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नेताजी सुभाष चंद्र बोस : परतंत्र भारत का स्वतंत्र फौजी

अजय पाटिल (स्तम्भ लेखक व स्वतंत्र राजनीतिक टिप्पणीकार)

नेताजी सुभाष चंद्र बोस : परतंत्र भारत का स्वतंत्र फौजी
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नेताजी अधिकांश नेताओं के तरह नेताजी इसलिए नहीं बनें क्योकि इनके पास और कोई विकल्प नहीं था। वे एक प्रतिभाशाली छात्र थे। कलकत्ता के प्रेसिडेंसी कॉलेज और स्कॉटिश चर्च कॉलेज से शिक्षा प्राप्त करने के बाद उनके माता पिता ने उनकी प्रतिभा को देखते हुए उन्हें भारतीय प्रशासनिक सेवा ( इंडियन सिविल सर्विस ) की तैयारी के लिए इंग्लैड के केंब्रिज विश्वविधालय भेजा। इस बेहद कठिन परीक्षा में वे सफल रहे। उन्होंने सिविल सर्विसेस की परीक्षा में चौथा स्थान प्राप्त किया। उन दिनों अंग्रेजो के शासन में किसी भारतीय के लिए सिविल सर्विसेस में जाना एक कठिन कार्य था। इस तरह नेताजी 1920 में सिविल सेवक बनें। पर जज्बा देश के लिए कुछ कर गुजरने का था। एक आरामदायक नैकरी कर वो अपना जीवन व्यर्थ करना नहीं चाहते थे। 1921 में उन्होंने देश सेवा के लिए त्यागपत्र दे दिया। भारत में बढ़ती राजनीतिक गतिविधियों की जानकारी उन्हें प्राप्त हो चुकी थी। सक्रिय राजनीति में भागीदारी हेतु वे भारत लौट आये।

भारत वापस आकर वो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ गए। दिसंबर 1927 में कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव के बाद 1938 में उन्हें कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया। धीरे-धीरे कांग्रेस से सुभाष का मोह भंग होने लगा। 16 मार्च 1939 को सुभाष ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। उनदिनों कांग्रेस में टिके रहने के लिए गांधीजी के विचारों से सहमत होना अघोषित रूप से अनिवार्य था। पर गांधीजी के अहिंसा की विचारधारा से नेताजी हमेशा असहमत रहे। आख़िर नेताजी के विचार जोशीले व क्रांतिकारी थे। गांधीजी के प्रति उनके मन में सम्मान तो था। वैचारिक भिन्नता के बावजूद सबसे पहले नेताजी ने उन्हें राष्ट्रपिता शब्द से संबोधित किया था। साथ इन मतभेदों के बावजूद महात्मा गांधी ने नेताजी को देशभक्तों का देशभक्त कह कर संबोधित किया था। यह सुभाष चंद्र बोस के संघर्ष व देशभक्ति के जज्बे के कारण था। आपसी राजनीतिक बतभेदों के रहते हुए भी परस्पर सम्माम का यह एक अनूठा उदाहरण है।

सुभाष चंद्र बोस देश के उन महानायकों में से एक हैं जिन्होंने आजादी की लड़ाई के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। ख़ुद को पूर्ण रूप से आजीवन राष्ट्र के लिए समर्पित रखा। महानायक सुभाष चंद्र बोस को 'आजादी का सिपाही' के रूप में देखा जाता। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का मानना था कि भारत से अंग्रेजी हुकूमत को ख़त्म करने के लिए सशस्त्र विद्रोह ही एक मात्र रास्ता है। अपनी इसी विचारधारा पर वह जीवन-पर्यंत चलते रहे। सरदार भगतसिंग की फांसी के मुद्दे पर नेताजी के गांधीजी के मतभेद इतने बढ़े कि नेताजी ने कांग्रेस से अपना रास्ता अलग कर लिया।

कांग्रेस से अलग होने के बाद राष्ट्रहित में किये गए नेताजी के विलक्षण कार्य उन्हें इतिहास में अमर कर गए। उन्होंने एक ऐसी फौज खड़ी की जो दुनिया में किसी भी सेना को टक्कर देने की हिम्मत रखती थी। उन्होंने देश को आजाद कराने के लिए अपनी एक अलग फौज ख़डी की थी जिसे नाम दिया 'आजाद हिन्द फौज'। सुभाष चन्द्र ने सशस्त्र क्रान्ति द्वारा भारत को स्वतंत्र कराने के उद्देश्य से 21 अक्टूबर, 1943 को 'आजाद हिन्द सरकार' की स्थापना की तथा 'आजाद हिन्द फौज' का गठन किया। इस संगठन के प्रतीक चिह्न एक झंडे पर दहाड़ते हुए बाघ का चित्र बना होता था। कल्पना कीजिये कि उन विपरीत परिस्थितियों में इस विशाल फौज को गठित करने में कितनी मेहनत करनी पड़ी होगी। नेताजी के व्यक्तित्व कितना विराट व आकर्षक होगा इस बात अंदाज उनके कृतित्व से उनके कार्यों से लगाया जा सकता है। दूसरे देश के शासनाध्यक्ष या उच्च पदस्थ व्यक्तियों से मिलना व उनसे अपने देश के मदत मांगना तब संभव हो पाता है जब आप भी अपने देश में उच्च पदस्थ हों या किसी बड़े संवैधानिक पद पर हों। पर सुभाष चंद्र बोस ने दूसरे विश्व युद्ध की शुरुआत में व्यक्तिगत रूप से सोवियत संघ, जर्मनी और जापान सहित कई देशों की यात्रा की थीं। वहां के उच्च पदस्थ लोगों से मुलाकात की। कहा जाता है कि सुभाष चंद्र बोस के इन यात्राओं का मकसद बाकी देशों के साथ आपसी गठबंधन को मजबूत करना था और साथ ही भारत में ब्रिटिश सरकार के राज पर हमला करना था।

