राजनीति नहीं, राष्ट्र नीति का विषय है

राजनीति नहीं, राष्ट्र नीति का विषय है
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राज कुमार सिंह

समान नागरिक संहिता के पक्ष में मंगलवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की स्पष्ट टिप्पणी पर देश में राजनीतिक दंगल शुरू हो गया है। मोदी के यह कहते ही कि जब एक घर दो कानून से नहीं चल सकता तो एक देश कैसे चल सकता है, न सिर्फ ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने रात में ऑनलाइन बैठक कर आलोचना की, बल्कि गैर भाजपा दल भी विरोध में उतर आये हैं। 22वें विधि आयोग द्वारा समान संहिता पर धार्मिक संस्थाओं और आम नागरिकों से 13 जुलाई, 2023 तक विचार और सुझाव मांगे जाने से यह मुद्दा चर्चा में तो पखवाड़े भर से था, लेकिन विदेश यात्रा से लौटते ही जिस तरह मोदी ने मोर्चा संभाला है, मुस्लिम समुदाय ही नहीं, विपक्षी दल भी आशंकित नजर आ रहे हैं। ध्यान रहे कि नवंबर, 2016 में भी विधि आयोग ने समान संहिता पर विचार आमंत्रित किये थे, जिनके आधार पर 2018 में उसने रिपोर्ट भी पेश की, जिसमें कहा गया कि विभिन्न समुदायों के निजी या पारिवारिक कानून के बदले समान संहिता जरूरी नहीं है। अब फिर सुझाव आमंत्रित करने को केंद्र सरकार के उस दिशा में बढ़ने का संकेत माना गया। यह भी कि भाजपा अगले लोकसभा चुनाव में समान संहिता को बड़ा मुद्दा बना कर मतों का धु्रवीकरण करना चाहती है। भाजपा शासित गुजरात और उत्तराखंड में समान संहिता की दिशा में काम शुरू होने से भी यही संकेत गया था कि मोदी सरकार दूसरे कार्यकाल के अंतिम चरण में एक और परंपरागत चुनावी वायदा पूरा करने जा रही है। जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाली संविधान की धारा 370 की समाप्ति की तरह देश में सभी नागरिकों के लिए समान कानून जनसंघ काल से ही भाजपा की घोषित वचन बद्धता रही है।

वर्ष 2019 के चुनाव में पिछली बार से भी अधिक 303 सीटें अकेले दम मिल जाने के बाद भाजपा और मोदी सरकार के तेवर बदले। नागरिकता संशोधन कानून से लेकर तीन तलाक और धारा 370 की समाप्ति तक देश पर दूरगामी असर डालने वाले फैसले उसके बाद ही लिये गये, जिन पर तीव्र राजनीतिक -सामाजिक प्रतिक्रिया भी हुई। इसी अवधि में अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का मार्ग भी देश की सर्वोच्च अदालत के निर्णय से प्रशस्त हो गया। संकेत है कि अगले लोकसभा चुनाव से पहले ही राम मंदिर का उद्घाटन हो जायेगा, जिसका लाभ भी भाजपा को मिलेगा ही, लेकिन समान संहिता पर मोदी की टिप्पणी का संकेत है कि लगातार तीसरी बार सत्ता का जनादेश लेने के लिए वह शायद अपने सभी परंपरागत वायदों को पूरा करने के रिपोर्ट कार्ड के साथ जाना चाहती है।

यही कारण है कि विधि आयोग द्वारा सुझाव मांगे जाने से शुरू हुई सुगबुगाहट अब राजनीतिक दंगल में तब्दील होती दिख रही है, पर इस बेहद संवेदनशील, मगर महत्वपूर्ण मुद्दे पर राजनीति करने वाले दोनों ही पक्षों को ध्यान रखना चाहिए कि यह नया या कृत्रिम विषय नहीं है। इतिहास के पन्ने पलटें तो 1835 में अंग्रेजी शासन ने भी महसूस किया था कि भारत को समान संहिता की जरूरत है, लेकिन उन्होंने विभिन्न समुदायों के निजी या पारिवारिक कानूनों को छेड़े बिना ही अपराध, सबूत और अनुबंध आदि मामलों में समान कानून की वकालत अपनी रिपोर्ट में की। आजादी के बाद संविधान सभा में भी समान संहिता पर विचारोत्तेजक बहस हुई। खासकर कन्हैयालाल मणिकलाल मुंशी ने इसके पक्ष और बी. पोकर साहब ने विपक्ष में जो कुछ कहा, वह पढ़ने और विचार करने योग्य है। समान कानून की सोच को अकसर मुस्लिम समुदाय के विरुद्ध बता कर उसका विरोध किया जाता है, जबकि सच यह है कि मुस्लिम ही नहीं, बल्कि विवाह, तलाक, गोद लेने और उत्तराधिकार आदि मामलों के लिए हिंदू समुदाय में भी धार्मिक -परंपरागत कानून हैं। सिख और जैन समुदाय में भी हिंदू लॉ चलता है, जबकि ईसाई और पारसी समुदाय के लिए अलग पर्सनल लॉ हैं।

ऐसे में बहस का मुद्दा संप्रदाय और सत्ता-राजनीति से परे व्यापक राष्ट्रहित होना चाहिए। अलग-अलग समुदाय के लिए अलग-अलग कानून से जटिलताएं तो पैदा होती हैं। सच यह भी है कि न सिर्फ अमेरिका जैसे बहुलतावादी विकसित लोकतांत्रिक देश में, बल्कि पाकिस्तान, बांग्लादेश, तुर्की, सूडान, मलयेशिया, मिस्र और इंडोनेशिया सरीखे देशों में भी सभी नागरिकों के लिए समान कानून लागू हैं। समान कानून की सोच सिद्धांतत: गलत नहीं। इस प्रक्रिया में सक्रिय भागीदारी से सही दिशा में बढ़ने की कोशिश सभी की जिम्मेदारी है। याद रखें कि समान कानून राजनीति नहीं, राष्ट्रनीति का विषय है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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