विशेष आलेख: “आखिर खुर्शीद और थरूर की गलती क्या?” - बलबीर पुंज

“आखिर खुर्शीद और थरूर की गलती क्या?”  - बलबीर पुंज
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बलबीर पुंज: आखिर सलमान खुर्शीद और शशि थरूर से कांग्रेस नेतृत्व नाराज क्यों है? उन्हें पार्टी का एक वर्ग किस ‘अपराध’ का दोषी मानता है? वे विदेश जाकर ऐतिहासिक ‘ऑपरेशन सिंदूर’ में पाकिस्तान के खिलाफ भारत का पक्ष ही रख रहे है। क्या यह माना जाए कि कोई भी कांग्रेसी संकट के घड़ी में विपक्ष का हिस्सा होते हुए भारत का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता?

स्मरण रहे कि वर्ष 1994 में पाकिस्तान ने कश्मीर में मानवाधिकारों के तथाकथित उल्लंघन को लेकर मुस्लिम देशों के माध्यम से भारत को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में घेरने की रणनीति बनाई थी।

इस पाकिस्तानी प्रस्ताव पर सुनवाई हेतु तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव ने दलगत राजनीति से ऊपर उठकर और राष्ट्रहित को सर्वोच्च मानते हुए, तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष अटल बिहारी वाजपेयी को भारतीय प्रतिनिधिमंडल का मुखिया बनाकर जिनेवा भेजा था।

तब पाकिस्तान का झूठ— अटलजी की बुद्धिमत्ता और तर्कपूर्ण पैरवी और नरसिम्हा राव सरकार की कूटनीति के समक्ष टिक नहीं पाया था। तब ऐसा करके न तो अटलजी कांग्रेसी हो गए और न ही नरसिम्हा राव भाजपाई।

जो काम देशहित में तीन दशक पहले अटलजी ने बतौर विपक्षी नेता किया था, वही दायित्व अब कांग्रेस से सलमान खुर्शीद, शशि थरूर और मनीष तिवारी कर रहे है। परंतु कांग्रेस का प्रभावशाली हिस्सा, जिसमें पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे, राहुल गांधी सहित कई पार्टी नेता शामिल है— उन्हें यह राष्ट्रीय कवायद रास नहीं आ रही है और वह अपने ही नेताओं को भारत का पक्ष रखने के लिए कोस रहे है। यह देश और कांग्रेस— दोनों का दुर्भाग्य है।

इस आलोक में महाभारत का एक प्रसंग बहुत प्रासंगिक है। जब पांडव वनवास में थे, तभी खबर मिली कि किसी दुश्मन ने दुर्योधन को बंदी बना लिया है। यह सुनकर युधिष्ठिर को चिंता हुई। उन्होंने भीम से कहा, “हमें दुर्योधन की मदद करनी चाहिए।” भीम को यह बात नागवार गुजरी।

उन्होंने कहा, “आप उसी दुर्योधन की बात कर रहे हैं जिसने द्रौपदी का चीरहरण करवाया, हमें वनवास दिलाया और हर तरह का अपमान किया? आप ये सब भूल गए?” अर्जुन भी वहां मौजूद थे। युधिष्ठिर ने वही बात अर्जुन से कही। अर्जुन बिना बहस किए दुर्योधन को छुड़ाने चल दिए।

कुछ देर बाद लौटकर अर्जुन ने बताया कि दुश्मन हार गया है और दुर्योधन अब सुरक्षित है। तब युधिष्ठिर बोले, “भीम! हमारे बीच चाहे जैसा भी झगड़ा हो, पर दुनिया हमें भाई ही समझती है।

कौरव 100 हैं, हम 5 और हम मिलकर 105 हुए। अगर हममें से किसी एक का भी अपमान होता है, तो हम सभी का अपमान है।” जो काम द्वापरयुग में युधिष्ठिर ने किया, वही कार्य 1994 में अटलजी के बाद अब कांग्रेस के तीन नेता कर रहे है।

तब शायद ही अटलजी से किसी भी भाजपा नेता ने पूछा था कि उन्होंने विरोधी दल का नेता होने के नाते दुनिया में भारत का पक्ष क्यों रखा। लेकिन कांग्रेस का एक वर्ग अपने नेताओं की नुमाइंदगी पर बौखला रहा है। आखिर इस असुरक्षा का कारण क्या है?

