हिन्दवी स्वराज्य के स्वप्न दृष्टा शिवाजी

हमारे देश का इतिहास अत्यंत रोमांचकारी तथा सतत संघर्ष की गौरव गाथा है। लगभग 2300 वर्षो तक भारत विदेशी आक्रांताओं के बर्बर हमलों का शिकार होता रहा। इन दुघर्ष हमलों से अपनी अस्मिता को बचाने के लिए भारतमाता की कोख से हर कालखण्ड में ऐसे नर वीर पैदा होते रहे जिन्होंने देश की आन-बान-शान को दुनियां में जीवंत बनाये रखा। इतिहास में कुछ पल ऐसे होते है जो यादगार बन जाते है। कुछ तिथियाँ कुछ तारीखें ऐसी होती हैं जो समय की शिला पर अपने निशान छोड़ जाती है। ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी भारत के अतीत के पृष्ठों में सुवर्ण अक्षरों में अंकित ऐसा दिवस है जब 6 जून 1674 को विश्व में कहीं भी पहली बार हिन्दू पदपादशाही की स्थापना हुई थी। आज से 350 वर्ष पहिले सहयाद्रि पर्वत के शिवनेरी दुर्ग पर इसी तिथि को छत्रपति शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक हुआ था। लेकिन यह किसी राजा का राजतिलक नहीं था। यह राज तिलक था उस शौर्य का जिसने मुगलिया सल्तनत को समरांगण में कतरा-कतरा बिखेर दिया था। यह अभिनंदन था उस सुप्त चेतना का जिसके बज्र संकल्पों से टकराकर बड़ी-बड़ी राक्षसी ताकतें धराशायी होती रही। यह वंदन था उस विजय वाहिनी का जिसने स्वतंत्रता-स्वराज्य के लिए तोपों के आगे अपने सीने अड़ा दिये। यह राजतिलक था उस सनातन सत्ता प्रतिष्ठान का जिसकी एक मुठभेड़ में आततायी घनानंदों के सर से ताज आसमान में टूट टूटकर बिखर गये। शिवाजी महाराज छत्रपति हो गये। यह उत्सव का दिन है, यह प्रेरणा देने वाला क्षण है।
17वी शताब्दी का आरंभ हो रहा था। हिन्दुस्थान का मानचित्र खण्ड-खण्ड बिखर रहा था। दक्षिण में आदिलशाही, निजामशाही, कुतुबशाही के जोर-जुल्म-ज्यादतियों से जनता असहनीय पीड़ा झेल रही थी वहंी उत्तर में मुगल वादशाह शाहजहां की मौज- मस्तियों से हिन्दू समाज में आक्रोश पैदा हो रहा था। अत्याचारों का कभी न रुकने वाला अंतहीन सिलसिला प्रारंभ हो गया था। हिन्दुओं के मठ-मंदिरों, आस्था के केन्द्रों को जमीदोज किया जा रहा था। भारत के महान ग्रंथों को आग के हवाले किया जा रहा था। यह वही समय था जब भारत के भविष्य और सनातन धर्म को गंभीर चुनौती मिल रही थी। बड़े-बड़े कथित रायबहादुर खिताबों के लिए मुगलिया सम्राटों के चरण चुम्बन कर रहे थे। छोटे से इनाम के लिए ईमान बिक रहा था। चंद कौड़ियों के लिए मुसलमान बनने की होड़ लगी थी। इतिहासकार उस काल खण्ड का वर्णन करते हुए लिखते है यहाँ का समाज यहाँ का धर्म आक्रांताओं के पैरों तले कुचला हुआ था। यही समय था जब सम्पूर्ण देश में एक शब्दावली प्रचलित थी ''दिल्लीश्वरो वा जगदीश्वरो वाÓÓ अर्थात् दिल्ली में बैठा हुआ सुल्तान वह हमारे लिए ईश्वर के समान है ऐसी दीन-हीन अवस्था अपने समाज की हो गई थी। ऐसी विपरीत परिस्थिति में जीजामाता के गर्भ से ऐसे महापुरुष का जन्म हुआ जिसे यह संसार छत्रपति शिवाजी के नाम से जानता है, उनका आदर पूर्वक स्मरण करता है।
