संभव है असली नुमाइंदगी का दौर
हरीशचन्द्र श्रीवास्तव
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अक्सर ये बातें कही जाती हैं कि चुनावों में 20 से 30 प्रतिशत मत लेकर उ मीदवार विजयी हो जाते हैं और वे उस 70 प्रतिशत जनता के भी नेता बन बैठते हैं, जिन्होंने उन्हें वोट दिया ही नहीं। भारतीय लोकतंत्र में बहुदलीय व्यवस्था है, न कि अमरीका या यूरोप के देशों की तरह द्विदलीय प्रणाली। चुनाव आयोग में पंजीकृत राजनीतिक दलों की सं या 465 है, जबकि 7 राष्ट्रीय दल, 60 से अधिक क्षेत्रीय दल एवं 54 से अधिक गैर मान्यता प्राप्त पंजीकृत दल हैं। निर्दलीय भी चुनाव में प्रत्याशी हो सकते हैं। ऐसे में विधानसभा व लोकसभा के चुनावों में एक—एक क्षेत्र में उ मीदवारों की सं या कभी—कभी 40—50 तक पहुंच जाती है। राष्ट्रीय दलों व क्षेत्रीय दलों का अपना-अपना जनाधार अर्थात ठोस मतदाता होते हैं। ऐसे में किसी भी प्रत्याशी के लिये 50 या इससे अधिक मत प्राप्त करना टेढ़ी खीर है। किंतु इस विषय का एक दूसरा पहलू भी है कि क्या किसी उ मीदवार के लिये 50 प्रतिशत मत प्राप्त करना असंभव है। इसका जवाब हां नहीं हो सकता, क्योंकि कई नेताओं ने कुल मतों का आधे से अधिक प्राप्त कर अपने प्रतिद्वंद्वियों को हराया है। जयपुर से स्वतंत्र पार्टी की उ मीदवार महारानी गायत्री देवी ने 1962 व 1967 के आम चुनाव में क्रमश: 77.08 व 64.01 प्रतिशत मत प्राप्त किये। 2004 में पश्चिम बंगाल के आरामबाग लोकसभा क्षेत्र से माक्र्सवादी क युनिस्ट पार्टी के अनिल बसु को 77.16 प्रतिशत मत मिले थे। इसी श्रेणी में काकिनाडा से एमएस संजीव राव (1971), रामविलास पासवान, संतोष मोहन देव, द्रमुक के एनवीएन सोमू, गुजरात के राजकोट के बल्लभभाई रामजीभाई, नागालैंड के के.ए. संथम, नगा पीपुल्स पार्टी के सीएम चांग आदि का नाम आता है। 1977 के चुनाव में राज नारायण ने 53.51 प्रतिशत वोट प्राप्त कर इंदिरा गांधी को हराया था और जनता दल से लड़े अनिल शास्त्री को 1989 के चुनाव में बनारस से 62.31 प्रतिशत मत मिले थे, जबकि अमेठी से जनता पार्टी के रविंद्र सिंह ने 60.47 प्रतिशत मतों के साथ कांग्रेस के संजय गांधी को पराजित किया था। 50 प्रतिशत से अधिक वोट पाकर प्रतिद्वंद्वी को चित्त करने वाले इन सारे नामों में एक बात सामान्य है कि इनकी राजनीति का आधार पारिवारिक पृष्ठभूमि न होकर, स्वयं जनता के बीच किये गये संघर्ष का परिणाम था। लेकिन ऐसा बहुत कम हुआ, इन्हें अपवादिक स्थिति कही जाएगी।
इसके बाद वर्ष 2014 में भारतीय मतदाताओं की रुचि व रूझान दोनों ने करवट ली और एक अलग तरह की धारा बही। नरेंद्र मोदी बनारस लोकसभा क्षेत्र से 56.37 प्रतिशत और वडोदरा से 72.75 प्रतिशत मत पाकर विजयी हुये। साथ ही गुजरात, उत्तराखंड और हिमाचल में भारतीय जनता पार्टी के सभी उ मीदवार 50 प्रतिशत से अधिक मत पाकर जीते, जबकि सीटों की सं या के लिहाज से देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में 41 प्रतिशत सीटों पर उ मीदवारों ने 50 प्रतिशत से अधिक मत प्राप्त कर प्रतिद्वंद्वियों को धूल चटाई। 2014 के लोकसभा चुनाव में 206 विजयी प्रत्याशी ऐसे रहे, जिन्हें 50 प्रतिशत से अधिक मत मिले और खास बात यह रही कि इनमें से 70 प्रतिशत से अधिक उ मीदवार भारतीय जनता पार्टी के थे।
