राम से सामाजिक सेतुबंध की प्रेरणा

इतिहासबोध का अभाव हमें अपनी ऐतिहासिक त्रासदियों से शिक्षाएं ग्रहण नहीं करने देता। जब देश धार्मिक आधार पर विभाजित हुआ तो 1947 में ही हिंदू समाज की धार्मिक समस्याओं यथा काशी मथुरा अयोध्या का सरलता से समाधान हो सकता था। लेकिन जो लोग सत्ता में आये वे तुष्टीकरण के अवतारस्वरूप व भारतीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण की संभावना से भयभीत लोग थे। इसलिए विभाजन के बावजूद अपना नया वोट बैंक बनाने के लिए वे अतिसक्रिय होकर अल्पसंख्यकों का भारत से प्रस्थान रोकने में लगे रहे। गांधीजी को हम आजादी का श्रेय देते हैं। देश आजाद हो गया तो आपकी भूमिका क्या थी?
नेहरू ने ध्वस्त हुए सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण की सरदार पटेल की पहल का यह कह कर विरोध किया था कि इससे तो हिंदू पुनर्जागरण होने लगेगा तो ऐसा प्रधानमंत्री हमारे आजादी के आंदोलन का परिणाम था! नये नेतृत्व का यह दृष्टिकोण मुगलों से कहीं भिन्न नहीं था। बहरहाल, मूल सवाल यह है कि हमारी धार्मिक पराजयों व उससे उपजी बेचारगी का कारण क्या है। धर्म-संस्कृति की धारा इतनी असहाय क्यों हो गयी? किसी ने हमारे मंदिर वापस नहीं किये। हमारे प्रतिबद्ध इतिहासकारों ने धर्मनिरपेक्षता के घोषित आग्रह के कारण इन प्रश्नों पर विचार करने से भी गुरेज किया है। आखिर हमारी इस अशक्तता के कारण क्या हैं?
मध्यकाल के इस्लामिक आक्रांताओं के दौर में लगभग 10 करोड़ की जनसंख्या की यह विश्व की सबसे समृद्ध भारत सभ्यता कुल 50-60 लाख की आबादी से निकल कर आये अरब-ईरानियों तुर्को की लुटेरी सेनाओं के सामने पराजित होती रही है। यहीं तो मगध में शासक महापद्मनंद घनानंद का साम्राज्य था जिसकी शक्ति के सम्मुख विश्वविजेता सिकंदर भी पंजाब से आगे बढ़ने का साहस नहीं कर सका था। बाद में पुराणों ने उन्हें शूद्र बताया। फिर उसी राज व्यवस्था को और सशक्त करता हुआ मौर्य साम्राज्य आता है। ये जाति वर्ण आधारित शासक नहीं थे, न जातियों का कोई महत्व ही था। कर्म आधारित व्यवस्थाएंं राज-समाज चला रही थीं। हमारे महान् सम्राटों महापद्मनंद, चंद्रगुप्त मौर्य, समुद्रगुप्त, कनिष्क, ललितादित्य में से कोई भी ऐसा नहीं था जिसने वर्ण जातियों को कभी कोई महत्व भी दिया हो, ऐसा तो प्रमाण भी नहीं मिलता। वे स्वयं किन वर्ण-जाति से थे, आज भी संदेह के घेरे में है। उनकी जातियों पर इतिहासकारों में विवाद चले आते हैं। समग्र समाज उनका सैनिक था। समाज के कर्मठ वर्ग को शूद्रों की प्रताड़ित व आधिकारविहीन श्रेणी बना देने का अपराध हमारे उन महान् सम्राटों ने तो नहीं किया था। कर्मणा से जन्मना की यह दुर्भाग्यपूर्ण यात्रा कैसे हुई? यह एक अलग विषय ही है।
उन सम्राटों की जिनकी जातियां नहीं मिलतीं, की शक्तियों के सामने यवनों, शकों, हूणों आदि को भारत की सीमाओं पर भीषण पराजय मिली। और जब भारत भूमि शांतिकाल में व्यक्तिगत सम्पत्ति के समान छोटे राजाओं के राज्यों में विभाजित होकर वर्ण आधारित व्यवस्थाओं में बंटती गयी, समाज का विभाजन होता गया तो फिर हमारी पराजयों, हमारे संकट का तो जैसे कोई अंत ही नहीं दिखता। ऐसा क्यों हुआ कि ये गांधार कम्बोज व हिंदूकुश पर्वतमालाएं किसी मगध कन्नौज उज्जयिनी या कश्मीर के साम्राज्य का भाग नहीं रह गयी थीं? साम्राज्यों की समृद्धि, सैन्य-शक्ति, सशक्त सेनाओं में रूपांतरित होती है। वे साम्राज्य कहां बिला गये थे? फिर ये कैसे हुआ कि कर्मठ शूद्र वर्ग को मात्र सेवक, श्रमिक, पशुपालक, कृषक व अंत में निम्न कार्य करने वाला बना अछूत तक बना दिया गया..?
