बैठा पण्डित पढ़ै पुराण ...

डॉ. आनन्द पाटील
पिछले कुछ 'वज्रपातÓ में संक्रांन्ति काल, नैरेटिव के प्रायोजित एवं सर्वव्यापी तन्त्र, डाटा फीडिंग और डाटा वॉर पर सविस्तार लिखा गया है। ध्यातव्य है कि वर्तमान संक्रान्ति काल में नैरेटिव बिल्डिंग (कथा-निर्माण) सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन की दृष्टि से अत्यन्त शक्तिशाली और प्रभावकारी घटक (उपकरण) है। कथा-निर्माण एक प्रक्रिया है, तो दूसरी प्रक्रिया है - उन कथाओं का मुक्त प्रचार-प्रसार। यह प्रक्रिया मुक्त सूचना और संचार की व्यवस्था के माध्यम से, तीव्र गति से, निर्बाध प्रसारण से पूर्ण होती है। लोगों (व्यक्ति एवं समाज) का मानसिक अनुकूलन करना - इस पूरी प्रक्रिया का एकल ध्येय होता है। लोगों को कोई बात इस प्रकार बताना अथवा समझा देना कि वे उसके अन्यान्य पक्षों को जानने का यत्न ही न करें। अर्थात् अंग्रेज़ी में जिसे 'फिक्स्ड माइन्डसेटÓ कहा जाता है, लोगों को उस स्थिति में पहुँचा देना इसका ध्येय होता है। ऐसे लोग (फिक्स्ड माइन्डसेट) कथा-निर्माता, कथा-प्रसारक एवं कथावाचकों के लिए 'सम्पत्तिÓ बन जाते हैं। ऐसे लोगों के होने से किसी भी अभियान को जन-मन तक ले जाने में सहायता मिलती है। इस पूरी प्रक्रिया में चिन्ताजनक पक्ष यह है कि कथा-निर्माण से लेकर मुक्त सूचनाओं के प्रवाह तक, और उनकी सहज उपलब्धता से व्यक्ति (लोगों) का मन-मस्तिष्क नियन्त्रित (अनुकूलित) ही नहीं होता, अपितु उसमें नानाविध विकृतियाँ भी जन्म लेती हैं। व्यक्ति की ऐसी मन:स्थिति (विकृत) दीर्घकाल में सामाजिक दृष्टि से घातक सिद्ध हो सकती है, क्योंकि उसमें सर्वसमावेशिता और परस्पर सम्मान की भावना का लोप हो जाता है। इसलिए कभी मनुष्य को दृष्टिगत रखते हुए कहा गया था कि युद्ध सर्वप्रथम व्यक्ति की बुद्धि में जन्म लेता है। इसलिए शान्ति बनाये रखने के लिए व्यक्ति की बुद्धि को संयमित बनाने का सतत उपक्रम किया जाना चाहिए। दुर्भाग्य कि कथा-निर्माण एवं मुक्त सूचना प्रवाह से व्यक्ति की बुद्धि में परस्पर वैमनस्य भर कर उकसाने और एक सतत युद्ध की विभीषिका रचने का यत्न किया जा रहा है।
कुछ दशकों पूर्व विकास के लिए सञ्चार का उपयोग अपरिहार्य माना गया था। अत: पत्रकारिता अर्थात् सचंार में एक नवीन चरण उपस्थित हुआ था - विकास संचार। संचार (कम्युनिकेशन) विकास का माध्यम बना, किन्तु कालान्तर में संचार व्यवस्थाओं के विकास के साथ-साथ उसके नवनवीन माध्यम मुक्त सूचनाओं के प्रसार के संवाहक बने। ध्यातव्य है कि मुक्त सूचनाओं के निर्बाध प्रसार से सामाजिकों के बीच सूचनाओं का एक भ्रमजाल विकसित होता है। ऐसी स्थिति में घटनाओं की सत्यता की अपेक्षा घटनाओं का पुन: प्रस्तुतिकरण, पिष्टपेषण, अर्धसत्य और कथा-निर्माण को ही गति मिलती है। इस पूरी प्रक्रिया में भाषा और भावों में स्खलन ही नहीं हुआ, अपितु मानवीय सम्बन्ध भी पतनोन्मुख हुये। ध्यान रहे कि भीतर-भीतर ऐसी पतनोन्मुख स्थिति से गुज़रने वाले समाज (देश) में अन्तर्कलह की स्थितियाँ असमय ही जन्म लेने लगती हैं। ऐसी स्थितियों से गुज़रने वाला समाज (देश) विकास की सम्भावनाओं से धीरे-धीरे च्युत हो जाता है। और, विकास सचंार अथवा संचार अन्यान्य चरण (रूप) जिन समुदायों के जीवन में गुणवत्ता एवं नवपरिवर्तन लाने के लिए माध्यम रूप में उभरा, वह भी अपने लक्ष्य से च्युत हो जाता है।
