क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त: स्वतंत्रता के बाद भी वर्षों किया संघर्ष

क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त: स्वतंत्रता के बाद भी वर्षों किया संघर्ष
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पुण्यतिथि पर विशेष

रमेश शर्मा

भारतीय इतिहास में कुछ ऐसे प्रसंग हैं जिन्हें पढ़कर आँखे झुकती हैं । जिन लोंगो ने हमें स्वतंत्र बनाने के लिये अपना जीवन न्योछावर किया, अंग्रेजों की अमानवीय यातनाएं सहीं उनके साथ स्वतंत्रता के बाद भी कैसा व्यवहार हुआ । इनमें से एक हैं सुप्रसिद्ध क्रान्ति कारी बटुकेश्वर दत्त। सुप्रसिद्ध क्राँतिकारी बटुकेश्वर दत्त का जन्म 18 नवम्बर 1910 को बंगाल के वर्धमान जिले में हुआ। बचपन से उनमें राष्ट्र और संस्कृति के लिये प्रेम था यह भाव उनको पारिवारिक विरासत में मिला। पिता बिहारी दत्त समाज सेवा से जुड़े थे और माता कामिनी देवी अपनी परंपराओं से जुड़ीं घरेलू महिला थीं। वे जब हाई स्कूल में पढ़ाई कर रहे थे तभी इनका संपर्क क्राँतिकारी गतिविधियों से जुड़े सुरेंद्रनाथ पांडे और विजय कुमार सिन्हा से हुआ। और वे क्राँतिकारी गतिविधियों से जुड़ गये।

भगत सिंह से संपर्क और मित्रता

उन दिनों कानपुर क्रान्ति का एक प्रमुख केन्द्र था और समाचार पत्र 'प्रतापÓ इन क्राँतिकारियों का संपर्क केन्द्र था। समय के साथ बटुकेश्वर दत्त का संपर्क प्रताप के संपादक सुरेशचंद्र भट्टाचार्य से बना और उनके माध्यम से वे हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़े और यहीं उनकी मित्रता सुप्रसिद्ध क्राँतिकारी भगत सिंह से हुई। और 1924 में चंद्रशेखर आजाद से मिले। काकोरी कांड के बाद हुई गिरफ्तारियों के चलते क्राँतिकारी कानपुर से यहाँ वहाँ गये। बटुकेश्वर दत्त पहले बिहार गए और फिर कलकत्ता गये। 1927 में हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का नाम बदलकर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोशिएशन रखा गया। एसोसिएशन ने बटुकेश्वर दत्त को बम बनाने का प्रशिक्षण दिया। उस दौर के क्राँतिकारी आँदोलन में अधिकांश बम या तो बटुकेश्वर दत्त के बनाये होते थे अथवा उनके द्वारा प्रशिक्षित युवाओं द्वारा। 1929 में हुये असेम्बली बम कांड में वे सरदार भगतसिंह के साथ बंदी बनाये गये। भगतसिंह को फाँसी की सजा हुई और बटुकेश्वर को उम्रकैद। उम्रकैद की सजा के लिये उन्हें पहले कालापानी भेजा गया। फिर हजारीबाग, दिल्ली और बांकीपुर जेल। जेल में उन्हें कू्ररतम प्रताड़ना मिली जिससे उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। इस कारण 1938 में रिहा कर दिये गये। इस शर्त पर कि वो किसी भी प्रकार की राजनीतिक गतिविधि में भाग नहीं लेंगे। बटुकेश्वर दत्त ने यह लिखकर तो दिया पर जेल से रिहा होकर गांधीजी के अहिसंक आँदोलन से जुड़ गये और 1942 बंदी बनाये गये। आँदोलन समाप्त होने के बाद सभी आँदोलन कारी रिहा हुये पर बटुकेश्वर दत्त को रिहाई नहीं मिली वे 1945 में रिहा हुये। स्वतंत्रता के बाद उन्होंने विवाह किया और पटना आ गये। यहाँ उन्होंने आजीविका के लिये कठोर संघर्ष किया। कभी गाइड बने और कभी सिगरेट कंपनी के एजेंट। यही नहीं कलेक्टर ने उनसे स्वाधीनता संग्राम सेनानी होने का प्रमाणपत्र भी माँगा। 1958 में पहली बार उन्हें सम्मान मिला और वे विधान परिषद के सदस्य मनोनीत किये पर जल्दी ही बीमारी ने उन्हें जकड़ लिया। इलाज के लिये बिहार से दिल्ली लाया गया । पर बीमारी ने पीछा न छोड़ा और 20 जुलाई 1965 को उन्होंने अपने जीवन की अंतिम सांस ली। शत-शत नमन्। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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