आम चुनाव की पगध्वनि और रोली बिखेरता विपक्ष

आम चुनाव की पगध्वनि और रोली बिखेरता विपक्ष
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डॉ. हरिकृष्ण बड़ोदिया

जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं वैसे-वैसे राजनीतिक दलों की बेचैनी भी बढ़ती जा रही है। सबसे ज्यादा बेचैन यदि कोई है तो वह देश का विपक्ष है जो विगत 9 सालों से सत्ता सुख से वंचित है, यही कारण है कि विपक्ष का हर धड़ा इस कोशिश में जुटा है कि कैसे भी विपक्षी एकता आकार ले और मोदी के विरुद्ध एक ऐसा मंच तैयार हो जाए जो देश में एक नई सियासत का सूत्रधार बने। पहले 12 जून को इस दिशा में विपक्षी एकता के लिए नीतीश कुमार ने पटना में बैठक आयोजित होने की घोषणा की थी जो नहीं हो सकी थी। अब यह बैठक 23 जून को होगी। सभी मोदी विरोधी आश्वस्त हैं कि इस बैठक में विपक्ष मंथन से कुछ सकारात्मक निकल सकेगा। हालांकि यह कहना अभी जल्दबाजी होगी कि पहली बैठक में ही एकता का कोई सर्वमान्य फॉर्मूला आ जाएगा लेकिन दलों के बीच किसी नए रास्ते पर चलने के लिए प्रेरणा जरूर मिलेगी। हालांकि गौर करने वाली बात यह भी है कि इन सभी दलों में आपस में किसी ना किसी बात पर वैमनस्यता भी जगजाहिर है। मसलन अरविंद केजरीवाल की कांग्रेस से, तो उमर अब्दुल्ला की केजरीवाल से, वहीं ममता की कांग्रेस से, ऐसे में 23 जून की बैठक कितनी सफल होगी यह देखने वाली बात होगी क्योंकि सभी का लक्ष्य एक ही है कि मोदी को सत्ता से हटाया जाए। इस लक्ष्य को पाने के लिए सबके अपने रास्ते हैं। अलग-अलग रास्तों से लक्ष्य तक पहुंचने में ये कैसे सफल होते हैं वक्त ही बताएगा। यह इस बात पर भी निर्भर करेगा कि लक्ष्य प्राप्त करने के लिए कौन सा दल कितना त्याग करता है। क्योंकि यहां सभी दलों को कुछ ना कुछ त्याग करना पड़ेगा। कुछ दलों और नेताओं को अपनी जिद्द त्यागना पड़ेगी तो कुछ दलों को अपनी सीटें। अभी तक के डेवलपमेंट से यह साफ दिखाई दे रहा है कि कांग्रेस के अलावा क्षेत्रीय दल कांग्रेस से ही त्याग की अपेक्षाएं कर रहे हैं। ममता हों या अखिलेश या कोई और सभी चाहते हैं कि विपक्षी एकता तो हो किंतु उनकी क्षेत्रीय सल्तनत पर कोई आंच ना आए। उनसे कोई यह न कहे कि वे अपने राज्य में दूसरे दलों को भी सीटें दें। ऐसी दशा में यह देखना दिलचस्प होगा कि कैसे और किन मुद्दों पर आपसी सहमति बनती है।

वैसे जब से हिमाचल और कर्नाटक में कांग्रेस के सिर पर जीत का सेहरा बंधा है उसकी दशा घोड़ी पर सवार दूल्हे की तरह हो गई है जो चाहता है कि उसकी हर बात मानी जाए। इसमें भी संदेह नहीं कि कांग्रेस की इन दो जीतों के बाद से विपक्ष के कांग्रेस के प्रति रूख में सकारात्मक परिवर्तन दिखाई दे रहा है। जिस बात को सारे वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक कहते रहे हैं रहे हैं कि बिना कांग्रेस के विपक्षी एकता का कोई औचित्य नहीं। उसे मानने के लिए आज अधिकांश विपक्षी दल बाध्य हुए हैं। लेकिन सबसे बड़ी बात तो सीटों के बंटवारे की है। यह देखना दिलचस्प होगा कि पश्चिम बंगाल में ममता किस समझौते पर राजी होती हैं या उत्तर प्रदेश में अखिलेश किस फार्मूले को मानते हैं या बिहार में कांग्रेस को कितनी सीटें दी जाती हैं या झारखंड में उसे कितनी सीटें देने को हेमंत सोरेन राजी होते हैं।

दूसरी तरफ विपक्षी एकता की सारी कवायद पर भाजपा की भी पैनी नजर है। इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए कि विपक्ष की एकता की काट ढूंढने में सत्तापक्ष भी अपनी ओर से जुटा नजर आ रहा है। पिछले सप्ताह मोदी, अमित शाह और नड्डा सहित वरिष्ठ नेताओं ने ताबड़तोड़ बैठक कर चुनावी रणनीति बनाना शुरू कर दिया लगता है जिसमें एनडीए का विस्तार सर्वोपरि है। सभी जानते हैं कि देश में ऐसे बहुत सारे छोटे-छोटे राजनीतिक दल हैं जिनका प्रभाव सीमित भले ही हो लेकिन वह चुनाव परिणामों पर गहरा असर डालते हैं। इन दलों की पहचान करना तथा उन्हें एनडीए का हिस्सा बनाना भाजपा के लिए अत्यावश्यक प्रतीत हो रहा है। 2014 में भाजपा ने 282 सीटें जीती थीं तब एनडीए की संसद में कुल सीटें 336 थीं। उस समय यूपीए की संसद में कुल सीटें 59 थी जिनमें कांग्रेस की मात्र 44 थी। देखा जाए तो भाजपा ऐसा राष्ट्रीय दल है जिसने गठबंधन की राजनीति की शुरुआत 1998 में की थी। जिसके प्रमुख स्वर्गीय अटलबिहारी वाजपेयी थे। पहली बार 1998 में अटल जी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी जिसने अपना कार्यकाल पूरा किया था। नि:संदेह आज भी बहुत सारे छोटे छोटे दल ऐसे होंगे जो भाजपा के साथ जाना चाहते हैं। भाजपा को उनसे गठजोड़ करने की पहल करना होगी। 2019 में भाजपा नीत एनडीए में 21 पार्टियां शामिल थीं। इस लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अकेले 303 सीटों पर जीत हासिल की थी जबकि सहयोगी अन्य 12 दलों को 51 सीटें मिली थी। नि:संदेह गठजोड़ वाली राजनीति का भाजपा का यह स्वर्णिम काल रहा है। भाजपा इसे फिर दोहराना चाहेगी।

(लेखक सेवानिवृत्त समाजशास्त्र प्राध्यापक हैं)

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