शेख हसीनाः भारत कूटनीतिक तरीके से निकाले समाधान

शेख हसीनाः भारत कूटनीतिक तरीके से निकाले समाधान
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नई दिल्ली और ढाका ने हाल के महीनों में अपने आपसी रिश्तों को बिगाड़ने वाले अन्य मुद्दों को सुलझाने के संकेत दिए हैं, लेकिन भारत से शेख हसीना को प्रत्यर्पित करने की बांग्लादेश की मांग का मसला जटिल बना हुआ है और कोई भी पक्ष इस पर टस-से-मस होने को राजी नहीं है।

दिसंबर में, भारत के विदेश सचिव विक्रम मिसी अपनी ढाका यात्रा के दौरान यह स्पष्ट करने में सफल रहे कि भारत एक मित्रवत देश बना हुआ है। उन्होंने व्यापार, ऊर्जा, बुनियादी ढांचे और कनेक्टिविटी के मामलों में रिश्तों की निरंतरता की भी पुष्टि की। ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों पक्षों ने सीमा पर स्थिति को भी शांत कर लिया है।

सरकार ने एक संसदीय समिति को संकेत दिया कि जहां शेख हसीना भारत की मेहमान के रूप में दिल्ली में हैं, वहीं यूनुस सरकार द्वारा उनके खिलाफ राजनीतिक बयानबाजी और संदेशों का भारत से कोई लेना-देना नहीं है।

हालांकि, पिछले हफ्ते हालात में बदलाव आया, क्योंकि बांग्लादेश ने नई दिल्ली को एक 'नोट वर्बल' या राजनयिक संदेश भेजकर उन मामलों के लिए मुकदमों का सामना करने के उद्देश्य से शेख हसीना के प्रत्यर्पण की मांग की, जिनमें भ्रष्टाचार और ढाका स्थित अंतर्राष्ट्रीय अपराध न्यायाधिकरण द्वारा छात्रों पर पुलिस कार्रवाई के आदेश देने जैसे 'मानवता के खिलाफ अपराधों' के आरोप शामिल हैं।

वर्ष 2013 की भारत-बांग्लादेश प्रत्यर्पण संधि, जिसे 2016 में संशोधित किया गया, में प्रक्रियाओं के तरीके स्पष्ट रूप से निर्धारित हैं। इसके तहत बांग्लादेश को भारत को और अधिक औपचारिक अनुरोध भेजकर प्रक्रिया आगे बढ़ानी होगी। नोट वर्बल का मकसद घरेलू राजनीतिक समर्थकों को शांत करना प्रतीत होता है, लेकिन भारत का इसे पूरी तरह खारिज न करने वाला रवैया स्थिति को तनावपूर्ण बनाए बिना समाधान का एक उपाय दिखता है।

इस अनुरोध की वैधता लंबी बातचीत का विषय हो सकती है, लेकिन यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि भारत और बांग्लादेश के रिश्ते इस मुद्दे के बंधक न बनें। यूनुस सरकार को यह समझना चाहिए कि शेख हसीना और उनके परिवार के साथ भारत के संबंधों का इतिहास बांग्लादेश की मुक्ति के लिए दोनों देशों द्वारा किए गए बलिदानों से जुड़ा है। वर्ष 1975 में उनके पिता शेख मुजीबुर रहमान और उनके परिवार के सदस्यों की हत्या तथा भारत में उनके निर्वासन ने इस रिश्ते को मजबूत किया।

यह उम्मीद करना अनुचित है कि भारत शेख हसीना को आसानी से सौंप देगा, खासकर जब उन्होंने भारत से शरण मांगी है और कोई भी दबाव भारत सरकार को ऐसा करने के लिए मजबूर नहीं कर सकता। उदाहरण के लिए, 1959 में दलाई लामा को शरण देने का फैसला चीन के दबाव के बावजूद नहीं बदला गया।

इसके अलावा, शेख हसीना को कानून के घेरे में लाना अंतरिम शासन का दायित्व नहीं है; यह काम बांग्लादेश की विधिवत निर्वाचित सरकार द्वारा ही आगे बढ़ाया जाना चाहिए।

दिल्ली में यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि शेख हसीना की सरकार के कार्यों ने देश को आहत किया है। तथ्य यह है कि वह भारत की धरती से आसानी से राजनीतिक बयान दे रही हैं, जिससे रिश्तों में कड़वाहट आ सकती है। नई दिल्ली को इस संदर्भ में नफा-नुकसान का पूरा आकलन करना चाहिए कि ये बयान उसके लिए कितने उपयोगी हैं।

सीमा पर तनाव और भू-राजनीतिक उथल-पुथल के मद्देनजर, दोनों देशों को इस मसले को कूटनीतिक तरीके से निपटाना चाहिए, खासकर अपने महत्वपूर्ण रिश्तों के अन्य पहलुओं को अलग रखते हुए।

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