गोधूलि वेला

गोधूलि वेला
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बैंगलूर - दिल्ली राजधानी एक्सप्रेस के सेकेण्ड एसी कोच में हम सफर कर रहे थे। हमारे सामने वाली बर्थ पर एक परिवार था, साथ में उनकी एक छोटी बच्ची भी थी। सहसा बच्ची जोर से चिल्लाई, “मम्मा ! – मम्मा !! देखो- देखो कितनी सारी ब्लैक काउज़।” बच्ची की अचानक चिल्लाहट सुनकर मैंने भी बाहर देखा। मैदान में भैंसें घास चर रही थीं। मैंने बच्ची की माँ से पूछा, “बच्ची कौन सी क्लास में है?” माँ समझ गई, मैं क्यों पूछ रही हूँ। बोली, “फर्स्ट स्टैंडर्ड में।”माँ फिर बोली, “दरअसल, हम पहली बार ट्रेन से आए हैं। फ्लाइट से ही आते जाते हैं। इसका स्कूल भी बीच शहर में है। इसने गाय तो टीवी में देखी है, दूध के पैकेट पर फोटो देखी है, भैंस नहीं देखी। मैंने ही गाँव नहीं देखे, तो बच्ची क्या देखेगी?”

मुझे लगा, अब कोई प्रश्न न करूँ। बच्ची की माँ को कुछ अनर्थ का बोध न हो जाय। अतः मैंने विषय से ध्यान हटाने के लिए अपना बैग खोला । घर से निकलते निकलते पोस्टमैन कुछ डाक दे गया था। उसे साथ ही लेकर हम आ गए थे, सोचा था गाड़ी में देख लेंगे। पाँच-सात लिफाफे थे, शादी के निमंत्रण पत्र। सबको खोला। निमंत्रणकर्ता के संबंध में फिर ध्यान गया : अरे ! इन पत्रिकाओं में वैवाहिक कार्यक्रमों की दिनांक तो लिखी हैं, समय सिर्फ़ स्नेह-भोज का डला है, पर परिणय घड़ी, पाणिग्रहण संस्कार का मुहूर्त नहीं है। मेरा ध्यान फिर ‘ब्लैक काऊ’ की ओर गया। मुझे बड़ा विस्मय हो रहा था, एक भी पत्रिका ऐसी नहीं थी जिसमें परिणय संस्कार का मुहूर्त लिखा हो : ‘घड़ी के लग्न’, ‘गोरज वेला’ या ‘गोधूलि वेला’ के हैं लग्न।

‘गोधूलि वेला’ विवाह मुहूर्त की बड़ी गरिमामय संज्ञा है। मुझे लगा मैं गोरज के बीच खड़ी हूँ। कितनी मोहक घड़ी, सूरज अस्ताचल की ओर प्रस्थान करता है। धरती – आकाश के मिलन की वेला। परछाई अपने से कई गुना लम्बी हो जाती है। नदी के उस पार या ऊँची टेकड़ी के पीछे से आती गायों की घण्टियों की मधुर टनन्-टनन टन-टन-टन ध्वनि मानों मेरे कानों में सुनाई देने लगी। गायों और चरवाहों के बीच मैं घिर गई। मुझे गोरज, गोधूलि में बीते साल धुंधलके के समान दिखने आने लगे।

गाँवो में प्रवेश करती गायों की टोलियाँ, आगे पीछे दौड़ते गायों के झुण्ड के झुण्ड, उनके खुरों से उड़ती धूल। यही वह घड़ी है, ‘गोधूलि वेला’ । यही हमारी लोक संस्कृति को परिपोषित करती है। गायों के रम्भाने से उठे स्वर का समय ही ग्राम मंगल की वेला है, गौ-बछुड़ों की मिलन की वेला है, दिन-रात के मिलन की वेला है। दीप और बाती के मिलन की वेला है। यही वह संक्रमण काल है जिसमें देवी- देवता धरती का आनन्द मंगल देखने के लिए उपस्थित रहते हैं। यही है देवी-देवताओं के रमण की वेला। अपने पंखों की शक्ति से आसमान को नापने की अजमाइश कर अपने घोंसलों में लौटते पंख- पखेरुओं के मिलन की वेला। सगुणी संजा की वेला।

