सत्ता के सवालों से जूझती नई शिक्षा नीति

आलोक मेहता
सत्ता की राजनीति में प्रतिपक्ष द्वारा केंद्र सरकार के किसी निर्णय या आर्थिक नीतियों का विरोध सामान्य कहा जा सकता है। लेकिन केवल दलगत विरोध और राजनीतिक स्वार्थों के लिए भारत की नई पीढ़ी का भविष्य निर्माण के लिए व्यापक विचार विमर्श के बाद घोषित राष्ट्रीय शिक्षा नीति को सिरे से नकारते हुए कुछ राज्य सरकारों द्वारा इसे लागू करने से इंकार बेहद अनुचित है। संविधान निर्माताओं ने शिक्षा, स्वास्थ्य, कानून व्यवस्था के विषय एक हद तक राज्य सरकारों के अधीन रखने का प्रावधान किया था। लेकिन आजादी के बाद ७5 वर्षों के दौरान समय-समय पर केंद्र सरकारों द्वारा बनाई गई नीतियों और बजट का लाभ राज्यों को नहीं मिला है। विशेष रुप से कांग्रेस पार्टी और उसकी राज्य सरकारों द्वारा शिक्षा नीति का विरोध आश्चर्यजनक है। राहुल गाँधी के इशारों पर चल रही कांग्रेस पार्टी के कथित ज्ञानी नेताओं को क्या इतनी भी जानकारी नहीं है कि दौलत सिंह कोठरी आयोग द्वारा तीन साल में तैयार पहली राष्ट्रीय शिक्षा नीति जुलाई 1968 में कांग्रेस की केंद्र सरकार ने लागू की। लेकिन क्रियान्वयन की पक्की योजना और पर्याप्त वित्तीय प्रबंध न होने के कारण ठीक से लागू नहीं हो पाई। फिर राजीव गाँधी की कांग्रेस सरकार ने 1986 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति बनाई, जो अब तक लागू थी। लेकिन राममूर्ति समीक्षा समिति और प्रोफसर यशपाल समिति ने इसकी कमियां गिनाई थी। इसीलिए भारत के भविष्य निर्माण के लिए नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में बनाई गई थी। लगभग 34 साल बाद 2020 में पुरानी नीतियों में कई अहम व महत्वपूर्ण बदलाव किए गए। इसलिए भाजपा शासित राज्यों ने पिछले दो वर्षों में नई नीति को लागू करने के लिए प्रयास शुरू किए।
अब हाल के विधान सभा चुनाव में सत्ता में आई कर्नाटक सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) को रद्द कर राज्य की अपनी नई शिक्षा नीति तैयार करने का फैसला किया है। मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने घोषणा की कि जरुरी तैयारियों को पूरा करने के बाद एनईपी को रद्द करना होगा, जिसे इस वर्ष समय पर नहीं किया जा सका। मुख्यमंत्री कार्यालय की ओर से एक बयान जारी कर एनईपी की निंदा की गई। इस बयान में कहा गया है, 'चूंकि शिक्षा राज्य का विषय है, इसलिए केंद्र सरकार शिक्षा नीति नहीं बना सकती है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति को राज्य सरकारों को विश्वास में लिए बिना तैयार किया गया है। शिक्षा नीति को केंद्र सरकार द्वारा राज्यों पर नहीं थोपा जा सकता है।Ó उप-मुख्यमंत्री डी.के. शिवकुमार ने केंद्र सरकार द्वारा लागू एनईपी-2020 को नागपुर एजुकेशन पॉलिसी करार देते हुए इसे कर्नाटक राज्य में रद्द किये जाने की घोषणा की है। उन्होंने केंद्र की शिक्षा नीति को शिक्षा का भगवाकरण करार देते हुए, हिंदुत्व की विचारधारा को प्रचारित-प्रसारित करने का आरोप लगाया है। अपने बयान में उन्होंने कहा, 'शिक्षा राज्य के दायरे में आती है। हम न्यू कर्नाटक एजुकेशन पालिसी की रुपरेखा को पेश करने जा रहे हैं।Ó
