पवार परिवार की बगावत के राजनीतिक संदेश

पवार परिवार की बगावत के राजनीतिक संदेश
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उमेश चतुर्वेदी

इतिहास खुद को दुहराता है, यह कहावत हम सबने अपनी जिंदगी में कई बार सुनी होगी, लेकिन बहुत कम लोगों ने ऐसा होते देखा होगा। महाराष्ट्र में जो कुछ हुआ, वह इतिहास का दोहराव ही है। 1978 में बसंत दादा पाटिल को जिस अंदाज में शरद पवार ने धोखा दिया, कुछ उसी अंदाज में उनके सबसे बड़े भतीजे और एक दौर तक उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी समझे जाते रहे अजित पवार ने उन्हें चकमा दिया है। दिलचस्प यह है कि जिस दिन शरद पवार ने अपने गुरू सरीखे बसंत दादा पाटिल की सरकार उलट दी थी,उसके ठीक पहले की रात मुख्यमंत्री निवास में पाटिल के साथ उन्होंने खाना खाया था। भोजन के बाद लौटते वक्त शरद पवार ने उनसे माफी भी मांगी थी, तब बसंत दादा पाटिल ने उस माफी को एक हद तक मजाक ही समझा था। साफ है कि बसंत दादा पाटिल को अंदेशा भी नहीं था कि जिसे युवा मंत्री के तौर पर वे आगे बढ़ा रहे हैं, वह सच बोल रहा है। कुछ इसी तरह अजित पवार की चाल को शरद पवार भांप नहीं पाए।

लेकिन सवाल यह है कि अजित पवार अपने इस कदम के बाद राजनीति में वैसा ही शिखर छू सकेंगे, जैसा शरद पवार ने बसंत दादा पाटिल को धोखा देने के बाद छुआ? सवाल यह भी है कि सोनिया गांधी के विदेशी मूल के सवाल पर कांग्रेस से अलग होकर शरद पवार ने जिस राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को महत्वपूर्ण दल बनाया, क्या अजित पवार उस पर कब्जा बरकरार रख पाएंगे? सवाल यह भी है कि मराठवाड़ा और खानदेश में शरद पवार के चलते जिस राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की सियासी नींव ताकतवर बनी रही, वहां अब भी पार्टी की घड़ी टिक-टिक आगे बढ़ती रहेगी? सवाल यह भी है कि जिस अजित पवार को सिंचाई घोटाले का अहम अपराधी भारतीय जनता पार्टी मानती रही है, उसके साथ आने के बाद उनका घोटाला भुला दिया जाएगा।

राजनीति के साथ एक दिक्कत यह है कि वह तत्कालिक सवालों से ही ज्यादा जूझती है, उन्हीं के इर्द-गिर्द अपने कदम बढ़ाती है। वह दीर्घकालिक प्रभावों को अपनी जल्दीबाजी वाले स्वभाव के चलते भुलाती रहती है। पत्रकारिता भले ही जल्दीबाजी का साहित्य हो,लेकिन उसकी भूमिका दीर्घकालिक सवालों से जूझना और दूरंदेशी प्रभावों पर नजर रखना है। लेकिन दुर्भाग्यवश अब पत्रकारिता भी राजनीति की जल्दीबाजी के स्वभाव से इतना प्रभावित हो गई है कि वह तुरंता नतीजों पर भरोसा करती है, फास्टफूड या यूं कहें कि सत्तू खाने के अंदाज में हर घटना का मुआयना और आकलन करने लगी है।

अजित की तकरीबन सफल बगावत के बाद शरद पवार को शुरूआती झटका जरूर लगा। जब अजित ने देवेंद्र फडणवीस से हाथ मिला लिया, तब शरद पवार पुणे के अपने घर में थे। बदले घटनाक्रम के बाद उनसे मिलने उनकी बेटी और एनसीपी की नवेली कार्यकारी अध्यक्ष सुप्रिया सुले पुणे गईं। शरद पवार को अंदाजा हो गया था कि इस बार वे अजित और उनके गु्रप को बांध नहीं सकेंगे, अजित पर ना तो पारिवारिक और ना ही उनका राजनीतिक दबाव काम आने वाला है, लिहाजा बुजुर्ग पवार ने पुणे में ही रहना उचित समझा। मुंबई जाकर अपनी भद्द पिटवानी उन्हें ठीक नहीं लगा। इसका मतलब साफ है कि फिलहाल अजित का एनसीपी पर कब्जा हो गया है। चूंकि राजनीति में कई बार लड़ाइयां सिर्फ अपना अस्तित्व बचाने के लिए नहीं होतीं, बल्कि अपने वोटरों और समर्थकों की नजर में सक्रिय बने रहने के लिए भी होती हैं। शरद पवार की लोगों से अपील कि सांप्रदायिकता बढ़ाने वाली ताकतों को हराएं, एक तरह से ऐसी ही लड़ाई का प्रतीक है। शरद पवार के शब्दों से लग रहा था कि अब वे खुद को थका महसूस कर रहे हैं। चूंकि उनकी उम्र 82 साल हो चुकी है। जाहिर है कि बढ़ती उम्र का उन पर असर भी है। उनकी बेटी सुप्रिया सुले का ना तो चमत्कारिक व्यक्तित्व है और ना ही संगठन में गहरी पकड़, लिहाजा एक तरह से एनसीपी में शरद पवार का हाल कुछ-कुछ वैसा ही होता नजर आ रहा है, जैसा शिवसेना को लेकर उद्धव ठाकरे का हुआ है।