छत्रपति शिवाजी कहते थे कि राष्ट्र किसी राजा की सम्पत्ति नहीं है। वह खजाना तो जनता का है जनता के कल्याण के लिए है। शिवाजी ने अपने हिंदवी साम्राज्य में अंसख्य मंदिर, बाबड़ी, कूप बनवाये जिससे धर्म और धरतीमाता दोनों समृद्ध रह सकें। शिवाजी महाराज का शासन आधुनिक भारत के रामराज्य का सबसे बड़ा उदाहरण है। स्वदेश, स्वधर्म, स्वदेशी और स्वभाषा के लिए जो प्रयास भूतकाल में शिवाजी ने किये वह उनकी भारत भक्ति और सनातन के प्रति गहरी आस्था का जीवंत प्रमाण है। शिवाजी के जीवन का एक महत्वपूर्ण पहलू है कि उनका व्यक्तिगत और राष्ट्रीय चरित्र वेदाग है। वे साहसी रहे हैं, दृढ़ता के साथ आगे बढ़े हैं। सभी प्रकार की परिस्थितियों को मात करते हुए निरंतर विजयी हुए हैं। उन्होने हमेशा जीतने के लिए युद्ध लड़े है। इसका कारण खोजेंगे तो इसके मूल में शिवाजी का नि:स्वार्थ जीवन है। इसलिए उनके जीवन का वर्णन करते हुए उन्हें योगी कहा गया है। वे श्रीमंत योगी हैं, इसलिए क्योकि वह धर्म के लिए लड़े हैं। इनका सम्पूर्ण जीवन देश, समाज तथा हिन्दू के लिए समर्पित रहा है-
है विघ्न कौन ऐसा जग में,
टिक सके वीर नर के मग में,
खम ठोक ठेलता है जब नर,
पर्वत के जाते पाँव उखड़,
मानव जब जोर लगाता है,
पत्थर पानी बन जाता है।
शिवाजी के द्वारा शासन की बागडोर सम्हालने के पहिले सारा कारोबार फारसी और उर्दू में चलता था। शिवाजी मानते थे जब तक स्वभाषा का जागरण नहीं होता तब तक देश भक्ति का जागरण सम्भव नहीं है। स्वभाषा में काम-काज के लिए शिवाजी ने विद्वानों की एक समिति बनाई और राज्य व्यवहार से सम्बन्धित उर्दू, फारसी शब्दों के लिए संस्कृत में शब्द खोजे गये और सम्पूर्ण मराठा साम्राज्य में स्वभाषा में कार्य व्यवहार प्रारंभ हो गया। यह शिवाजी महाराज का स्वभाषा के प्रति अगाध प्रेम को दर्शाता है। शिवाजी महाराज ने जोर-जुल्म से धर्मान्तरित हिंदुओं की घर वापसी का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होने धोखे से, लालच से बल पूर्वक अहिंदू बने हुए लोगों का शुद्धीकरण कराया। नेताजी पालकर अच्छे सेनापति थे औरंगजेब की सेवा में रहते थे उन्हें वापस हिंदू बनाने का कार्य शिवाजी ने किया था। बजाजी राव निंवालकर जो स्त्री मोह में मतांतरित हो गये थे शिवाजी महाराज के प्रयासों से उनकी भी घर वापसी हुई।
