विनम्र श्रद्धांजलिः विज्ञापन को गुनगुनाने लायक बना देने वाला रचनाकार

विज्ञापन आमतौर पर कारोबार का हिस्सा मानकर या तो बाजार और खरीदार के बीच लटका दिए जाते हैं, या फिर उन पर संदेह की तलवार लटका दी जाती है कि वे जो कह रहे हैं, उसमें कितना सच है। पत्रकारिता में विज्ञापन पत्रकारों के लिए गंभीर अध्ययन का विषय नहीं रहते; वे सिर्फ पैसे की उगाही का माध्यम भर होते हैं।
लेकिन भारत में पिछली सदी के आठवें दशक से लेकर इस सदी के ढाई दशक तक करीब 45–50 सालों में विज्ञापन की दुनिया में कुछ ऐसे क्रिएटिव आए जिन्होंने विज्ञापन को देखने, सुनने और समझने की तासीर ही बदल दी। आम तौर पर ऐसा फ़िल्मी गीतों के साथ होता है कि यदि गाहे-बगाहे उन्हें गुनगुनाने का मन कर जाए,
तो समझो गाना सफल है। भारत के विज्ञापन संसार में ऐसे ही गुनगुनाए जा सकने वाले विज्ञापनों के अद्भुत रचयिता पीयूष पांडे शुक्रवार को इस दुनिया का वह जोड़ तोड़कर चले गए, जो उन्होंने अपनी रचनाधर्मिता में बड़े ही जतन से तैयार किया था।
कम से कम आज 50 वर्ष की हो रही पीढ़ी भले ही पीयूष पांडे जैसे विज्ञापन रचनाकारों को नाम या चेहरे से न जानती हो, लेकिन उनके बनाए विज्ञापनों से अपरिचित नहीं है। जैसे ही उन्हें आकाशवाणी या दूरदर्शन पर पंडित भीमसेन जोशी के धीर-गंभीर स्वर में शुरू होने वाला सार्वकालिक गीत “मिले सुर मेरा तुम्हारा, तो सुर बने हमारा” सुनाया जाए, वे अतीत के उपवन में चले जाएंगे।
आज भारत की सड़कों पर भले ही करोड़ों रुपये मूल्य की गाड़ियां दौड़ रही हों, लेकिन 90 के दशक में “बुलंद भारत की बुलंद तस्वीर, हमारा बजाज” जब रेडियो पर गूंजता था, तो लोगों के सपनों में दुपहिया वाहन आने लगता था। यह विज्ञापन की दुनिया की ताकत थी। 80 के दशक में साइकिल वालों के सपनों की लूना को कौन भूल सकता है, जिसके लिए “चल मेरी लूना” का नारा गढ़ा गया था और उसके बाद तो लूना ऐसी चली कि पूछो ही मत!
दुर्भाग्य यह है कि जैसे पत्रकारीय लेखन को साहित्य में कोई स्थान नहीं मिलता, उसी तरह विज्ञापनों की रचनात्मकता भी बस कारोबारी दुनिया तक ही सीमित कर दी जाती है। पीयूष पांडे भी ऐसे ही कई लोकप्रिय विज्ञापनों के रचनाकार थे। चाहे कैडबरी हो या एशियन पेंट्स, फेवीकोल का “जोड़” हो या हीरे और उम्र का मामला हर जगह पीयूष की कलम की धार और धारा दिखाई देती थी।
मैंने अपनी जिंदगी में व्यक्तिगत तौर पर दो ऐसे लोगों को देखा है जिनका मैं मुरीद हुआ हूं जो देखने में उस भूमिका में ज़रा भी फिट नहीं लगते थे जिसे उन्होंने ज़िंदगी में बेमिसाल तरीके से निभाया। एक, ‘स्वदेश’ के संपादक स्व. माणिकचंद्र वाजपेयी ‘मामाजी’, और दूसरे, विज्ञापन की दुनिया के बेताज बादशाह पीयूष पांडे।
मामाजी को अगर आप देख लें तो सोच भी नहीं सकते कि वह व्यक्ति पत्रकार या संपादक हो सकता है एक सख्त लोहे जैसा चेहरा, घनी मूंछें और वैसा ही बेतरतीब पहनावा। उसी तरह पीयूष पांडे को देखें तो ऐसा लगता जैसे कोई रिटायर्ड फौजी हों। उनका पढ़ने-लिखने से कोई वास्ता हो सकता है, यह चेहरा देखकर तो बिल्कुल नहीं कहा जा सकता।
लेकिन ईश्वर ऐसी प्रतिभाओं को सौंदर्य की मिट्टी से नहीं, गुण की मिट्टी से गढ़ता है। यही कारण रहा कि पीयूष पांडे ने अंग्रेज़ी के वर्चस्व वाली विज्ञापन की दुनिया में भारत की मिट्टी की खुशबू और हिंदी के शब्द-सौंदर्य का जादू बिखेर दिया।
कहां-कहां उनकी कलम नहीं चली!
फेवीकोल का दम लगाके हइशा,
कैडबरी का कुछ खास है…,
एशियन पेंट्स का हर घर कुछ कहता है…,
और इन सबसे अलग, शायद सबसे असरदार भी
अबकी बार, मोदी सरकार।
जी हां, यह नारा भी पीयूष जी की ही देन है।
पीयूष जी, आज के बाद विज्ञापनों की दुनिया शायद वैसी नहीं रहेगी जैसी आपने गढ़ी थी, लेकिन आपका काम हमेशा याद रहेगा, आपका सिक्का हमेशा खरा रहेगा और आपके विज्ञापन गाहे-बगाहे बरसों तक वैसे ही गुनगुनाए जाते रहेंगे जैसे लता या रफ़ी के गीत। आप ईश्वर के पास जाकर जहां भी रहें वहां भी यह सुर ज़रूर मिला लेंगे, यह हमें पूरा यक़ीन है।