जुझारू, लोह इच्छाशक्ति वाले, कर्मठ और साहसी व्यक्तित्व वाले नेताजी ने आजाद हिन्द फौज के नाम अपने अंतिम संदेश में जो कुछ कहा उसने सभी भारतवासियों को उद्वेलित कर दिया था। उनके शब्द थे ''भारतीयों की भावी पीढ़ियां, जो आप लोगों के महान बलिदान के फलस्वरूप गुलामों के रूप में नहीं, बल्कि आजाद लोगों के रूप में जन्म लेंगी। आप लोगों के नाम को दुआएं देंगी। और गर्व के साथ संसार में घोषणा करेंगी कि अंतिम सफलता और गौरव के मार्ग को प्रसस्त करने वाले आप ही लोग उनके पूर्वज थे।"

नेताजी के शब्द भारत की जनता के मनमस्तिष्क में जबरदस्त उमंग, उत्साह भर देते थे। "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूंगा", "दिल्ली चलो" और "जय हिन्द" जैसे नारों से सुभाष चंद्र बोस ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में नई ऊर्जा, नया जोश व अभूतपूर्व जान फूंकी थी। उनके जोशीले नारों ने संपूर्ण राष्ट्र को एकता के सूत्र में पिरोने का विलक्षण कार्य किया। ये नारे आज भी हमारे मनमस्तिष्क में जोश भर देते हैं। किसी राष्ट्र के लिए स्वाधीनता सर्वोपरि है' इस महान मूलमंत्र को बच्चों और नवयुवाओं की नसों में प्रवाहित करने, तरुणों की सोई आत्मा को जगाकर देशव्यापी आंदोलन खड़ा करने और युवा वर्ग की शौर्य शक्ति को द्विगुणित कर राष्ट्र के युवकों के लिए आजादी को आत्मप्रतिष्ठा का प्रश्न बना देने वाले नेताजी सुभाष चंद बोस ने स्वाधीनता महासंग्राम के महायज्ञ में सबसे बड़ी आहुति दी तथा इस महायज्ञ की अग्नि को कभी बुझने नहीं दिया।

देश को "जय हिन्द" का नारा देने वाले तथा इसी ललकार के साथ अंग्रेजी हुकूमत का डटकर सामना करने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस का नाम भारत के स्वतंत्रता संग्राम के महान क्रांतिकारी वीरों में बड़े सम्मान व श्रद्धा के साथ लिया जाता है।अत्यंत निडरता से सशस्त्र उपायों द्वारा सुभाष चंद्र बोस ने जिस प्रकार अंग्रेजों का मुकाबला किया उसके जैसा अन्य कोई उदाहरण नहीं मिलता है। तभी इनका पूरा जीवन आज भी युवाओं के लिए प्रेरणा का स्त्रोत है।

यह एक कटुसत्य है की परतंत्र भारत के इस स्वतंत्र फौजी के विलक्षण व अद्भुत योगदान को लंबे समय त नज़रअंदाज़ किया गया। लेकिन सत्य को कभी स्थायी दबाया नहीं जा सकता। आजादी के 71 वर्षों के बाद भारत की सरकार ने नेता जी सुभाष चंद्र बोस और आजाद हिंद फौज की यादों को देश की राजधानी में एक नया घर दिया है। वह सम्मान दिया जिसकी ये विलक्षण त्याग व बलिदान की गाथा हकदार है। नेताजी के महान राष्ट्रभक्ति और बलिदान के सम्मान में 2021 से उनके जन्मदिवस 23 जनवरी को 'पराक्रम दिवस' के रूप में मनाते हैं।

आज यह महान स्वतंत्र राष्ट्र आपके समर्पण, त्याग व बलिदान, राष्ट्र के प्रति निष्ठा को पूरे सम्मान के साथ नमन करता है।



Updated : 23 Jan 2022 1:44 PM GMT
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