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राजा और धर्म के बीच संवाद का प्रतीक सेंगोल

राजा और धर्म के बीच संवाद का प्रतीक सेंगोल
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मनोज श्रीवास्तव

वे पूछते हैं कि किसका राज्याभिषेक होने जा रहा है, कौन-सा सत्तांतरण हुआ है कि संगोल स्थापित किया जा रहा है। लेकिन सत्तांतरण तो 1947 में हो चुका था और सेंगोल तो तभी भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जी ने ग्रहण किया था। यह बात अलग है कि बाद में वह संग्रहालय की चीज बना दिया गया। सेंगोल बताता है कि दुनिया फ्लैट नहीं है, गोल है और अंतत: वहीं लौटती है जहां उसे लौटना चाहिये था। सेंगोल यह भी बताता है कि सत्ता का चक्र परिवर्तन होता रहता है। वह एक हाथ से दूसरे हाथ में जाती रहती है। जैसे गीता के ज्ञानांतरण की एक परंपरा है, वैसे ही सत्तांतरण की भी। आज मैं हूँ जहां कल कोई और था। ये भी इक दौर है वह भी एक दौर था। महाभारत के शांतिपर्व के राजधर्मानुशासन पर्व में सबसे पहले शिव इसे विष्णु को देते हैं। तदनन्तर ब्रह्माजीका वह यज्ञ जब विधिपूर्वक सम्पन्न हो गया, तब महादेवजी ने धर्मरक्षक भगवान् विष्णु का सत्कार करके उन्हें वह दण्ड समर्पित किया। भगवान् विष्णु ने उसे अंगिरा को दे दिया। मुनिवर अंगिरा ने इन्द्र और मरीचि को दिया और मरीचि ने भृगु को के सौंप दिया।

भृगु ने वह धर्म समाहित दण्ड ऋषियों को दिया। ऋषियों ने लोकपालों को, लोकपालों ने क्षुपको, क्षुपने सूर्यपुत्र मनु (श्राद्धदेव) को और श्राद्धदेव ने सूक्ष्म धर्म तथा अर्थ की रक्षा के लिये उसे अपने पुत्रों को सौंप दिया। अत: धर्म के अनुसार न्याय-अन्याय का विचार करके ही दण्ड का विधान करना चाहिये, मनमानी नहीं करनी चाहिए। दुष्टों का दमन करना ही दण्ड का मुख्य उद्देश्य है, स्वर्ण मुद्राएँ लेकर खजाना भरना नहीं। भगवान् इन्द्र दण्ड-विधान करने में सदा जागरूक रहते हैं इन्द्र से प्रकाशमान अग्नि, अग्नि से वरुण और वरुण से प्रजापति उस दण्ड को प्राप्त करके उसके यथोचित प्रयोग के लिये सदा जाग्रत् रहते हैं।

जो सम्पूर्ण जगत को शिक्षा देने वाले हैं, वे धर्म प्रजापति से दण्ड को ग्रहण करके प्रजा की रक्षा के लिये सदा जागरूक रहते हैं। ब्रह्मपुत्र सनातन व्यवसाय वह दण्ड धर्म से लेकर लोकरक्षा के लिये जागते रहते हैं। व्यवसाय से दण्ड लेकर तेज जगत की रक्षा करता हुआ सजग रहता है तेज से औषधियाँ, औषधियों से पर्वत, पर्वतों से रस, रस से निऋर्ति और निऋर्ति से ज्योतियाँ क्रमश: उस दण्ड को हस्तगत करके लोक- रक्षा के लिये जागरूक बनी रहती हैं। पितामह ब्रह्मा से दण्ड और रक्षा का अधिकार पाकर महान् देव भगवान् शिव जागते हैं। शिव से विश्वेदेव, विश्वेदेवों से ऋषि, ऋषियों से भगवान् सोम, सोम से सनातन देवगण और देवताओं से ब्राह्मण वह अधिकार लेकर लोक-रक्षा के लिये सदा जाग्रत् रहते हैं। इस बात को तुम अच्छी तरह समझ लो। यह कालरूप दण्ड सृष्टि के आदि में, मध्य में और अन्त में भी जागता रहता है। यह सर्व- लोकेश्वर महादेव का स्वरूप है। यही समस्त प्रजाओं का पालक है। तो दंड की ट्रांसफेरिबिलिटी- अंतरणीयता ही तो लोकतंत्र की खूबी है। यह भान रहना कि तुझसे पहले भी जो यहाँ तख्ते-नशीं था। उसको भी खुदा होने का इतना ही यक़ीं था। लेकिन उसी के साथ-साथ इस बात का लगातार अनुस्मरण कि वह एक महान परंपरा का अंग है और उसके निर्वाह की भी एक प्रतिश्रुति है।

