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माता खीर भवानी और 'ठूल'

माता खीर भवानी और ठूल
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घटना श्रीनगर की है जहाँ हम दोनों नवम्बर के प्रथम सप्ताह में एक संक्षिप्त यात्रा के लिए गए थे। जब आप कहीं कम दिनों के लिए जाते हैं तो उसी सीमित समय में सारी दर्शनीय बातें देख लेना चाहते हैं। वैसा ही कुछ हम भी कर रहे थे। जिस जगह हम रुके थे वहाँ से खीर भवानी माता का मंदिर नजदीक था। वैसे ये मंदिर श्रीनगर से 22 किलोमीटर है लेकिन जहाँ हम रुके थे, यूनिवर्सिटी के नजदीक, वहाँ से ये फासला चार पांच किलोमीटर कम था। लिहाजा ये सोचा गया कि अगले दिन पहले माता जी के दर्शन करेंगे और फिर बाकी स्थल देखेंगे। खीर भवानी मंदिर बहुत सिद्ध स्थान माना गया है। महाराग्या देवी का उल्लेख शास्त्रों में है। इसकी एक कथा रावण से भी संबंधित है। कल्हण की राजतरंगिणी में भी इसका उल्लेख मिलता है। तूल मूल गांव जहां ये मंदिर स्थित है वहां का भी उल्लेख शास्त्रों में है। यहां एक कुंड है और भवानी माता का मंदिर है। हम सुबह होटल से नाश्ता करके मंदिर दर्शन करने निकल पड़े। मंदिर के पास पहुंचे तो वहां एक बड़ा सा लोहे का दरवाजा था। उस पर सी आर पी के जवान सस्त्र पहरा दे रहे थे। हम उलझन में थे कि मंदिर कहाँ है। पहले दिन हम शंकराचार्य मंदिर होकर आए थे इसलिए मंदिरों पर लगने वाली सुरक्षा व्यवस्था से हम वाकिफ थे। गेट के सुरक्षा कर्मी ने हमें अंदर जाने दिया। ज्यों ही गेट से घुसने लगे मालविका ने एक बोर्ड की तरफ इशारा किया मंदिर में मांस, मछली, अंडा खाकर प्रवेश करना मना है। हमने उसी दिन सुबह नाश्ते में अंडा खा लिया था। हम लौट चलते हैं। मालविका ने कहा। अब कैसे वापिस जाएंगे। गेट से आधे अंदर हैं । अंदर के सुरक्षा कर्मी और बाहर के दुकानदार हमे देख रहे हैं। वापिस जाना अच्छा नहीं होगा। मैंने कहा। सोच लो मालविका बोली जरूर लेकिन तब तक हम गेट के अंदर थे और सामने चौकी पर एक और सुरक्षा कर्मी रजिस्टर लिए हमारी एंट्री करने के लिए तत्पर था। मैंने रजिस्टर में प्रविष्टियां की। हम आगे बढ़े। गेट से मंदिर के द्वार का फासला करीब दो सौ मीटर होगा। उस बीच मैं मालविका को आस्था, मन की भावना, जो मन चंगा आदि फिलोसोफिकल बातें बताता रहा ताकि उसके मन से अंडा बाहर निकल जाए, पेट से तो निकलने से रहा और हम शुद्ध मन से दर्शन कर सकें। मैंने उससे ये भी कहा कि अंडा तो वैसे भी शाकाहारी ही माना जाता है। और ये भी कि हमारे अलावा और कौन जानता है यहाँ कि हमने अंडा खाया है। मालविका बोली किसी को मालूम पड़े या न पड़े मगर हमे तो मालूम है।