कर्नाटक की इस पहल का केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और शिक्षा मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने मुखर विरोध किया। अपने बयान में उन्होंने इसे कर्नाटक के छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ करना बताया है। केंद्र की नई शिक्षा नीति का पक्षपोषण करते हुए उनका कहना था कि कांग्रेस को एनईपी के लाभों के बारे में जानकारी नहीं है। शिक्षा मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने उप-मुख्यमंत्री के बयान की तीखी आलोचना करते हुए एनईपी को राजनीतिक दस्तावेज की जगह विजन डॉक्यूमेंट करार दिया है। उनका कहना है कि इसे देश के अग्रणी शिक्षाविदों द्वारा तैयार किया गया है। एनईपी 2020 को सबसे पहले लागू करने वाला प्रदेश कर्नाटक ही था, लेकिन 2023 के अंत के साथ कर्नाटक से इसकी विदाई तय हो गई। इसके साथ ही एनईपी के तहत 4 वर्ष के स्नातक कार्यक्रम को भी रद्द कर 3 वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम को लागू किये जाने की बात कही जा रही है। धर्मेन्द्र प्रधान ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए सवाल किये हैं, 'क्या वे कर्नाटक के युवाओं को अकादमिक क्रेडिट हासिल नहीं कराना चाहते हैं? छात्रों के लिए अकादमिक क्रेडिट बैंक नहीं होना चाहिए? क्या राज्य सरकार उच्च शैक्षिणक संस्थानों में विभिन्न प्रवेश एवं बहिर्गमन के विकल्पों को नहीं मुहैया कराना चाहते हैं, जिसका देश के सभी उच्च शिक्षण संस्थानों ने स्वागत किया है? क्या राज्य सरकार 21वीं सदी के लिए जरुरी नई पाठ्यपुस्तकों को राज्य के विद्यार्थियों के लिए आवश्यक नहीं मानते, जिसमें विज्ञान, भाषा, खेल, सामाजिक विज्ञान और कला पर समान जोर दिया गया है? आप देश के युवाओं को किस प्रकार का संदेश देना चाहते हैं।Ó
बेंगलुरु में पीपुल्स फोरम फॉर कर्नाटक एजुकेशन के बैनर तले एक सम्मेलन का आयोजन कर एनईपी को खत्म किये जाने और इसके स्थान पर राज्य शिक्षा नीति (एसईपी) से बदलने के कांग्रेस के फैसले का विरोध भी तेज हो गया है। भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री बासवराज बोम्मई ने प्रस्तावित शिक्षा नीति को सोनिया गांधी एजुकेशन पॉलिसी करार दिया है। इस सम्मेलन में पूर्व उपकुलपतियों में बी थिम्मे गौड़ा, मल्लेपुरम जी वेंकटेश, के आर वेणुगोपाल सहित मीना चंदावरकर ने भाग लेकर भाजपा के नेताओं के साथ मंच साझा किया। ऐसा जान पड़ता है कि केंद्र सरकार और भाजपा नई शिक्षा नीति के मुद्दे पर कर्नाटक सरकार से दो-दो हाथ करने के मूड में है।
इसी तरह तमिलनाडु में नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का विरोध जारी है। शिक्षा नीति 2020 में तीन भाषा का प्रावधान होना इसकी मुख्य वजह बताई जाती है। तमिलनाड़ु सरकार राज्य में दो भाषा (तमिल और अंग्रेजी) की नीति लेकर चलना चाहती है। बिहार के शिक्षामंत्री प्रोफेसर चंद्रशेखर ने भी शिक्षा नीति के विरोध में बयान दिया , लेकिन तर्क यह दिया कि राज्य में अभी इंफ्रास्ट्राक्चर की कमी है और कई तरह की दिक्कतें है, इसलिए नई शिक्षा नीति को लागू नहीं किया जा सकता।
(जारी...)
(लेखक पद्मश्री से सम्मानित देश के वरिष्ठ संपादक है)