जो बात महाभारत के इस दंड प्रसंग में खींचती है वह है जागरूकता की। उस पर इतना बल कोई लक्ष्य किये बिना नहीं रह सकता। और इस प्रजातंत्र के लिए यह बात कितनी प्रेरक है कि- प्रजा जागर्ति लोकेऽस्मिन् दण्डो जागर्ति तासु च। सर्वं संक्षिपते दण्ड: पितामहसमप्रभ:॥ कि इस लोक में प्रजा जागती है और प्रजाओं में दण्ड जागता है। वह ब्रह्माजी के समान तेजस्वी दण्ड सबको मर्यादा के भीतर रखता है। तो यह दंड राजधर्म को अनुशासन में रखने के लिए है। इसलिए पर्व का नाम राजधर्मानुशासन है। यहाँ दंडशक्ति प्रजा के पास भी है। तो यह परस्पर मर्यादाओं का, चेक एंड बैलेंस का खेल है। सेंगोल राजा और धर्म के बीच एक संवाद का प्रतीक है। सेंगोल में सबसे ऊपर एक वृषभ है। वृषभ को धर्म का प्रतिनिधि कामायनी के आनंद सर्ग में जयशंकर प्रसाद जी ने कहा ही था तो वह उसी शास्त्रीय दृष्टि की आधारभूमि से कहा था। धर्म साक्षी है और निरन्तर शासक को सेंगोल देख रहा है। सेंगोल आग्रह है, संग्रह नहीं। यह शासन की शिवता की ओर धर्म-दृष्टि है और यह किसी धर्म विशेष की बात नहीं है। यानी गणतंत्र का प्रतीक है, बौद्धधर्म में वृषभ सबसे बड़े क्रिया तंत्रों में माना जाता है। संस्कृत में वृषभ अपनी कक्षा का सर्वश्रेष्ठ या प्रतिष्ठित कुछ हो - नरवृषभ, द्विजवृषभ आदि कहलाता है यानी वृषभ द्ग3ष्द्गद्यद्यद्गठ्ठष्द्ग का प्रतीक है - किं नास्ति त्वयि सत्यमात्य वृषभे यस्मिन् करोमि स्पृहाम्! शक्ति और स्थायित्व का प्रतीक तो वह है ही, सेंगोल का मंगलवृषभ कल्याणमूलक है, स्वस्तिमूलक है। एक लोकतंत्र में राजदंड कैसे हो सकता है? अरे इसीलिए तो महाभारत का वह हिस्सा ऊपर उद्धृत किया मैंने। राज का मतलब शासन। राजा नहीं। राजदंड है यह। राजादंड नहीं। लेकिन प्रयोग तो इसका चोल राजाओं के समय हुआ? यों तो अशोक चक्र भी राजा का ही था। उस पर आपत्ति क्यों न हुई? अकबर बाबर औरंगजेब टीपू सुल्तान कर्जन कार्नवालिस डलहौज़ी पर क़सीदे पढ़ने वाले उनके राजा होने से तो विचलित नहीं हुए, चोलों से क्यों होना? और चोल राज्य तो प्रशासनिक विकेंद्रीकरण का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण था- यह बात तो इन आपत्तिकर्ताओं की परमपूज्या रोमिला थापर तक स्वीकारतीं हैं।

(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रहे हैं)

Updated : 27 May 2023 8:56 PM GMT
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City Desk

Web Journalist www.swadeshnews.in


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