इस तरह यह कहा जा सकता है कि मतदाताओं में चुनाव को लेकर जागरूकता आयी है और वे अपना मतदान निश्चित व स्पष्ट दृष्टि के साथ करते हैं। इसलिए अल्पमतों के साथ प्रतिनिधित्व करने का राग अप्रासंगिक होता जा रहा है। इसके कारणों की समीक्षा की जाए तो कई बातें निकल कर आती हैं। 2014 के चुनाव में नरेंद्र मोदी जनसंवाद और मतदाताओं के साथ अंतर्संवाद की शैली से लोगों के बीच गये और आम नागरिकों के मन में राजनीति व राजनेताओं के प्रति दशकों से बैठी उदासीनता को समाप्त कर पाने में बहुत हद तक सफलता हासिल की। चुनाव प्रचार के दौरान मोदी द्वारा जनता से खुद को प्रधानसेवक बनाने की अपील से जनता में यह संदेश गया कि राजनेता विशिष्ट व्यक्ति नहीं, बल्कि वह होता है, जो उनके बीच का और उनके लिये हो, जिससे वे अपनी आकांक्षाएं, अपेक्षाएं, आवश्यकताएं कह सकें। इसके अतिरिक्त सोशल मीडिया के प्रादुर्भाव व संचार साधनों के आगमन होने से जनता को राजनेताओं से सवाल पूछने, अंतर्संवाद करने और शिकायत प्रकट करने का हथियार भी मिला। इन सबका प्रभाव यह हुआ कि राजनीति में गैर—राजनीतिक व्यक्तियों व आम जनता की रुचि बढ़ी और किसी दल या नेता के प्रति धारणा अपने आंकलन एवं विश्लेषण पर करने लगा और भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) को न केवल स्पष्ट बहुमत दिया, बल्कि करीब 38 प्रतिशत उ मीदवारों को 50 प्रतिशत से अधिक मतों से जिताया।
इधर सरकार बनने के बाद मोदी सरकार ने सुलभ व सस्ता इंटरनेट एवं मोबाइल आदि के माध्यम से डिजिटल भारत के अभियान को गांव—गांव पहुंचाया है। एक ओर सरकार अपने कार्यक्रमों, नीतियों व योजनाओं का लाभ सीधे जनता तक पहुंचा रही है और अपने पांच साल के कामकाज एवं पार्टी की गतिविधियों व विचारों को भी आम लोगों तक पहुंचाने के लिए डिजिटल प्लेटफार्मों का आक्रामक उपयोग कर रही है तो दूसरी तरफ विपक्षी दल भी इसमें पीछे नहीं रहना चाहते हैं।
यह सच है कि जब समाज में मतदाताओं के पास सूचना का आदान—प्रदान, सूचना तक पहुंच होगी तो वह उ मीदवार या दल के पक्ष अथवा विपक्ष पर विचार कर अपना निर्णय देगा। डिजिटल इंडिया और संचार क्रांति के कारण मतदाताओं के पास सरकार, पार्टी व उ मीदवार के विषय में जानकारी इक_ा करने के साथ अपना हित व अहित सोचकर मतदान के दिन निर्णय लेने की संभावना और बढ़ चुकी है। ऐसे में संभव है कि इस बार के चुनाव में जनता अपना निर्णय जब सुनायेगी तो किसी दल व उ मीदवारों को सरकार बनाने के लिये 50 प्रतिशत से अधिक मत देकर भारतीय राजनीति में आये इस सकारात्मक बदलाव की धारा का प्रवाह और तीव्र करेगी।
(लेखक सामाजिक व राजनीतिक विश्लेषक हैं)
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