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प्लेटो का निरंकुश दार्शनिक शासक

उमेश चतुर्वेदी

प्लेटो का निरंकुश दार्शनिक शासक
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वेबडेस्क। पश्चिमी राजनीतिक चिंतक प्लेटो ने अपने ग्रंथ 'द रिपब्लिक' में दार्शनिक शासक की अवधारणा दी है। प्लेटो ने इस पुस्तक में लिखा है कि जब तक दार्शनिक राजा नहीं होंगे, तब तक राज्य और समाज के कष्ट दूर नहीं होंगे। प्लेटो ने आगे यह भी लिखा है कि जिस प्रकार जहाज का कुशलतापूर्वक संचालन तभी हो सकता है,जब उसका चालक योग्य, कुशल तथा सच्चरित्र हो। ठीक उसी तरह राज व्यवस्था का संचालन भी ठीक से तभी हो सकता है, जब उसका संचालन योग्य और कुशल हाथों में हो। भारत में दर्शन और अध्यात्म एक-दूसरे से इतने गुंफित हैं कि दोनों को ही कई बार एक बार मान लिया जाता है। यही वजह है कि भारत में दार्शनिक, संन्यासी और आध्यात्मिक व्यक्तित्वों में एकरूपता देखी जाती है। भारत में ऐसे व्यक्तित्वों की लंबी परंपरा रही है। लेकिन राजव्यवस्था में उनकी सीधी भागीदारी नहीं दिखी है। इन संदर्भों में कहा जा सकता है कि योगी आदित्य नाथ भारतीय संन्यास, अध्यात्म और विरागी परंपरा के ऐसे व्यक्तित्व हैं, जिनमें प्लेटो के दार्शनिक शासक की छवि भी देखी जा सकती है।

भारतीय राजनीति में चाणक्य संभवत: पहले ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्होंने राजव्यस्था में सीधी भागीदारी की। प्राचीन भारतीय शासन व्यवस्था में वत्सराज के प्रधान अमात्य यौगंधरायण की शख्सियत भी कुछ वैसी ही नजर आती है। महाकवि भास के लिखे नाटक प्रतिज्ञा यौगंधरायण और स्वप्न वासवदत्तं में यौगंधरायण की छवि वैसी ही उभरती है। वह चाणक्य की कठोर छवि के ठीक उलट है। लेकिन योगी आदित्यनाथ में अगर गौर से देखा जाए तो ये तीनों ही छवियां दिख सकती हैं। वे कठोर भी हैं और निरंकुश भी हैं। लेकिन वे वैसे निरंकुश हैं, जैसी निरंकुशता की कल्पना प्लेटो अपने दार्शनिक राजा में देखता है।

प्लेटो का मानना था कि लोकतंत्र में बहुमत के विचारों को सम्मान देते वक्त कई अनचाहे और शाश्वत भाव की कसौटी पर कमजोर मांगों को भी स्वीकार करना पड़ता है। प्लेटो मानते थे कि दार्शनिक राजा ऐसी बेमानी मांगों के सामने नहीं झुकेगा। वह ऐसा इसलिए कर पाएगा, क्योंकि उसके आगे-पीछे अपना कोई नहीं होगा। योगी आदित्य नाथ एक तरह से वैसे ही हैं। उनके पास अपना कोई निजी परिवार नहीं है। जिस मां ने जन्म दिया, वह उत्तराखंड के गांव में सामान्य और कठिन जिंदगी जी रही है। जिस बहन ने बचपन में अपनी गोद में उन्हें खिलाया-खेलाया, कंधे पर बैठाया, राखी पर कलाई सजाई, वह उत्तराखंड में फूल और चाय की दुकान चलाकर अपना और अपने परिवार का गुजारा कर रही है। लोकतांत्रिका राजशाही के दूसरे पात्रों की तरह योगी के राजनीतिक रसूख का फायदा उनके परिवार को नहीं मिलना है। वैसे तो संन्यास के बाद संन्यासी का परिवार समूचा विश्व ही हो जाता है और मानवता एवं धर्म की सेवा ही उसका कर्तव्य हो जाती है। प्लेटो दार्शनिक शासक के बारे में कहता है कि दार्शनिक शासक ही प्रजा का असल भला-बुरा सोच सकता है। वह अपने ज्ञान के बल पर प्रजा का हित सोचने की सामर्थ्य रखता है।

