Home > विशेष आलेख > आपातकाल का सच

आपातकाल का सच

पवन कुमार शर्मा

आपातकाल का सच
X

25 और 26 जून 1975 की दरम्यानी रात, देश पर जो इमरजेंसी थोपी गई, उसका दंश, देश 21 महीनों तक झेलता रहा। आधी रात को आपातकाल के आदेश पर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के दस्तखत के साथ ही देश में इमरजेंसी लागू कर दी गई। अगली सुबह एक तरफ प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जहां लोगों को ना डरने की हिदायत दे रहीं थीं वहीं दूसरी तरफ दिल्ली के रामलीला मैदान में 25 जून को हुई रैली की खबर पूरे देश में न फैल सके, इसके लिए दिल्ली के बहादुर शाह जफर मार्ग पर स्थित अखबारों के दफ्तरों की बिजली रात में ही काट दी गई। रात को ही इंदिरा गांधी के विशेष सहायक आर के धवन के कमरे में बैठकर संजय गांधी और ओम मेहता उन लोगों की लिस्ट बना रहे थे जिन्हें गिरफ्तार किया जाना था।

26 जून 1975 की सुबह तक तत्कालीन इंदिरा सरकार ने अपने राजनीतिक विरोधियों जय प्रकाश नारायण, मोरार जी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, शरद यादव, लालू प्रसाद यादव और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ अधिकारियों को चुन-चुनकर गिरफ्तार कर सलाखों के पीछे डाल दिया। आपातकाल की घोषणा से पहले ही सभी राज्यों के मुख्य सचिवों को विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी के आदेश दे दिए गए थे। कांग्रेस को अपनी पार्टी में भी विरोध का डर पैदा हो गया था लिहाजा कांग्रेस कार्यकारिणी के सदस्य चंद्रशेखर और संसदीय दल के सचिव रामधन को भी गिरफ्तार कर लिया गया। साधारण कार्यकर्ताओं की छोड़िए बड़े नेताओं की गिरफ्तारी तक की सूचना तक उनके रिश्तेदारों, मित्रों और सहयोगियों को नहीं दी गई। उन्हें कहां रखा गया है इसकी कोई खबर नहीं दी गई। दो महीने तक मिलने-जुलने नहीं दिया गया, जेलबंदियों को रात को सोने न देना, खाना न देना, प्यासा रखना या बहुत भूखा रखने के बाद बहुत खाना खिलाकर आराम न करने देना, घंटों खड़ा रखना, डराना-धमकाना, हफ्तों-हफ्तों तक सवालों की बौछार करते रहना जैसी चीजें आम हो गईं थीं। शाह कमीशन की अंतरिम औऱ अंतिम रिपोर्ट में इन ज्यादतियों का विस्तार से जिक्र है। इमरजेंसी के दौरान मीसा और डीआईआर के तहत देश में एक लाख 10 हजार से ज्यादा लोगों को जेलों में ठूंस दिया गया।

इमरजेंसी की घोषणा के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक बालासाहब देवरस को 30 जून को ही नागपुर स्टेशन पर बंदी बना लिया गया था। उन्होंने अपनी गिरफ्तारी के पूर्व ही आवाहन किया "इस असाधारण परिस्थिति में स्वयंसेवकों का दायित्व है कि वे अपना संतुलन न खोएं।" इसके बाद 4 जुलाई, 1975 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ऊपर प्रतिबंध लगा दिया गया। देशभर में संघ के 1356 प्रचारकों में से 189 को कारावास भेजा गया। आपातकाल के दौरान सत्याग्रह करने वाले कुल 1 लाख 30,000 सत्याग्रहियों में से एक लाख से अधिक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के थे। मीसा के अधीन जो 30,000 लोग बंदी बनाए गए, उनमें से 25,000 से ज्यादा संघ-संवर्ग के थे। यही नहीं इमरजेंसी के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 100 कार्यकर्ता बंदीग्रहों और बाहर आंदोलन करते हुए बलिदान हो गए। उनमें संघ के अखिल भारतीय व्यवस्था प्रमुख श्री पांडुरंग क्षीरसागर भी थे।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शौर्यपूर्ण भूमिका के ठीक विपरीत पश्चिम बंगाल के मार्क्सवादी कम्युनिस्ट दल (सीपीएम) के ज्योतिर्मय बसु को छोड़कर अन्य किसी भी कम्युनिस्ट नेता को गिरफ्तार नहीं किया गया और ना ही उन्हें भूमिगत होना पड़ा। सीपीआई ने आपातकाल को एक अवसर के रूप में देखा और इसका स्वागत किया। सीपीआई ने 11वीं भटिंडा कांग्रेस में इन्दिरा गांधी द्वारा थोपे गए आपातकाल का समर्थन किया था। सीपीआई नेताओं का मानना था कि वे इमरजेंसी को कम्युनिस्ट क्रांति में बदल सकते थे।