द्वार-द्वार माताएँ अपनी-अपनी गायों की प्रतीक्षा करती हैं, कोई हाथ में गौ-ग्रास लिए, तो कोई द्वार पर अपने नन्हें को लिए वृंदावन से लौटती गाय की पूँछ अपने छौने के ऊपर से उतारने के लिए, बुरी नजरों से मुक्त करने के लिए उतावली। कोई गोखुर से रज लेकर नन्हें मुन्हों को लगातीं, ताकि बच्चों को किसी की हाय न लगे, तो कोई अपने लाल के हाथ से गाय के मुँह में रोटी दिलवाती, ताकि गौ माता उसको चाट ले और सलौनालाल निरोगी हो जाय। कोई गाय से गले मिलती, तो कोई गाय के गलबंध को सहलाती। गली-गली गौ-मंगल की वेला, गौ- दर्शन की वेला। ममता का लहराता सरोवर। उधर दूर से छोटे-छोटे बछुड़ों की माताओं का रम्भाना, और इधर आतीं अनेक आवाज़ों में से भी अपनी मां की आवाज़ पहचानकर खूँटे से बँधे बछुड़े अम्मा SSS... माँ SSS... माँ SSS.. करते माँ से मिलने को व्यग्र, मचलते। वहीं झुण्ड को चीर कर हम्मर मारती बछुड़े से मिलने की ललक, रम्भाती दौड़ती, गौ माताएँ। यह है माँ - बछुड़े के मिलन की वेला।

तुलसी क्यारे में टिमटिमाते दीपक की लौ से मातृत्व का अलौकिक दृश्य मन में दैविक आनन्द का स्फुरण कर देता है। बछुड़े को चाटती माँ । माँ के थन पर मुँह मारता बछुड़ा। दूध पीते- पीते कुछ शारीरिक कम्पन मानों माँ बेटे में बिछुड़ने की शिकायत व मिलन का अपार आनन्द! बछुड़े को माँ से दूर बाँधता ग्वाला। पैंरों के बीच खाली बर्तन लेकर बैठा गौथन के स्पर्श से खाली बर्तन में पड़ने वाली दूध की प्रथम धार की ध्वनि, वातावरण में मिठास घोलकर जीवन को रसमय बना देता है। दूध के फेन से उफनता बर्तन। यह है सरस गोरस की वेला। रात्रि के अंधकार में समा जाती गोधूलि। गायों के आगे घास की पिण्डी खोलकर डालती माताओं के हाथों की चूड़ियों की खनखनाहट, पशुओं के आगे धरे-सानी – पानी को खाते पशुओं के मुँह से निकलती ध्वनि , फिर जुगाली की अलग ध्वनि याद आती है। अंधकार की चादर में समा जाती गोधूली। रात्रि, धरती व गोधूली के मिलन की वेला। रात्रि गोठान में विश्रांति कर पुनः उष:काल में गौचारण को जाती गायों के खुरों से उठे गोरज से नूतन सूर्य का अभिषेक करती, सूर्योदय की वेला।

एकाएक कुछ झटके से गाड़ी रुकी। और मैं फिर वहाँ गोरज से दूर एसी कोच में आ गई, जहाँ रज तो क्या, बाहर की हवा भी नहीं आती। ऐसी स्थितियों में बड़े हुए बच्चे गोधूलि वेला क्या जानेंगे। गोरज की अनुभूति इन महानगरों में कौन करा पायगा। भक्त शिरोमणि सूरदासजी रचित पद “श्याम नहायो गोरज माय” या फिर कविश्रेष्ठ हरिऔधजी उपाध्याय की कविता गौचारण से लौटती गायों के गले की बँधी घण्टियाँ, कृष्ण की मुरली के स्वर में रमा गोकुल। इन प्रसंगों को कोई कितना भी व्याख्यायित करे; किन्तु जो गाँवों की छबि इस दृश्य से स्वानुभूत नहीं है, न पाठक, न श्रोता, न गुरु, न शिष्य वह इसका अर्थ अपने अन्तस में कैसे उतार सकेगा। मायने कितने भी सरल कर दिए जायें; किन्तु उस घड़ी के दर्शन किए बिना वे अर्थ निःश्प्राण ही रहेंगे।

एक विचार आया, मैं इस वेला शब्द को लेकर इतनी चिन्तित क्यों हो रही हूँ। महानगरों में भी तो भक्तप्राण सज्जनों ने गौरक्षा व गौ संवर्धन, गौरक्षण के लिए गौशालाओं का अनुष्ठान किया है। सब कुछ ठीक तो चल रहा है। किन्तु मन में पुनः एक विचार प्रश्न जन्मता है, पक्की होती धरती, सिमटते गोचारण, ऊपर उठने को अधीर धूल, क्या निर्मूल हो जायगी गाँवों की ये सब झाँकियाँ? गायब हो रहे वैवाहिक पत्रिकाओं से ‘गोरज’ ‘गोधूलि’ वेला शब्द। तभी बच्ची ने मुझे छूकर पूछा, “अम्मा ब्लैक काऊ कहाँ रहती है?” मैंने बताया, “बेटा, यह ब्लैक काऊ नहीं, भैंस है ‘बफैलो’।“ यह सब गाँवों में रहती हैं। बच्ची ने भोले मन से पुनः एक प्रश्न किया, “गाँव क्या हैं, अम्मा! कहाँ होते हैं...? ” उसकी माँ ने तड़ककर कहा, “अब चुप भी कर....।”

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