उत्तर प्रदेश में दंगाइयों से दंगा में हुए नुकसान के भरपाई की वसूली कर पाने की सोच हो या फिर अपराधियों के खिलाफ बुलडोजर की कार्रवाई करना, यह योगी आदित्य नाथ के बूते की ही बात थी। प्लेटो ने अपने दार्शनिक शासक में जिस निरंकुशता की कल्पना की होगी, वह निरंकुशता योगी के व्यक्तित्व में ऐसे ही नजर आ सकती है। बुलडोजर का डर ही है कि अब अपराधी खुद ही अपने गैरकानूनी कब्जे को तोड़ रहे हैं, बलात्कार के आरोपी पुलिस के पास भागकर समर्पण के लिए पहुंच रहे हैं, अतीत में उत्तर प्रदेश में जो बेलगाम सत्ताएं राजकीय साधनों को हड़पती रही हैं, गरीबों के हक पर डाका डालती रही हैं, उन्हें सांप सूंघ गया है। खुद ही अब वे किनारे खड़े होने के मजबूर हैं। प्लेटो का दार्शनिक राजा भी ऐसा ही करता। योगी आदित्य नाथ भी वैसा ही कर रहे हैं। भारतीय दार्शनिक प्रधान अमात्य चाणक्य भी ऐसा ही राजहठी था। पता नहीं, योगी ने प्लेटो के दार्शनिक राजा के बारे में सोचा है या नहीं, लेकिन उन्होंने चाणक्य के बारे में जरूर सोचा होगा और उनसे प्रेरित हुए होंगे।

योगी आदित्य नाथ के व्यक्तित्व में यह दुर्धर्शता उस नाथ संप्रदाय से भी आई है, जिसमें वे दीक्षित हैं, जिसके मठ के वे महंथ हैं। नाथ संप्रदाय के संस्थापक गोरखनाथ के शिष्य के बारे में कहा जाता था, नौ लाख पातुरि आगे नाचे, पीछे सहज अखाड़ा। यानी जहां नौ लाख नर्तकियां भी अपने नखरे दिखा रही हों, वहां मछंदर नाथ सहज रूप से हठयोग का अपना अखाड़ा लगा सकते थे। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने प्रसिद्ध निबंध 'अशोक के फूल' में नाथ संप्रदाय के अभ्यासी संन्यासियों के बारे में लिखा है कि वे अपने गोपन अंगों को लोहे की अंगूठी में बंधित कर देते थे, ताकि उनके हठयोग में विषय-विकार बाधा बन कर नहीं उभर पाए।

दूसरे शब्दों में कहें तो हठयोगी नाथ संप्रदाय के योगियों का मानस इतना हठी था, जिसे जगत की कोई माया प्रभावित नहीं कर सकती थी। योगी आदित्यनाथ के साथ यह परंपरा भी है। जाहिर है कि उनकी शासन प्रणाली में यह गुण कुछ न कुछ तो है। तभी वे प्लेटो के दार्शनिक शासक की तरह अपराधियों, बलवाइयों, भ्रष्टाचारियों, बलात्कारियों के लिए निरंकुश हैं। भारत निरंकुशता की ऐसी धारणा को पूजता है। वह बिलावजह किसी को तंग करने वाले से घिन्न करता है। लेकिन उसे ऐसे निरंकुश शासक भी पसंद आते हैं। शायद यही वजह है कि उत्तर प्रदेश की माताओं, बहनों, कमजोर तबकों ने एकमुश्त वोट दिया। जिसका नतीजा सामने है। उत्तर प्रदेश में चार दशकों का रिकॉर्ड टूटा और वही पार्टी, वही मुख्यमंत्री दोबारा सत्ता में आया, जो पहले थी और था।

राजनीति में योगी आदित्यनाथ भारतीयता की उस धारा का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, जिसे भारतीय राजनीति में लगातार नकारा गया। भारत की आधुनिक राजनीति तुष्टीकरण की राजनीति रही है, लोकतंत्र की लाचारगी और उसके बीच से बेवकूफ बनाने वाली राह निकालने की राजनीति रही है, लोकतंत्र के माई बाप जनता को ठेंगे पर रखने वाली राजनीति रही है। योगी इसके उलट जनतांत्रिक राजनीतिक के नए प्रतीक बने हैं, जहां परंपरा का सम्मान है, मूल्यों की प्रतिष्ठा का उद्देश्य है, भारतीयता की हनक बनाने की बात है, भारत बोध को बढ़ावा देने का वादा और लोकतांत्रिक दुनिया की मूल इकाई व्यक्ति की प्रतिष्ठा की सोच है। यही वजह है कि योगी इन दिनों भारतीय राजनीति के नए प्रतिदर्श यानी मॉडल हैं। वे बेशक गेरूआ साधारण कपड़ा पहनते हैं, सामान्य भोजन करते हैं, लेकिन कारपोरेटी चमक-दमक के दौर वाली पीढ़ी के भी रोल मॉडल हैं। वे ऐसा हैं तो सिर्फ इसलिए, क्योंकि समूचा समाज ही उनका परिवार है। और उसकी भलाई के लिए वे कभी कोमल हृदय होते हैं तो कभी प्लेटो के निरंकुश दार्शनिक शासक...पता नहीं प्लेटो ने अपनी कल्पना का दार्शनिक शासक देखा भी होगा या नहीं, लेकिन अगर वह योगी आदित्य नाथ से मिलता तो उसे अपनी सोच के इस साकार रूप को देख सुखद अचरज ही होता।

Updated : 18 April 2022 8:14 AM GMT
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स्वदेश डेस्क

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