भारतीय जनता पार्टी पिछले दो लोकसभा और दो विधानसभा चुनावों से खुद के दम पर महाराष्ट्र में आगे बढ़ने की कोशिश कर रही है। लेकिन वह चाहकर भी ऐसा नहीं कर पा रही है। जिस राज्य में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई, जिस राज्य की राजधानी में जनसंघ के आधुनिक रूप भारतीय जनता पार्टी का पहला अधिवेशन हुआ, उस राज्य में भाजपा अपने दम पर बहुमत हासिल करने लायक नहीं बन पाई, तो उसे चिंता होनी ही चाहिए। इसलिए उसकी मौजूदा कोशिश और अजित पवार को साथ लाने को इस संदर्भ में भी देखा और समझा जाना चाहिए।

भारतीय जनता पार्टी पिछले दो लोकसभा और दो विधानसभा चुनावों में सारे घोड़े खोलने के बावजूद मराठवाड़ा में अपनी बड़ी उपस्थिति नहीं दर्ज करा पा रही है। मराठवाड़ा और खानदेश में अब वह अजित पवार के बहाने पैठ बनाने की कोशिश करेगी। एक तथ्य और ध्यान दिया जाना चाहिए। भारतीय जनता पार्टी के साथ जो भी दल आए, अपने सांगठनिक कौशल के चलते वह उन पर प्रकारांतर में हावी होती चली गई। शिवसेना, नीतीश कुमार और बीजू जनता दल इसके अपवाद रहे। लेकिन अब नीतीश कुमार का प्रभाव भी छीज रहा है, शिवसेना का हाल किसी से छुपा नहीं है। इन संदर्भों में यह मान लेना अनुचित नहीं होगा कि अजित पवार की एनसीपी के जरिए भाजपा महाराष्ट्र के उन इलाकों में पहुंचने की कोशिश करेगी, जिन इलाकों में एनसीपी का प्रभाव रहा है। चूंकि उसके पास अपना कैडर है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसा संगठित और अनुशासित संगठन है, इसलिए उसके बाजी मारने की संभावना ज्यादा है। हां, एक बात और है। भारतीय जनता पार्टी की राज्य की वरिष्ठ नेता पंकजा मुंडे को साधना आसान नहीं होगा। वैसे पंकजा और देवेंद्र फडणवीस के बीच आपस में बनती नहीं। फिर पिछला चुनाव वे अपने जिस चचेरे भाई धनंजय मूंडे के हाथों हारीं, वह अजित पवार के साथ एकनाथ शिंदे मंत्रिमंडल में शामिल हो गए हैं। जाहिर है कि पंकजा को यह नया समीकरण रास नहीं आ रहा होगा। अगर भाजपा ने उन्हें मना लिया, तो ठीक, अन्यथा वे अपनी राह भी चुन सकती हैं। अतीत में अपनी नाखुशी को वे सार्वजनिक तौर पर जाहिर कर भी चुकी हैं।

पवार परिवार में दोहराये जाते इतिहास की बुनियाद पर महाराष्ट्र की राजनीति में भारतीय जनता पार्टी की नई भूमिका दिख रही है। वह पहले की तुलना में कुछ एक ब्रेक के बाद ज्यादा मजबूत होगी। जिस कांग्रेस को शरद पवार अतीत में कई झटके दे चुके हैं, अगर उसने सावधानी से पत्ते फेंटे और चले तो भारतीय जनता पार्टी के बरक्स वही राज्य में सबसे मजबूत पार्टी होगी। क्योंकि शिवसेना का जो होना था, वह हो चुका है। एनसीपी का प्रभाव भी छीजना तय है।

बहरहाल बंटी हुई शिवसेना और एनसीपी के आधार वोट बैंक भारतीय जनता पार्टी के लिए ऐसे सहयोगी की भूमिका में होंगे, जिससे अरब सागर के किनारे वह नया इतिहास रच सकेगी। शिवाजी की भूमि पर अपने दम पर सत्ता हासिल करने के उसके सपने में पवार परिवार का संग्राम नए रंग भरने का ही काम करेंगे। (लेखक प्रसार भारती के सलाहकार हैं)

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