बगैर नींव के महल की कल्पना विपक्षी एकता की बाधा

डॉ. हरिकृष्ण बड़ोदिया
जब 12 जून की पटना में विपक्षी दलों की बैठक रद्द हुई थी तब ऐसा लग रहा था कि सभी विपक्षी दलों के बीच विश्वास का संकट इस कदर हावी है कि वह शायद ही एक मंच पर एकत्रित होकर समवेत स्वर में सभी कठिनाइयों को दरकिनार कर आगे बढ़ेंगे। लेकिन 23जून की बैठक के बाद फिलहाल यह दिखाई दे रहा है कि दिल भले ही नहीं मिले पर हाथ तो मिले ही। पटना में 15 दलों के नेता एक हाल में एकत्र होकर एक-दूसरे से निकटता दिखाने की कोशिश करते दिखे। सबसे बड़ी विशेषता इस बैठक की यही थी कि सभी राजनीतिक दलों ने आरजेडी सुप्रीमो लालू यादव को उनके सजायाफ्ता भ्रष्टाचार को दरकिनार कर पर्याप्त सम्मान दिया। ममता बनर्जी ने तो लालू के पैर छूकर आशीर्वाद लिया। जैसे वे कह रही हों कि आपने चारे घोटाले में जो किया था वही पश्चिम बंगाल में शिक्षक भर्ती घोटाले में हमने किया है। रास्ता दिखाएं कि कैसे इस मुसीबत से पार पाया जा सकता है। और लालू की बॉडी लैंग्वेज कह रही थी कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध मोदी सरकार की नीति से बचना हो तो सब एक हो जाओ। यदि नहीं हुए तो सब की दशा उन जैसी ही होना निश्चित है।
जो दल पटना में इक_े हुए उनमें से कई दलों के नेताओं के विरुद्ध ईडी और सीबीआई की कार्रवाई जारी है। जिनके बारे में ममता ने प्रेस को संबोधित करते हुए कहा कि मोदी सरकार इन एजेंसियों का दुरूपयोग कर विपक्षी नेताओं के खिलाफ बदले की कार्यवाही कर रही है। ऐसी सरकार को बदलने की जरूरत है। समझा जा सकता है कि विपक्षी एकता का मुख्य मुद्दा अपने अपने भ्रष्टाचार के खिलाफ हो रही कार्रवाइयो से निजात पाने का एक ही रास्ता है जो केवल और केवल मोदी सरकार को चलता कर प्राप्त किया जा सकता है।कर्नाटक चुनाव के पहले कांग्रेस को छोड़कर सभी विपक्षी दल इस बात से खुश थे कि कांग्रेस की दुर्दशा ही उनकी सफलता की कहानी लिखेगी। चाहे वह ममता हों या नीतीश, केजरीवाल हो या केसीआर सबके मन में प्रधानमंत्री बनने की चाहत हिलोरे ले रही थीं लेकिन वक्त ने ऐसी पलटी मारी कि कांग्रेस ने न केवल हिमाचल प्रदेश में जीत हासिल की बल्कि कर्नाटक में बंपर जीत के साथ शेष विपक्षी दलों के पैरों के नीचे की जमीन हिला कर रख दी। जो दल कल तक कांग्रेस को पिछलग्गू बनाकर रखना चाह रहे थे, सकते में आ गए। उन्हें समझ में आ गया कि दो निरंतर जीतों के बाद कांग्रेस उनकी हर एक बात का आंख मूंदकर समर्थन नहीं करेगी। ये नेता यह भी जान गए कि अब कांग्रेस उनकी सभी शर्तें मान लेगी संभव नहीं। यही कारण है कि 23 जून की बैठक बिना किसी ठोस नतीजे पर पहुंचे समाप्त हुई। निश्चित ही इस बैठक से यह जरूर लगा कि विपक्षी एकता की अवधारणा आकार लेने के पहले ही ध्वस्त न हो जाए इसलिए यह घोषणा कर कि अगली बैठक कांग्रेस के नेतृत्व में शिमला में आयोजित होगी सवालों से बचने का प्रयास किया गया। कहा गया कि शिमला में 2024 की रणनीति पर चर्चा कर किसी निर्णय पर पहुंचा जाएगा। निश्चित ही कांग्रेस के तेवर इतने बदल गए हैं कि सभी क्षेत्रीय दलों के छत्रपों को उनके वोट बैंक में सेंध लगने की आशंका सताने लगी है। कांग्रेस की हाल की जीत ने स्पष्ट कर दिया है कि यदि सब कुछ कर्नाटक और हिमाचल की रणनीति के अनुसार चला तो कांग्रेस का वोट बैंक जिसे क्षेत्रीय दलों ने छीन कर अपना साम्राज्य स्थापित किया है दोबारा कांग्रेस के पास आ सकता है। यही कारण है कि ममता हों या अखिलेश, स्टालिन हों केजरीवाल सब के सब डरे हुए हैं। यही कारण रहा कि किसी भी दल ने न तो प्रधानमंत्री पद के चेहरे को लेकर कोई बात की, ना ही संयुक्त विपक्ष के संयोजक पर बात हुई और ना ही सीटों के बंटवारे को लेकर कोई बात हुई। बात हुई तो केवल यह कि मोदी को सत्ता से हटाने के लिए समूचे विपक्ष को एक हो जाना चाहिए। लोकतंत्र की रक्षा के लिए मोदी को हटाना होगा। संविधान की रक्षा के लिए इस सरकार को बदलना होगा। ममता दीदी ने कहा हम एक हैं, हम मिलकर लड़ेंगे, हमारी लड़ाई भाजपा की तानाशाही के विरुद्ध है। लेकिन यही सब यदि कहना सुनना था तो यह तो घर बैठ कर पत्रकारों को बुलाकर भी हो सकता था। इसके लिए पटना में एकजुट होने की क्या जरूरत थी। यह सब तो 2019 के बाद से हर मोदी विरोधी चिल्ला-चिल्ला कर कहता रहा है तो फिर बैठक में नया क्या हुआ। जो नया हुआ वह यह कि विपक्षी एकता में अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए शामिल होने को मजबूर अरविंद केजरीवाल ने विपक्ष को अपना गुलाम समझने की न केवल हिमाकत की बल्कि दबाव बनाने की कोशिश की कि विपक्षी एकता का सबसे पहला एजेंडा राज्यसभा में दिल्ली सरकार के विरुद्ध केंद्र सरकार के ऑर्डिनेंस का विरोध किया जाए।
(लेखक समाजशास्त्र के सेवानिवृत्त प्राध्यापक हैं)