दरअसल, ‘ऑपरेशन सिंदूर’ सिर्फ कोई सैन्य कार्रवाई नहीं, बल्कि आजाद भारत की नई दिशा और नया युद्ध-सिद्धांत है। यह वह स्पष्ट लकीर है, जिसने तय कर दिया है कि अब भारत और पाकिस्तान के रिश्ते किस रास्ते पर चलेंगे। अब अगर पाकिस्तान की सरजमीं से कोई आतंकी हमला होता है, तो भारत न तो कैंडल मार्च निकालेगा, न तख्तियां उठाएगा, और न ही "कड़ी निंदा" या "सख्त विरोध" जैसे खोखले शब्दों का सहारा लेगा।

अब जवाब होगा सीधा और साफ— सर्जिकल स्ट्राइक, तोपों की धमक, ब्रह्मोस जैसी मिसाइलों की मार और जरूरत पड़ी तो उससे भी आगे जाने से गुरेज नहीं करेंगे।

बेशक, 1971 में भारत की विजय बहुत बड़ी और ऐतिहासिक थी। भारतीय नेतृत्व ने तब पाकिस्तान को दो टुकड़ों में तोड़कर उसके 93 हजार सैनिकों को घुटनों पर ला दिया था।

क्या इस क्षण पर गर्व करने के लिए किसी भारतीय का कांग्रेसी होना जरूरी है? 1980 के दशक से पाकिस्तान आतंकवाद का इस्तेमाल अपनी भारत-विरोधी नीति में कर रहा है। इस दौरान देश में जितनी भी आतंकवादी घटनाएं हुई, उनमें वर्ष 1993 और 2008 में मुंबई पर हुआ जिहादी हमला में सबसे भीषण था।

तब सैंकड़ों बेगुनाह मारे गए थे। उस वक्त भारत खामोश रहा, सब्र किया। लेकिन अब सब बदल गया है। पाकिस्तान की ओर से किसी हिमाकत का जवाब भारत सहनशीलता से नहीं, सामरिक वज्रपात से देगा। ऐसे में ‘ऑपरेशन सिंदूर’ की सफलता राष्ट्र की उपलब्धि है और उसपर फख्र करने से कोई भी व्यक्ति भाजपाई या ‘मोदी-भक्त’ नहीं हो जाता।

आखिर कांग्रेस के संकट का कारण क्या है? स्वतंत्रता से पहले कांग्रेस ऐसी पार्टी थी, जिसमें हर तरह की सोच रखने वालों के लिए जगह थी। लोकमान्य तिलक, मदनमोहन मालवीय, लाला लाजपत राय, डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार, गांधीजी, सरदार पटेल और नेताजी सुभाष चंद्र बोस सरीखे नेता भारत की सनातन संस्कृति से प्रेरित थे। लेकिन गांधीजी की नृशंस हत्या और सरदार पटेल के देहांत के बाद जब कांग्रेस पर पं.नेहरू का पूरा नियंत्रण हुआ, तो पार्टी का जो मूल स्वभाव था— जिसमें राष्ट्रवाद और भारतीय संस्कृति से जुड़ाव था— वह धीरे-धीरे क्षीण होने लगा। इस बदलाव को इंदिरा गांधी के दौर में और बल मिला।

वर्ष 1969 में जब कांग्रेस दो हिस्सों में बंटी और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार अल्पमत में आ गई। संसद में बहुमत साबित करने के लिए इंदिराजी ने उन्हीं वामपंथियों से सहारा लिया, जिनका वैचारिक कारणों से एक ही मकसद रहा है— भारत की सनातन संस्कृति, परंपराओं और जीवनशैली को खत्म करना।

जब 1971 में इंदिराजी को चुनावी जीत मिली, तो कई तपे-तपाए वामपंथी अपने वैचारिक उद्देश्य के साथ कांग्रेस में शामिल हो गए और उन्हें शिक्षा जैसा अहम मंत्रालय मिल गया। यही वह समय था, जब कांग्रेस ने अपनी विचारधारा का जिम्मा मार्क्सवादियों को 'आउटसोर्स' कर दिया। वर्तमान कांग्रेस पर वही वामपंथी सोच सांप की केंचुली की तरह चिपकी हुई है और इसलिए आज भी उसका सार्वजनिक रवैया वामपंथी नजरिए से तय हो रहा है।

यदि कांग्रेस को भारतीय राजनीति में पुन: प्रासंगिक होना है, तो उसे व्यक्तिगत खीज, वंशवादी राजनीति और वामपंथी सोच से ऊपर उठकर देशहित में सोचना होगा।

बलबीर पुंज, स्तंभकार ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ और ‘नैरेटिव का मायाजाल’ पुस्तक के लेखक है।

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