ध्यान रहे कि अधिकांश देश विश्व में अपनी स्थिति को सुदृढ़ बनाने के लिए राजनीतिक एवं सामरिक पद्धतियों का प्रयोग करते रहे हैं, परन्तु नवीन विश्व व्यवस्था में अपनी स्थिति को सुदृढ़ बनाने और/ अथवा अन्य देशों की स्थिति को क्षत-विक्षत करने के लिए संचार व्यवस्था का ही प्रयोग कर रहे हैं। यह स्पष्ट है कि राजनीतिक एवं आर्थिक दृष्टि से पैठ बनाने के लिए सञ्चार के नवीन जनमाध्यमों का उपयोग अत्यन्त कारगर है। विकास संचार का उपयोग साम्यवादी विचार को अवरुद्ध करने लिए ही हुआ था, परन्तु साम्यवादियों ने उसी धारा में विकसित नवीन जनमाध्यमों के उपयोग से कथा-निर्माण के आधार पर, समाज में सर्वसमावेशिता एवं परस्पर सम्मान की भावना के स्थान पर परस्पर संघर्ष और अविश्वास भरने का सायास प्रयास किया है। आज परिणाम स्पष्ट है कि हम नानाविध विमर्शों में (?) एकजुट नहीं, अपितु विभाजित हैं। इसमें मुक्त सूचना संचार का प्रमुख योगदान है।
वर्तमान भारत में तकनीक आधारित नवीन जनमाध्यमों की बहुलता है और अब यह स्पष्ट है कि इन माध्यमों के संचालन के लिए विभिन्न स्रोतों से निधि उपलब्ध की अथवा करायी जाती है। ऐसे बहुतांश माध्यमों पर किसी भी प्रकार का नियन्त्रण प्राय: असम्भव है। इन माध्यमों के माध्यम से प्रसारित मुक्त सूचनाओं में केवल एकाङ्गिता, असन्तुलन ही नहीं, अपितु तथ्यात्मक असंगतता और नकारात्मकता भी होती है, परन्तु ये माध्यम अविश्वसनीय होने के बावजूद लोक प्रभावकारी सिद्ध होते हैं। यह भी स्पष्ट है कि मुक्त सूचनाओं का ऐसा मुक्त सञ्चार 'ओपिनियन मेकरÓ बन कर जनमानस को प्रभावित करता है। ऐसे में, जनमानस फिक्स्ड माइन्डसेट की स्थिति को ग्रहण कर अनास्थावाद से भर उठता है।
भारत में मुख्यधारा के मीडिया पर कुछ वर्षों से 'गोदी मीडियाÓ का आरोप लगा है, किन्तु समय-समय पर वह मिथ टूटता भी रहा है। आज मुक्त सूचनाओं के संचार के लिए नानाविध मार्ग खुले हुये हैं। मुक्त सूचनाओं के संचार के लिए सोशल मीडिया, न्यूज़ पोर्टल, यू-ट्यूब जैसे माध्यम प्रचुरता में प्रयोग में आ चुके हैं। ऐसे माध्यम सतत एक अनियन्त्रित व्यवस्था को जन्म देने का कार्य कर रहे हैं। ऐसे माध्यमों से प्रवाहित (प्रसारित) सूचनाओं में तथ्यात्मकता न होने के बावजूद उनसे एक प्रकार का सामाजिक दबाव निर्मित करने का प्रयास अनवरत होता है। प्राय: ऐसे दबावों से उन माध्यमों के सञ्चालनकर्ताओं के स्वार्थों की सिद्धि होती है, परन्तु उनसे जो अविश्वसनीयता जन्म लेती है, उससे समाज दिग्भ्रमित होकर खण्डित होता जाता है।
कुल मिलाकर, वर्तमान समय में जिसके पास सूचनाओं के मुक्त संचार के माध्यम और कथा-निर्माण के आधार उपलब्ध हैं, वह अपराजेय हो जाता है। वह मुक्त सूचनाओं के आधार पर एक वर्ग (?) को अपने पक्ष में एकजुट और अन्य (व्यक्ति, समूह अथवा दल) को गोलबन्द कर पराजित करने की क्षमता रखता है। वह एक ही समय में शोषित, उत्पीड़ित, नियन्ता और लाभार्थी भी होता है। ध्यान रहे कि ऐसे तत्व प्रथम दृष्टया सामाजिक दिखने के बावजूद प्रकृतित: असामाजिक होते हैं और सामाजिक दृष्टि से दीर्घकालीन अव्यवस्था उत्पन्न कर स्वयम्भू (निरंकुश) बन जाते हैं। वह संसाधनों पर एकाधिकार कर स्वयं मुख्यधारा बन जाते हैं, जिसमें अन्य का अस्तित्व तिरोहित ही हो जाता है। यह दैशिक ही नहीं, वैश्विक सत्य है।
(लेखक अखिल भारतीय राष्ट्रवादी लेखक संघ के संस्थापक हैं)
