मानवतावादी व क्रांतिकारी कवि थे शिवमंगल सिंह सुमन

शिवकुमार शर्मा
जन-जन में क्रांतिकारी भाव भर देने वाले मानवता के पुजारी,सामूहिक चेतना के संरक्षक कवि डॉक्टर शिवमंगल सिंह सुमन का जन्म 5 अगस्त 1915 को नाग पंचमी के दिन उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के झगरपुर गांव में परिहार वंशीय ठा.वक्श सिंह के यहां हुआ था। बचपन में ही ग्वालियर चले आए थे। यहीं शिक्षा संपन्न हुई। क्रांतिकारियों से संपर्क हुआ, पढ़ाई बाधित हुई लेकिन रुके नहीं। काशी हिंदू विश्वविद्यालय से एमए.ए. और डी.फिल. किया।
वे प्रखर चिंतक, विचारक होने के साथ-साथ जन कल्याण के प्रति समर्पित शिक्षाविद थे। उज्जैन में माधव कॉलेज के प्राचार्य इसके बाद विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन के कुलपति रहे। कालिदास अकादमी के अध्यक्ष, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के उपाध्यक्ष तथा भारतीय विश्वविद्यालय संघ के अध्यक्ष पदों को भी विभूषित किया। उनके कविता संग्रह में हिल्लोल, जीवन के गान, युग का मोल, प्रलय सृजन , विश्वास बढ़ता ही गया, बिंध्य-हिमालय, मिट्टी की बारात, वाणी की व्यथा, कटे अंगूठों की बंदनवारें प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त गद्य रचनाओं में महादेवी की साधना, उद्यम और विकास गीति काव्य तथा प्रकृति पुरुष कालिदास नामक नाटक उनके द्वारा लिखा गया है।
प्रारंभ में उनका लेखन प्रेम करुणा और मन की कोमल भावनाओं से ओतप्रोत रहा। हिलोल प्रेम गीतों का संग्रह है। 'आंखें अभी भरीं नहींÓ कृति में मिलन की आकांक्षा सौंदर्य और प्रेम का मनोहारी चित्रण है। क्रांतिकारियों से संपर्क में आने के बाद उनकी विचारधारा में परिवर्तन घटित हुआ और उनकी लेखनी दीन हीन, पीड़ित, शोषित और वंचित वर्ग के समर्थन के लिए चल पड़ी।1942 में लिखी गई 'जीवन के गानÓ 1948 में रचित 'विश्वास बढ़ता ही गयाÓ तथा 1950 में सृजित कृति 'प्रलय सृजनÓ देश प्रेम और राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत कविताओं के संग्रह हैं, जिनमें क्रांतिकारी भाव व्याप्त हैं। पीड़ित मानवता के प्रति सहानुभूति और पूंजीवाद के प्रति रोष है।
1942 में रचित कृति 'जीवन के गानÓ की कविता 'वरदान मांगूंगा नहींÓ की अद्वितीय प्रेरक पंक्तियां स्वाभिमान की रक्षा के लिए मंत्रवत हैं।
उनकी कविता का एक-एक अक्षर, शब्द, छंद तथा एक एक बन्ध क्रांतिकारी साहित्यिक की अनुपम थाती है। उनका प्रधान स्वर मानवतावादी है। कविताओं में किसी प्रकार का बनावटीपन, अस्पष्टता और भाषा की दूरूहता नहीं है। कविता में नैसर्गिक रूप से क्रांतिकारी भावधारा प्रवाहित होती है। बच नहीं सकते लगाकर, कान में उंगली लगाकर। यह विषम ज्वाला जगाकर, ध्वंस होगा तख्न भू-लुण्ठित तुम्हारा ताज। सुन रहे हो क्रांति की आवाज।।
हम पंछी उन्मुक्त गगन के पिंजरबद्ध न गा पाएंगे ,
कनक तीलियों से टकराकर पुलकित पंख टूट जाएंगे। उनकी कविताओं और प्रसाद गुणों से युक्त होकर प्रगति वादी विचारों से शक्ति से शोषण मुक्त राष्ट्र बनाना चाहती है, यह उनकी प्रगतिवादी राष्ट्रीयता है। उनका चिंतन रूढ़िवाद, दकियानूसी मानसिकता तथा वर्ग विषमता का विरोध करके समाज में समानता स्थापित करने हेतु मार्गदर्शन करता है।
उनकी रचनाधर्मिता का सम्मान करने के लिए उन्हें अनेक पुरस्कार सम्मान और अलंकरण से विभूषित किया गया।
डॉ. शिवमंगल सिंह 'सुमनÓ को 1958 में देव पुरस्कार, 1973 में मिट्टी की बारात काव्य संग्रह पर साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1974 में पद्मश्री, 1974 में ही सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, 1993 में मध्य प्रदेश सरकार ने शिखर सम्मान और भारत भारती पुरस्कार से सम्मानित किया ।1999 में पद्म भूषण से सम्मानित किए गए। हिंदी की समृद्धि के लिए की गई अप्रतिम सेवा के लिए भारतवासी ऋणी हैं।उनके द्वारा सौंपी गई क्रांतिकारी रचनाओं की अक्षुण्ण थाती चिरकाल तक मानस पटल पर अंकित रहेंगी।
(लेखक महिला एवं बाल विकास विभाग में संयुक्त संचालक है)