हमारे प्रतिबद्ध इतिहासकारों ने सवाल नहीं पूंछे कि इस सामाजिक ह्रास का हमारी पराजयों से क्या सम्बंध है? मंदिरों में प्रवेश नहीं, वेदाध्ययन नहीं, साझा कुओं का पानी नहीं, सामूहिक भोज नहीं, अलग तालाब-अलग बस्तियां। छाया भी न पड़े। ये कौन धर्मद्रोही स्वार्थी लोग थे? तो फिर इस अलगाव का परिणाम क्या हुआ? शूद्र सिख, शूद्र महार, शूद्र वनवासी सैनिक ब्रिटिश रेजीमेंटों में भरती होकर ब्रिटिश साम्राज्य के योद्धा हैं, राजपूतों सिखों गोरखाओं की तरह विश्वयुद्ध लड़ रहे हैं और देश के धार्मिक-सामाजिक नेतृत्व के लिए वे अछूत हैं। यह कितनी आश्चर्यजनक बात है। हजार साल की इस्लामिक व ईसाई गुलामी और भीषण नरसंहार कहीं इसी आंतरिक सामाजिक विरोधाभास का परिणाम तो नहीं था..?
प्रताड़ित पीड़ित शूद्र अछूत समाज पर हुए अत्याचारों की बहुत सी लोमहर्षक कहानियां हैं। लेकिन इसी अलगाव के परिणामस्वरूप अशक्त होता गया जो खण्डित हिंदू समाज बना उसी को तो आठ सौ वर्षों की लम्बी गुलामियों, सामूहिक हत्याओं, बलात्कारों, काबुल बगदाद के बाजारों में दो-दो दीनारों में विक्रय होती देश की बहनों बेटियों, बलात् धर्मपरिवर्तनों के रूप में दण्ड मिला है, उसका भी तो कोई हिसाब ही नहीं। कर्मसिद्धांत का इससे बड़ा उदाहरण भला और क्या हो सकता है! अपने ही समाज को खण्डित विभाजित करने के इस निकृष्ट स्वार्थी जाति विभाजक कार्य ने विश्व की हमारी महानतम समृद्धतम सभ्यता को गुलामी, तिरस्कार, अपमान धर्म-संस्कृति विनाश व लम्बी प्रताड़ना के घोर अंधकार में धकेल दिया। जब प्रताड़ित हिंदू समाज का एक बड़ा भाग भीषण संघर्षों के बाद असहाय होकर अफगानिस्तान से लेकर बंगाल तक आक्रांताओं के मजहब का मानने वाला हो गया तो वहां के हिंदू सभ्यता पर हुए भीषण अत्याचार, मर्मांतक पीड़ा की कथाएं कौन कहेगा? कोई बचा ही नहीं जो बताता कि वहां के हिंदू बौद्ध सनातन समाज पर क्या बीता ..? खैबर और बोलन दर्रे, हिंदूकुश की वे हत्यारी पहाड़ियां उन भीषण युद्धों, हिंदू नरसंहार, बैलगाड़ियों के लम्बे काफिलों में बांध कर दमिश्क, काबुल के बाजारों में ले जायी जा रही हमारी माताओं बहनों बेटियों की मर्मान्तक चीखों सिसकियों की गवाह तो हैं।
वर्ण-जातिवादी शोषक धार्मिक-सामाजिक नेतृत्व ने छुद्र स्वार्थवश समाज को विभाजित व अशक्त किया और फिर समस्त राष्ट्र ने विधर्मी आक्रांताओं से भीषण नरसंहार व धर्मपरिवर्तन व घोर परतंत्रता का परिणाम झेला. इसका दायित्व कौन लेगा? इतने गद्दार कहां से इस देश में पैदा हो गये ? महान् चक्रवर्ती सम्राट महाराज ययाति लाल सागर तक विजय पताका ले जाते हैं, धर्म का विस्तार करते हैं और फिर ऐसा समय कैसे आया कि मात्र 12 सौ घुड़सवारों की सेना लेकर चला बख्तियार खिलजी नालंदा विश्वविद्यालय को जलाता, लाशों की मीनारें बनाता देश को बंगाल तक रौंद डालता है।