आपातकाल की जड़ में 1971 में हुआ लोकसभा चुनाव था जिसमें इंदिरा गांधी ने अपने मुख्य प्रतिदंद्वी राजनारायण को पराजित किया था। लेकिन चुनाव परिणाम के चार साल बाद राजनारायण ने हाईकोर्ट में चुनाव परिणाम को चुनौती दी। 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी का चुनाव निरस्त कर उन पर छह साल तक चुनाव न लड़ने का प्रतिबंध लगा दिया। उनके मुकाबले हारे हुए उम्मीदवार राजनारायण सिंह को चुनाव में विजयी घोषित कर दिया था। राजनारायण सिंह की दलील थी कि इंदिरा गांधी ने चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया। तय सीमा से ज्यादा पैसा खर्च किया गया और मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए गलत तरीकों का इस्तेमाल किया। अदालत ने इन आरोपों को सही ठहराया। इसके बावजूद श्रीमती गांधी ने इस्तीफा देने से इनकार कर दिया। इसी दिन गुजरात में चिमनभाई पटेल के विरुद्ध विपक्षी जनता मोर्चे को भारी विजय मिली। इस दोहरी चोट से इंदिरा गांधी बुरी तरह बौखला गईं थीं। बड़ी बात ये भी है कि आपातकाल की घोषणा में इंदिरा ने अपने कैबिनेट तक की सलाह नहीं ली थी। अपने श्वेतपत्र में इंदिरा सरकार ने आपातकाल लगाने के लिए जिन कारणों को गिनाया वो बिल्कुल अप्रासंगिक थे।

आपातकाल के वक्त संजय गांधी अपने दोस्त बंसीलाल, विद्याचरण शुक्ल और ओम मेहता की तिकड़ी के जरिए सरकार चला रहे थे। संजय गांधी ने वी सी शुक्ला को नया सूचना एवं प्रसारण मंत्री बनवाया जिन्होंने मीडिया पर सरकार की इजाजत के बिना कुछ भी लिखने-बोलने पर पाबंदी लगा दी। आपातकाल लगते ही अखबारों पर सेंसरशिप लगा दी गई। सेंसरशिप के अलावा अखबारों और समाचार एजेंसियों को नियंत्रित करने के लिए सरकार ने नया कानून बनाकर आपत्तिजनक सामग्री के प्रकाशन पर रोक लगा दी। सरकार ने चारों समाचार एजेंसियों पीटीआई, यूएनआई, हिंदुस्तान समाचार और समाचार भारती को खत्म करके उन्हें 'समाचार' नामक एजेंसी में विलीन कर दिया। विद्याचरण शुक्ल ने महज छह संपादकों की सहमति से प्रेस के लिए 'आचार संहिता' की घोषणा कर दी। 'इंडियन एक्सप्रेस' का प्रकाशन रोकने के लिए बिजली के तार तक काट दिए गए। इस बात की भरपूर कोशिश की गई कि नेताओं की गिरफ्तारी की सूचना आम जनता तक न पहुंचे। पुणे के साप्ताहिक 'साधना' और अहमदाबाद के 'भूमिपुत्र' पर प्रबंधन से संबंधित मुकदमे चलाए गए। बड़ोदरा में 'भूमिपुत्र' के संपादक को तो गिरफ्तार ही कर लिया गया। 'स्टेट्समैन' को जुलाई 1975 में बाध्य किया गया कि वो सरकार द्वारा मनोनीत निदेशकों की नियुक्ति करे।

आपातकाल में अफसरशाही और पुलिस को मिले अधिकारों का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग किया गया। एक तरफ देशभर में सरकार के खिलाफ बोलने वालों पर जुल्म हो रहा था तो दूसरी तरफ संजय गांधी ने देश को आगे बढ़ाने के नाम पर पांच सूत्रीय एजेंडे पर काम करना शुरू कर दिया था। इसमें परिवार नियोजन, दहेज प्रथा का खात्मा, वयस्क शिक्षा, पेड़ लगाना और जाति प्रथा उन्मूलन शामिल था। पांच सूत्रीय कार्यक्रम में संजय गांधी का सबसे ज्यादा जोर परिवार नियोजन पर था। लोगों की जबरदस्ती नसबंदी कराई गई। 19 महीने के दौरान देशभर में करीब 83 लाख लोगों की जबरदस्ती नसबंदी कराई गई। कहा तो यहां तक जाता है कि पुलिसबल गांव के गांव घेर लेते थे और पुरुषों को पकड़ पकड़कर उनकी नसबंदी करा दी जाती थी। आपातकाल के जरिए इंदिरा गांधी जिस विरोध को शांत करना चाहती थीं। 19 महीने में उसी विरोध ने उनके तिलिस्म को जमींदोज कर दिया। एक बार इंदिरा गांधी ने कहा था कि आपातकाल लगने पर विरोध में कुत्ते भी नहीं भौंके थे। लेकिन 19 महीने में उन्हें अपनी गलती और लोगों के गुस्से का एहसास हो गया था। हालांकि इसके लिए उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कभी खेद व्यक्त नहीं किया।

देश में इमरजेंसी के दौरान इंदिरा की तानाशाही और अत्याचार के विरुद्ध लोगों का आंदोलन भीतर ही भीतर सुलगने लगा था। लोगों की जनसभाएं कांग्रेस की कुरीतियों के विरुद्ध जारी थीं। 18 जनवरी 1977 को इंदिरा गांधी ने अचानक मार्च में लोकसभा चुनाव कराने का ऐलान कर दिया। 16 मार्च को हुए चुनाव में इंदिरा और संजय गांधी दोनों ही हार गए। इस तरह जनता ने लोकतंत्र में अपनी आस्था का सबूत देकर सबसे बड़ा संदेश दिया और आखिरकार 21 मार्च 1977 को आपातकाल खत्म हो गया।


Updated : 27 Jun 2020 6:19 AM GMT
Tags:    
author-thhumb

Swadesh News

Swadesh Digital contributor help bring you the latest article around you


Next Story
Top