ज्यों ही हम मंदिर के मुख्य द्वार पर पहुंचे और जूते उतार कर अंदर जाने लगे मालविका ने फिर एक बोर्ड की तरफ इशारा किया । इस बार वही बात और बड़े अक्षरों में लिखी थी। मैं जूते उतार कर सीढ़ी चढ़ ही रहा था। फिर वही गोल माल की धुन गूंजने लगी। मालविका ने हाथ पकड़ लिया और कहा नहीं हम अंदर नहीं जाएंगे। मैं उसका इस बार विरोध नहीं कर पाया और बाहर आ गया। अब हम दोनो मंदिर की देहरी पर जूते उतारे, हाथ में प्रसाद लिए खड़े थे। लेकिन अंदर नहीं जा रहे थे । पास खड़ा कार्यकर्ता नुमा पुजारी ये सब देख रहा था लेकिन उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। उसने हार कर कहा जाओ-जाओ, यहाँ क्यों खड़े हो मंदिर तो अंदर है। तब हमने उसे अपनी परिस्थिति समझाई और हमारी तरफ से प्रसाद चढ़ाने का आग्रह किया। उसने हामी भरी साथ ही सुझाव दिया कि हम मंदिर के पीछे की तरफ से आ जाएं तो हमें प्रसाद भी मिल जाएगा और खीर भी। मंदिर का प्रांगण बड़ा है। हम चक्कर लगा कर पीछे की ओर जाने लगे। आधे रास्ते पहुंचे होंगे कि प्रसाद बेचने वाले की एक और दुकान मिल गयी। दुकानदार पहले तो प्रसाद खरीदने का आग्रह करने लगा और बताने लगा कि हम गलत जगह से जा रहे हैं मुख्य द्वार तो आगे है। मजबूरन हमें उसे भी अपनी कहानी बतानी पड़ी। मैंने उसे यथा संभव संक्षिप्त किया ताकि हमारी बेवकूफी और उजागर न हो। तब तक वो कार्यकर्ता जिसे हमने प्रसाद दिया था वो प्रसाद चढ़ा कर पीछे पहुँच चुका था और खीर का दोना लिए इंतज़ार कर रहा था। उसने हमें देखा और दूर से इशारा किया। लेकिन तब तक उस दुकानदार ने एक और लॉजिक दिया कि यदि आपने अंडा खा लिया है तो आपको आज खीर प्रसाद नहीं खाना चाहिए। इतना ही नहीं उसने चिल्ला कर उस कार्यकर्ता को कश्मीरी में बता भी दिया । उसका पूरा वाक्य तो याद नहीं पर इतना जरूर याद है कि उसने उसमें दो तीन बार ठूल शब्द का प्रयोग किया। बाद में मालूम पड़ा कि ठूल यानी अंडा होता है। उसके चिल्लाने का परिणाम ये हुआ कि जो बात अभी हमारे अलावा दो तीन को ही मालूम थी अब सबको पता चल गई। अब सब हमारी ओर आश्चर्य और सहानुभूति से देख रहे थे । अपनी बेवकूफी का सार्वजनिक होना भला किसे अच्छा लगेगा। हमें लगा अब और देर वहाँ रुकना ठीक नही। ये भी सोचा कि माँ को हमें दोबारा बुलाना होगा इसलिए अभी दर्शन नहीं दिए। किसी तरह हमारा चढ़ाया प्रसाद लिया, चढ़ावे की रसीद ली और बाहर निकलने की राह ली।

इस बात का तो खेद था कि हम माता खीर भवानी के दर्शन नहीं कर पाये लेकिन इस बात का संतोष अधिक था कि हम अपने आप से, अपनी आस्था से और परंपरा से ईमानदार रहे। मुझे लगता है जब भी हम भक्ति की बात करते हैं ईमानदारी उसकी पहली शर्त होती है। और अगर मन में सही भाव ही नहीं है तो किसी भी मंदिर में जाने का कोई अर्थ नही है।

-सच्चिदानंद जोशी इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र नई दिल्ली के सचिव

Updated : 24 Feb 2019 2:04 PM GMT
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Naveen Savita

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