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पितृों की पूजा से मिलती है पारिवारिक सुख समृद्धि

आचार्य गोविन्द दुबे

पितृों की पूजा से मिलती है पारिवारिक सुख समृद्धि
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'पूर्वजों का शुभाशीष'

''देशकाले च पात्रे च श्रद्धया विधिना च यत।

पितृनुदृश्य विप्रेभ्योदतं श्राद्धमुदाहृतम।।

देशकाल समय पात्र योग्य में श्रद्धा के साथ विधिपूर्वक पितरों के उद्देश्य से जो कुछ भी ब्राह्मणों को दिया जाये उसे श्राद्ध कहते हंै। श्रद्धा शब्द से श्राद्ध बनता है बिना श्रद्धा के श्राद्ध संभव नहीं है यह केवल परंपरा अथवा भय से किया जाने वाला कार्य नहीं बल्कि श्रद्धा युक्त पितरों के निमित्त तर्पण-पिण्ड इत्यादि का अर्पण है यमस्मृति के अनुसार

''आयु: पुत्राम्यष: स्वर्ग कीर्तिपुष्टिं बलं श्रियम्।

पषूनसौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात्पितृपूजनात्।।

अर्थात पितरो की पूजा करने से आयु, पुत्र, पशु, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि, बल, लक्ष्मी, सुख धन धान्य प्राप्त होते हैं। पितरों का पूजन, तर्पण, पिण्डदान इत्यादि वैदिक कर्मकाण्ड में देवताओं से ज्यादा महत्वपूर्ण एवं प्राथमिक कार्य है इसलिए वेदों और कर्मकाण्डों में पितरों के लिए पूजन पद्धति, विधि और मंत्रों की संख्या यज्ञ और देवताओं के यजन मंत्रो से ज्यादा है इस प्रकार श्राद्ध तो बहुत प्रकार के होते हैं जिसमें बारह मुख्य श्राद्ध हंै और ये दो भागों में विभक्त हैं छ: शुद्ध और छ: अशुद्ध श्राद्ध, सभी तरह के यज्ञ, संस्कार, पूजन, अनुष्ठान में शुद्धश्राद्ध का स्वरूप नान्दीमुख श्राद्ध किया जाता है और त्रिपिण्डी इत्यादि भी शुद्ध श्राद्ध का अंग है। और अशुद्ध श्राद्ध में अत्येष्टि मलीन श्राद्ध (षोडशी) इत्यादि हैं। परन्तु यह बिलकुल आवश्यक है कि हमें पितरों के निमित्त श्रद्धा भाव प्रदर्शित करते हुए समय-समय पर नान्दीमुख श्राद्ध और पितृपक्ष में तर्पण श्राद्ध आदि करते रहना चाहिए आदित्य पुराण में यहाँ तक कहा गया है कि

''न सन्ति पितरश्चेति कृत्वा मनसि योनर:।

श्राद्धं न कुरूते मोहातस्य रक्तं पिबन्ति ते।।

जो मनुष्य ये सब मेरे पितर नहीं हैं ऐसा मन में सोचकर मोह के कारण श्राद्ध नहीं करते उसके रक्त (खून) को वे (पितर) लोग पीते हैं। अत: श्राद्ध, तर्पण आवश्यक है। सामान्य रीति से श्राद्ध दो प्रकार के होते हैं पहला एकोदिष्ट और दूसरा पार्वण यही दो श्राद्ध के प्रकार में सभी श्राद्ध कर्म आते हैं।

जो एक के लिये किया जाय या एक के उद्देश्य से किया जाय वह एकोदिष्ट होता है और जो पर्व जैसे अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या, संक्रान्ति, वृद्धि श्राद्ध, ग्रहण श्राद्ध और पितृपक्ष का श्राद्ध ये सब पार्वण कहलाते हैं। इन्हें महालय भी कहा जाता है अत: यह स्मरण रहे कि आश्विन कृष्ण पक्ष में जिसे पितृ पक्ष भी कहते हैं में लगातार 15 दिनों तक तर्पण और श्राद्ध कर्म करना चाहिए। प्रतिदिन तिल, चावल, जौ और कुशा का मोटक हाथ में लेकर जल का तर्पण अपने पितरों को देना चाहिए और समर्थता हो तो प्रतिदिन ब्रह्मण को भोजन करावें और यह संभव न हो तो पंचमी से शुरू करें यदि उसमें भी असमर्थता हो तो दशमी तिथि से शुरू कर के अमावस्या तक करें परन्तु यदि यह भी नहीं कर सकते तो माता-पिता की तिथि पर ही तर्पण श्राद्धकर्म करें और यदि वह भी भूल जाय तो अमावस्या को सारे कार्य करें परन्तु यह आवश्यक है कि पितृपक्ष श्राद्ध शून्य नहीं रहने पावे। अब बहुत जनों को यह संशय होता है कि ब्राह्मणों को भोजन कराने से उनके पितृ कैसे तृप्त होंगे तो उसका प्रमाण यह कि:-

देवो यदि जात: शुभकर्मानुयोगित:

तस्यान्रममृतं भूत्वा देवत्वेप्यनुग च्छति।।

गांधर्वेभोग रूपेण पशुत्वे च तृणं भवेत्

श्राद्धानं वायुरूपेण नागत्वे प्यनुगच्छति।।

पानं भवति यक्षत्वे राक्षसत्वे तथामिषम्

दानवत्वे तथा मासं प्रेतत्वे रूधिरोदकम्।।

मानुषत्वेन्नपानादि नानाभोगेरसो भवेत्।।

अर्थात जो व्यक्ति अपने पितरों का विधि पुर्वक श्राद्ध, तर्पण आदि करता है तथा जो उसके निमित्त ब्राह्मणों को भोजन कराता है उस भोज्य वस्तु को ब्राहाणों से सूर्य अपने प्रकाश द्वारा ग्रहण करते हैं और चन्द्रमा को प्रदान करते हैं। चन्द्रमा उनके पितरों को विश्वेदेवा के माध्यम से पितरों को पहुंचाते हैं। जिनके पितर देव होते हंै उनको अमृत बन कर प्राप्त होता है। गान्धर्व पितर को भोग, पशु पितर को तृण बन कर सर्प पितर को वायु या विष बनकर यक्ष पितर को पान, राक्षस एवं दानव पितर को मांस, प्रेत पितर को रक्त-पानी, मनुष्य पितर को अन्न पानादि विविध भोग रस बन कर प्राप्त होता है। और यह कार्य चन्द्रमा द्वारा विश्वदेवा की मदद से समुचित सम्पन्न किया जाता है। अत: सुख शान्ति, सम्पन्नता, वंश वृद्धि के लिए पितृ पूजन आवश्यक है।

(लेखक ज्योतिष एवं भागवताचार्य हैं)

Updated : 6 Sep 2020 12:45 AM GMT
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