुरुजी’ के अतिरिक्त उनका और कोई नाम हो भी कैसे सकता है !

मधुकर दत्तात्रेय देवरस संघ के तीसरे सरसंघचालक थे जिन्हें बालासाहेब देवरस भी कहा जाता है। उनके पश्चात रज्जू भइया ( प्रोफेसर राजेन्द्र सिंह) चौथे सरसंघचालक रहे। उनके पश्चात कुप्पाहाली सीतारमैया सुदर्शन का पाँचवे सरसंघचालक के रूप में संघ की ‘प्रतिनिधि सभा’ द्वारा, परंपरा के अनुसार पूर्व सरसंघचालक की इच्छानुसार उनके उत्तराधिकारी के रूप में मनोनयन किया गया। संघ के छठवें और वर्तमान सरसंघचालक डॉ. मोहन मधुकर राव भागवत हैं।

सभी के नाम यहाँ लिखने से मेरा अभिप्राय बस इतना-सा है कि हम सब जानें कि अपने पुरोधा, स्वप्नद्रष्टा, संस्थापक से लेकर वर्तमान सरसंघचालक तक, आरएसएस की बागडोर सदा ही उच्चतम शिक्षित, असाधारण प्रतिभा के धनी और प्रखर राष्ट्रवादी व्यक्तियों के हाथ में रही है। जब मैं दुर्गावाहिनी में थी, समिधा ( संघ का भोपाल स्थित कार्यालय) में एक उच्च बौद्धिक, अनुशासित और बड़ा कर्मठ वातावरण महसूस होता था मुझे। आज जब संघ के संस्थापक जनों पर यह लेख पूरा कर रही हूँ तो मेरी स्मृति कृतज्ञता से यही कह रही -अपने जीवन में अनुशासन मैंने जो सीखा है, वहीं सीखा है !

(लेखिका : डॉ. इंदिरा दाँगी, दुर्गावहिनी, भोपाल की पूर्व जिला संयोजिका रह चुकी हैं।)

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