कृषि कर्मण में भी छुपी है आध्यात्मिक प्रेरणा

कृषि कर्मण में भी छुपी है आध्यात्मिक प्रेरणा
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श्रीपादावधूत

आज आषाढ़ का पहला दिन और आज ही कवि कालिदास जी का भी दिन है। कालिदास जी का उल्लेख हो और मेघदूत का उल्लेख न हो यह तो संभव नहीं है आषाढ़ अर्थात आसमान में काले काले बादलों का डेरा और पिछले दो-तीन तीनों से पश्चिम दिशा से काले काले बादल उमड़ घुमड़ कर आ रहे हैं। इस पद के माध्यम से कबीर दास जी ने ग्राम्य जीवन को ध्यान में रखते हुए खेती किसानी के माध्यम से अध्यात्म समझाया है। जैसे वर्षा के आगमन के समय किसान खेत जोत कर उसमें बीज लगाकर फसल पैदा करने का कार्य करता है। इसी घटना को रूपक बनाकर वह योगी या अवधूत को प्रतीकात्मक रूप से समझाना चाहता है कि वह अपने जीवन को कृतार्थ करने के लिए मोह माया त्याग कर उस परम पद को मोक्ष को पाने के लिए कार्य करें। भारतीय सनातनी तत्व दर्शन कितना श्रेष्ठ है है कि किसान के रूप में खेती करते हुए कृषिकर्म में भी किस प्रकार अध्यात्म छुपा है यह सबको जानना चाहिए।

अवधूता, गगन घटा गहरानी रे।

पच्छम दिसा से उलटी बादली।

प्राचीन सनातन वैदिक हिन्दू परंपरा में अवधूत परंपरा अन्य ऋ षि, साधू, संत आदि इन सब परंपराओं से थोड़ी हटकर या कहे कि इनसे ऊँची अवस्था वाले योगी परंपरा जानी व मानी जाती हैं।

अवधूत वह है, जो पूरे तरीके से संसार का हो गया है। अवधूत वह है जिसका कोई भ्रम शेष नहीं है, इसीलिए अवधूत के लिए कहा गया है कि वह इस धरातल पर ऐसे घूमता है, ऐसे लोटता है जैसे कोई बच्चा अपने मां के आंचल में लोटता है। वह कहीं ठहरता नहीं है। अर्थात वह इन सांसारिक बंधनों में बंध कर नहीं रहता। चरैवेति चरैवेति चलते रहना उसका स्वभाव होता है। वह जहाँ भी जाता है, उसे अपना घर ही मानता है। सही अर्थों में 'यायावरी यह जीवन जीते हुए वह 'वसुधैव-कुटुंबकम की मूल भावना का 'उद्गाता है, 'प्रचारक है। ऐसे 'अवधूत को सम्बोधित कर रहे हैं कबीरदासजी-

अवधूता,गगन घटा गहरानी,

कबीर दास जी कह रहे हैं, मन का जो आकाश है, उस पर अब बादल छा रहे हैं। कबीर आवाज़ दे रहे हैं कि हे अवधूत, देख जो प्रकृति का नियम है, वही हो रहा है। मन के आकाश पर बादल छा रहे हैं। ये चित्त का आकाश है, इस पर विचारों के, संकल्पों के, बादल आ रहे हैं।

'पच्छम दिसा से उलटी बादली। रुमझुम बरसे मेहा।

पश्चिम दिशा से, यानी पीछे से बीते काल या समय से अनेकों दिशा से संसार अब तेरे भीतर पुन: विकृत रूप में प्रवेश करने का प्रयास कर रहा है। माया अपना आकर्षक नाच फिर शुरू कर रही है और ये सब दिखने में बड़ा मधुर लगेगा। दिखने में बड़ा चित्ताकर्षक लगेगा। बादल आए हैं, हल्की रिम-झूम फुहार आरंभ हो गई है। 'संभव है कि हे अवधूत!

तू भी कहीं बहक न जाना।

इसलिए कहते हैं कि

'उठो ज्ञानी खेत संभारो, बह

निसरेगा पानी।

इस समय पर यदि तूने अपने मन की देख भाल नहीं की, तो जो कुछ भी तूने जाना है, अर्जित किया है, वो सब खतरे में पड़ जाएगा। तू फिर उसी माया के शिकंजे में फंस जाएगा, जिससे मुक्त हो करके तू अवधूत हुआ था। इसलिए हे ज्ञानी जागो अपना जीवन संवारो अर्थात मोह माया का त्याग करो। अगर सही समय पर तुमने अपना जीवन नहीं संभाला तो यह साधना से प्राप्त अवस्था बेकार हो जाएगी निष्फल हो जाएगी।

'बीजा बो निज धानी।

इसमें जो बीज डाले, या बोएं वह एक ही रहे। और यह बीज तुम्हारी समझ का, तुम्हारे जानने का, तुम्हारे ध्यान का रहे।

कबीर दास जी अवधूत को आगाह करते हुए कह रहे हैं - अवधूत, बादल छा चुके हैं, वर्षा होगी, जो तूने बीज बोए हैं वह अंकुरित होंगे। यह प्रक्रिया तूने हर बार की है लेकिन ध्यान रख हर बार की तरह तूने ध्यान नहीं दिया तो तेरी यह फसल जंगली जानवर चर जाएंगे खाकर नष्ट कर देंगे। तूने सैकड़ों बार ये लड़ाई जीती हो, लेकिन इस बार भी तुझे अपने खेत की रक्षा करनी ही पड़ेगी।

'दुबध्या डूब जन्म नहीं पावे, बोवो नाम की धानी- इस क्षण पर शंकित मत हो जाना। दुविधा में मत फंस जाना। गीता में भी कृष्ण ने अर्जुन को कहा है संशयात्मा विनश्यति। अर्थात दुविधा सदैव हमारा नाश करती है, घात करती है।Ó 'नाम की धानी बोओÓ, जिस बीज की बात वह कर रहे थे। वह हरि नाम की, राम नाम की धानी बोओ। वही है, जो तुमको कैसे भी आकर्षण से, कैसे भी आक्रमण से बचाकर रखेगी।

(लेखक श्रीदत्त पादुका मंदिर, ग्राम बांगर (देवास) के मठाधिपति हैं। )

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