शिवा के राज्याभिषेक का जब समय आता है तब वे राजा बनने से इन्कार कर देते है। आज की परिस्थियों को देखेंगे तो कौन राजा बनने के लिए तैयार नहीं होगा। काशी से आये पंडित गागाभट्ट ने शिवाजी से आग्रह किया आज देशभर में हिंदू राजा की बड़ी आवश्यकता है। तब शिवाजी गागाभट्ट के आग्रह पर राज्याभिषेक के लिए तैयार हो गये थे। परन्तु उन्होने यह कभी नहीं कहा कि यह मेरा राज्याभिषेक हो रहा है। वे कहते थे कि यह भवानी माता की इच्छा है कि मैं राजा बनू। शिवाजी महाराज ने कभी भी स्वयं को सिंहासन से ऊँचा नहीं माना।
राज्याभिषेक के बाद शिवाजी महाराज ने एक राष्ट्रीय दृष्टिकोण अपने सामने रखा है। इस सम्बंध में शिवाजी का मिर्जाराजे को लिखा गया पत्र पढ़ने लायक है। वह पत्र में लिखते है मिर्जाराजे, आप युद्ध के लिए क्यों आ रहे हो। आपको अपने साम्राज्य विस्तार के लिए युद्ध की आवश्यकता नहीं है। मैं स्वेच्छा से अपना राज्य तुम्हारे चरणों में समर्पित करने के लिए तैयार हूँ लेकिन आप मुगलों के साम्राज्य विस्तार के लिए आए हो इसलिए मेरी भवानी तलवार आपसे युद्ध करने के लिए तैयार है। इस प्रकार शिवाजी ने अपने राष्ट्रीय दृष्टिकोण को स्पष्टता के साथ रखा है।
छत्रपति शिवाजी को समझने की कोशिश करेंगे तो पचास साल की आयु और पूरे जीवनभर संघर्ष यही कुछ उनके जीवन में दिखाई देता है। वे राजा हैं, उन्होंने जीवनभर युद्ध लड़े हैं। अपने पुरुषार्थ-पराक्रम से गये हुए किलों को वापस किया है। शत्रुओं को खदेड़ा है परन्तु यह करते समय उनके जीवन में कोई व्यक्तिगत आकांक्षा नहीं है। आकांक्षा बस इतनी है कि यह हिंदवी स्वराज्य सुरक्षित रहना चाहिए। इसके लिए जो-जो करना पड़ेगा करते चलेंगे। उन्होंने सामान्यजनों में विश्वास जगाने का प्रयास किया था। उन्होंने जो आदेश दिये है वास्तव में वह अध्ययन के लायक है। उन्होंने महिला सुरक्षा को हर कीमत पर सुनिश्चित करने का फरमान सुनाया है। वे किसान कल्याण और उनकी खुशहाली के लिए योजनाएँ बनाते है उनकी न्याय व्यवस्था बड़ी प्रसिद्ध रही है। मठ, मंदिर, साधु, संत, महंत सुरक्षित रहे इसके लिए वे मंत्रिमण्डल में अष्टप्रधान की व्यवस्था करते हैं।
अंतत: यहां का हिन्दू समाज अधर्मी, आसुरी शक्तियों के सामने आत्म विश्वास पूर्वक डटकर खड़ा रह सके। दुनिया का दिशाबोध करने वाला समाज चाहिए तो ऐसे महापुरुषों का जीवन हम सभी के लिए प्रेरणादायी बन सकता है। आज जब देश को अंदर और बाहर से चुनौतियां मिल रही हैं तब शिवाजी के जीवनकाल का संदेश हमारा मार्ग प्रशस्त करेगा ही। मित्रो! समाधियां उन्हीं की महकती है जो अहं के लिए नहीं वयं और विराट की सेवा में खप जाते हैं, खर्च हो जाते हैं। सच में, वे ही इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ है जिसका एक-एक शब्द वंदन-अर्चन के योग्य है। शिवशाही का संदेश यही है- प्रेरणा शहीदों से अगर हम नहीं लेंगे, तो स्वतंत्रता ढलती हुई सांझ हो जायेगी। पूजा वीरों की यदि हम नहीं करेंगे, तो सच मानो बसुन्धरा बांझ हो जायेगी।
(लेखक सरस्वती विद्या प्रतिष्ठान, मध्यप्रदेश के प्रादेशिक सचिव हैं)