कोनराड एल्स्ट ने जब वाराणसी में अपने सम्बोधन में गणमान्य नागरिकों से यह कहा कि आठवीं शताब्दी से लेकर 16वी शताब्दी तक भारत में इस्लामिक आक्रांताओं द्वारा लगभग 10 करोड़ हिंदुओं का नरसंहार किया गया है तो रुद्राक्ष आडिटोरियम में एक बोझिल सा सन्नाटा छा गया। जिस संकट की मौर्य, गुप्त काल में कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था उस संकट ने हमारी हिंदू सभ्यता को विश्व की सर्वाधिक प्रताड़ित सभ्यता की श्रेणी में खड़ा कर दिया है। हिंदुओं से अधिक नरसंहार किसी भी अन्य धर्म के मानने वालों का नहीं हुआ है। हमारी हत्यायें 60 लाख यहूदियों के गैसचैम्बर नरसंहार की तुलना में 18 गुना बड़ी हैं। जितनी हत्यायें उतने ही बलात् धर्मपरिवर्तन.... फलत: मद्र, गांधार आज के अफगानिस्तान से लेकर बंगाल असम तक आज एक बहुत बड़ी भारतीय आबादी हिंदू धर्म से बाहर हो गयी। अब तो ईसाइयों के मुंह भी खून लग गया है।
जो धार्मिक-सामाजिक नेतृत्व अपनी धर्म संस्कृति से अपने ही समाज के 70 प्रतिशत भाग को धर्म व सभ्यता की मुख्यधारा से बाहर कर दे, उसका जो परिणाम हो सकता है, वही तो हमें मिला है। फिर तो पराजयों का क्रम चलता ही गया। अंग्रेजों के काल में जो पूर्वोत्तर मात्र 8 प्रतिशत ईसाई था आज यह अनुपात 70 से ऊपर जा रहा है। संविधाननिर्माताओं की मंशा यह तो न रही होगी कि हम भारत के लोग अपनी धर्म-संस्कृति का त्याग कर विदेशी धर्म-मजहबों के अनुयायी हो जाएं। लेकिन आज हमारे संविधान का ही सहारा लेकर यह सब हो रहा है, कोई बोलने वाला तक नहीं है।
यदि हमने निषादराज, वनवासियों के मित्र, शबरी को माता कहने वाले राम के उस वन्य-जीवन से जो शूद्र-वनवासी समाज में ही व्यतीत हुआ, प्रेरणा ली होती अपने पूर्ववर्ती संतों कबीर, मीरा, नानक, तुलसी, चैतन्य, समर्थगुरु रामदास, तिरुवल्लुवर की आंतरिक सामाजिक एकता समरसता की वाणी को सुना समझा होता तो सम्पूर्ण भारतीय समाज जातीय व वर्णवादी विभाजनों को छोड़कर एक साथ खड़ा रहता। हमें आज इन विदेशी मजहबों का दंश दुख न दे रहा होता। ये हमलावर सिंधु नदी तो छोड़िये, हिंदूकुश पर्वतश्रृंखला को ही पार न कर पाते। हमारे मठ मंदिर आज राष्ट्रीय सशक्तिकरण, एकता, शिक्षा के केंद्र होते। रामजन्मभूमि मंदिर के ध्वंस की तो कल्पना ही न होती। देश आजाद होने बाद भी चंद्रगुप्त मौर्य का वह समग्र सशक्त एकराष्ट्र भारतीय राष्ट्र तो आज एक अपूर्ण स्वप्न जैसा है। राजा राम का आदर्श एक सेतु के समान है जो राष्ट्र के चारों वर्णों-समाजों को जोड़ते हुए हमें ढाढस बंधाता है। उस आदर्श को हमें अपने स्वर्णिम भविष्य के लिए पुन: इस भूमि पर उतारना है। (लेखक पूर्व सैनिक एवं आईएएस अधिकारी हैं)
