'एसआईआर' पर बेआवाज विपक्ष

एसआईआर पर बेआवाज विपक्ष
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लोकसभा के शीतकालीन सत्र में एसआईआर यानी मतदाता सूची के शुद्धिकरण से जुड़ा अहम मुद्दा चर्चा में था। जिस उत्साह और तैयारी की विपक्ष से उम्मीद की जा रही थी, वह वहीं फिसलती नजर आई। बिहार चुनाव के दौरान ‘बोट चोरी’ का नारा बुलंद करने वाला विपक्ष, विशेषकर कांग्रेस, सदन में उसी मुद्दे पर बिखरा, बेजान और बेअसर दिखाई दिया।

चौंकाने वाली बात यह नहीं कि विपक्ष ने बहस की, बल्कि असली हैरानी इस बात की है कि जिस मुहिम को विपक्ष ने सड़कों पर लेकर गया, उसी पर सदन के भीतर उसकी आवाज लगभग सुनाई ही नहीं दी।

लोकसभा में एसआईआर पर बहस शुरू हुई तो उम्मीद थी कि राहुल गांधी, जो ‘बोट चोरी आरोप’ के प्रमुख ध्वजवाहक रहे हैं, मजबूत तथ्यों, तीखे सवालों और दमदार तर्कों से सरकार को घेरेंगे। लेकिन इसका उलटा हुआ। कुछ ही मिनटों का सपाट, तथ्यहीन और अंग्रेजी में दिया गया भाषण उनकी राजनीतिक लाइन की खोखलापन उजागर कर गया।

यह वही राहुल गांधी हैं, जिन्होंने पहले कई बहसों में निर्धारित समय से अधिक बोलने की परंपरा निभाई है, लेकिन अपने ही उठाए मुद्दे पर वे न तो समय ले पाए, न प्रभाव डाल पाए। हिन्दी में बोलकर व्यापक जनमानस तक संदेश पहुंचाने का अवसर भी उन्होंने स्वयं ही गंवा दिया। परिणामस्वरूप, विपक्ष का लंबे समय से फुलाया गया गुब्बारा पहले ही दिन बैठ गया।

इसके विपरीत, भाजपा ने निशिकांत दुबे जैसे तेजतर्रार नेता को जवाब में उतारकर न सिर्फ विपक्ष को चुनौती दी, बल्कि बहस का नैरेटिव भी पलट दिया। विपक्ष की तैयारी की पोल पूरी तरह खुल चुकी थी: न अध्ययन, न रणनीति और न ही ठोस तर्क। यह स्थिति लोकतांत्रिक बहस के लिए शुभ संकेत नहीं मानी जाएगी, क्योंकि संसद में विपक्ष की भूमिका ही सरकार की जवाबदेही तय करना है।

जब विपक्ष ही मुद्दे का भार संभालने की स्थिति में न हो, तो बहस रस्मी बन जाती है। दूसरी ओर, मतदाता सूची में शुद्धता और पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए सरकार के प्रयासों को विपक्ष अनावश्यक विवादों में बदलने की कोशिश करता रहा। जबकि हकीकत यह है कि मतदाता सूची की सफाई लोकतांत्रिक व्यवस्था की नींव को मजबूत करने वाला कदम है।

इसके ठीक विपरीत, जब दिल्ली की राउज एवेन्यू कोर्ट ने सोनिया गांधी को 1980 की मतदाता सूची में नाम जोड़वाने और 1983 में भारतीय नागरिकता हासिल करने के आरोपों के मामले में नोटिस जारी किया, तो विपक्ष की नैतिकता पर बड़ा सवाल खड़ा हो गया। यह आरोप नया नहीं है, लेकिन जिस कठोरता से विपक्ष ‘वोट चोरी’ का मुद्दा उठाता रहा, उसी नैतिक धरातल पर खड़े होकर वह अपनी शीर्ष नेता पर लगे गंभीर आरोपों पर मौन साध लेता है। इससे विपक्ष की विश्वसनीयता संदेह के घेरे में आती है।

अदालत ने पूर्व आदेशों की समीक्षा करते हुए नोटिस जारी किया है और यह दर्शाता है कि चुनावी प्रक्रिया की पवित्रता के मुद्दे पर न्यायपालिका भी गंभीर है। ऐसे में विपक्ष का नैतिक दायित्व था कि वह इस पर स्पष्ट और पारदर्शी जवाब देता, न कि पुरानी राजनीति की पीड़ित भूमिका में लौटता।

मतदाता सूची का शुद्धिकरण किसी पार्टी या विचारधारा का मुद्दा नहीं है, बल्कि लोकतंत्र के स्वास्थ्य का सवाल है। यदि सूची में फर्जी नाम हों, दोहराव हो या नागरिकता संबंधी नियमों का उल्लंघन हुआ हो, तो मताधिकार की गरिमा ही प्रभावित होती है। एसआईआर जैसे कदम इसी दिशा में आवश्यक सुधार प्रस्तुत करते हैं।

लेकिन जब विपक्ष बहस को गंभीरता से न ले, और खुद अपनी आचरण संबंधी कमजोरियों की जवाबदेही से बचता रहे, तो उसका ‘वोट चोरी’ का शोर केवल राजनीतिक नौटंकी बनकर रह जाता है।संसद देश की सर्वोच्च चर्चा-स्थली है। वहां हल्के भाषण, कमजोर तैयारी और राजनीतिक दिखावे की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। विपक्ष को समझना होगा कि लोकतंत्र में उसका कर्तव्य केवल नारे लगाने का नहीं, बल्कि तर्कसंगत, तथ्य-आधारित और जिम्मेदार बहस का है।

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