एसआईआर के मुद्दे पर विपक्ष का अतिशय आक्रोश

एसआईआर के मुद्दे पर विपक्ष का अतिशय आक्रोश
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लोकतंत्र में असहमति का अधिकार उसकी सबसे बड़ी ताकत है। यही अधिकार नागरिकों और राजनीतिक दलों को सत्ता से प्रश्न पूछने और नीतियों पर आपत्ति दर्ज करने का अवसर देता है। परंतु जब असहमति तथ्यों और तर्क से हटकर केवल राजनीतिक लाभ का औजार बन जाए, तब वही अधिकार लोकतंत्र की मर्यादा पर चोट करने लगता है। हाल में मतदाता सूची के विशेष पुनरीक्षण (एसआईआर) को लेकर विपक्ष, विशेषकर कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस का तीखा विरोध इसी प्रवृत्ति का उदाहरण है।

चुनाव आयोग ने स्पष्ट किया है कि एसआईआर एक नियमित प्रक्रिया है, जिसका उद्देश्य मृत, स्थानांतरित या दोहराए गए नामों को हटाना और नए पात्र मतदाताओं को जोड़ना है। यह कवायद इसलिए भी जरूरी है कि दूसरे देशों के घुसपैठिये मतदाता सूची का हिस्सा न बन पाएं। यह काम हर कुछ वर्षों में होता है ताकि मतदाता सूची अद्यतन और पारदर्शी बनी रहे।

इसके बावजूद विपक्ष ने इसे 'मतदाता चोरी' और 'राजनीतिक साजिश' का रूप देकर जनता में अविश्वास का वातावरण बनाया। अब तक किसी भी स्वतंत्र जांच या आयोग की निगरानी में ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिला है कि इस प्रक्रिया का इस्तेमाल किसी वर्ग विशेष के विरुद्ध किया जा रहा है। फिर भी सियासी बयानबाजी ने आम मतदाताओं के मन में यह डर बैठाने की कोशिश की कि कहीं उनका नाम सूची से गायब न कर दिया जाए।

लोकतंत्र में विरोध तभी सार्थक होता है जब वह संवाद और तर्क पर आधारित हो, न कि टकराव और नारेबाजी पर। दुर्भाग्य से, एसआईआर के विषय में विपक्ष ने चर्चा के बजाय सड़क आंदोलन का रास्ता चुना। संसद या आयोग के मंच पर अपने तर्क रखने की बजाय विरोध का तरीका केवल भावनात्मक रहा। यदि विपक्ष सचमुच पारदर्शिता चाहता है, तो उसे चुनाव आयोग से खुला संवाद कर रचनात्मक सुझाव देने चाहिए, न कि संस्थाओं की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लगाकर जनता के मन में भ्रम फैलाना चाहिए।

सत्ता पक्ष और चुनाव आयोग की भी यह जिम्मेदारी है कि वे हर प्रक्रिया को पूर्ण स्पष्टता के साथ जनता के सामने रखें—कितने नाम जोड़े गए, कितने हटाए गए और किन कारणों से सुधार हुआ। पारदर्शिता ही अविश्वास का सर्वोत्तम उत्तर है। आयोग को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि प्रक्रिया में किसी नागरिक के अधिकारों की अनदेखी न हो।

लेकिन विपक्ष का वर्तमान रवैया अधिक भावनात्मक और कम तथ्यपरक प्रतीत होता है। बिना ठोस साक्ष्य के किसी प्रशासनिक प्रक्रिया को 'षड्यंत्र' बताना न तो जनता के हित में है और न ही लोकतंत्र की आत्मा के अनुकूल। विरोध का अधिकार तभी अर्थपूर्ण होता है जब उसके साथ जिम्मेदारी और संयम की भावना जुड़ी हो। विपक्ष का कर्तव्य केवल सत्ता की आलोचना करना नहीं, बल्कि जनता को तथ्यात्मक जानकारी देना और सुधार के रास्ते सुझाना भी है। यदि एसआईआर को लेकर कोई वास्तविक समस्या है, तो उसका समाधान संवाद, सहयोग और पारदर्शिता से ही निकलेगा, न कि आक्रोश और भ्रम से।

आज देश के लोकतांत्रिक ढांचे को सबसे अधिक आवश्यकता है संतुलित और जवाबदेह विपक्ष की, जो प्रश्न पूछे, पर उत्तर खोजने की ईमानदार कोशिश भी करे। लोकतंत्र का संरक्षण केवल विरोध से नहीं, बल्कि जिम्मेदार और रचनात्मक विरोध से होता है। यही विरोध तब जनहित का माध्यम बनता है, जब उसमें आक्रोश नहीं, आत्मानुशासन और तर्क की भावना हो। असहमति की ताकत तभी सार्थक है जब वह व्यवस्था को मजबूत करे, न कि उसे अविश्वास के बोझ तले दबा दे।

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