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14 अगस्त की मध्य रात्रि...

14 अगस्त की मध्य रात्रि...
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-एस. शंकर अनुरागी

विश्व इतिहास के पटल पर दुनिया भर के लोगों के लिये भारत में गुजरे 14 अगस्त 1946 का अनैसर्गिक बेबुनियादी बंटवारा अविस्मरणीय विश्व दिवस के रूप में सदा के लिये स्मरण में रहेगा। सैकड़ों वर्षों से विदेशी अक्रांताओं द्वारा पदभ्रमित यह राष्ट्र कराह रहा था, साथ ही मानवीयकर्ता के हिंसक एवं पशुवत बन चुके सात समुद्र पार से आये गोरे ईसाइयों के संवेदहीन काले कानून से देश मचल उठा था, हर तरफ आजादी की ज्वार उठ रही थी। आजादी के परवाने तिल-तिल मरने की बजाय कर्मवीर के रूप में बलिदान के लिये आतुर हो रहे थे। वंदे मातरम के जोशिले नीनाद ने सम्पूर्ण राष्ट्र में बीज मंत्र का काम किया। देश भर के युवाओं में स्वाधीनता के लिये एक नई शक्ति का संचार हुआ। देश की माताएं बहने तरूण तरूणी बाल वृक्ष गरीब मजदूर किसान, साहूकार सभी की आंखों में आजादी के सपने तैरने लगे। इस देश के नेताओं की सभाओं में भी बड़ी संख्या में भीड़ इकट्टी होने लगी। बड़े-बड़े आंदोलनों की लम्बी कतारें लग गई। राजनीतिक मंचों द्वारा आजादी का बिगुल बज चुका था। तथाकथित पराधीनता की कलुष बेला हटने वाली थी। अब लग रहा था कि देश का तत्कालीन नेतृत्व राष्ट्र को सशर्त आजाद करा लेगा। विदेशी अंग्रेजों एवं भारतीय नेताओं के बीच सामान्य एवं विशेष बैठकें शुरू हो गई। अब लग रहा था कि देश विदेशी चंगुल से मुक्त हो जायेगा। लगे भी क्यों नहीं आजादी की लड़ाई में बडे-बडे क्रांतिकारियों ने अपना बलिदान दिया था। प्रयास सार्थक होने के कारण आजादी संभव थी। ये अग्रेजों से मुक्ति की लड़ाई तो दूसरी थी पहली लड़ाई तो सन् 1857 में लड़ी गई थी इस संदर्भ में इसका प्रसंग रखना आवश्यक है।

आजादी के साल से करीब 60 साल पहले 1857 की क्रंाति के नाम से एक लड़ाई लड़ी गई थी। इसका नेतृत्व उस समय के मुगल शासन का अंतिम बादशाह बहादुर शाह जफर कर रहे थे। पूरे देश में रोटी और कमल की कहानी किसानों- साहूकारों,गरीब-अमीर, सेना-सिपाई, मालिक-मजदूर, सबके दिल में अंदर 1857 की क्रांति की नई इबारत लिख रही थी। पूरे देश में एक साथ आजादी का पाच्चजन्य शंख बजाने की तैयारी हो चुकी थी। दिन-दिनांक सब तय हो चुका था। यहां तक की समय भी तय हो गया था अब था तो केवल इंतजार वा निश्चित अवधि की।

सामूहिक क्रांति का बिगुल 10 मई 1857 को रविवार को शाम 4 बजे बजने वाला था क्योंकि रविवार को शाम में सभी अंग्रेंज प्रार्थना के लिये देश भर में अलग-अलग इकट्टे होते थे। अंग्रेंजों के सामूहिक नरसंहार की ऐसी ठोस योजना बनी थी कि सफलता के बाद विश्व के इतिहास में अंकित हो जाती। पर देश का दुर्भाग्य की क्रांति के प्रथम योद्धा ''मंगल पाण्डे'' को धैर्य साथ नहीं दे सका। उन्होंने अधीर होकर अपने अंग्रेज अधिकारी को गोली मार दी। अधिकारी की मौके पर मृत्यु हो गई। समय से पहले भड़की सैन्य हिंसा से देश भर में चर्चा का विषय बन गया। आखिरकार मंगल पाण्डे गिरफ्तार हुये। उनको फांसी की सजा सुनाई गई और 8 अप्रैल 1857 को उनकी फांसी हो गई। 1857 की क्रांति का पहला शहीद मंगल पाण्डे ही था। मंगल पाण्डे के विद्रोह के पीछे मूल कारण था, कारतूसों के ऊपर लगी गाय व सूअर की चर्बी। जो कि दंात से खींचना पड़ता था। इस बात को लेकर सैनिकों के साथ-साथ देश भर के लोगों में असंतोष था। गाय और सुअर से हिंदु मुसलमान दोनों की आस्था जुड़ी थी। मंगल पाण्डे की फांसी की सजा पूरे देश में अंसतोष बनकर उभारा फिर क्या था आगरा,मेरठ,लखनउ सभी सैनिक छावनीयों में सैन्य विद्रोह हो गया। अंग्रेंज अधिकारियों को मौत के घाट उतारे जाने लगा। सैनिक सीधे दिल्ली की ओर कूच करने लगे बहादुर शाह जफर तात्या टोपे बिठूर के राजा नाना साहब पेशवा के नेतृत्व में स्वंतत्रता की सामरिक लडाई लडी गई। 18 अप्रैल 1857 को तात्या टोपे शहीद हुये। लार्ड डलहौजी की हड़प नीति के विरोध में झांसी की रानी ने भी युद्ध किया और कहा कि मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी। इस महा संग्राम में इस रणचन्डी ने अपने प्राणों की आहुति दे दिया और काल्पी के निकट 18 जून 1856 को शहीद हो गयी थी। यह इतिहास में भारत की पहली स्वाधीनता की लड़ाई थी। इस लड़ाई में महाभारत काल के बाद पहली बार इतने हिंदुओं को कत्ले आम हुआ था। कहा जाता है कि तकरीबन प्रथम स्वतंत्रता समर में करीब तीन लाख लोगों को अग्रेंजो ने मौत के घाट उतारा था।

भारत की आजादी की यह दूसरी लडाई थी जिसको काग्रेस का शीर्ष नेतृत्व महात्मा गांधी- पंडित नेहरू के साथ लड़ रहे थे। अब देश आजाद होने वाला है। सता मिलने के बाद देश की बागडौर किसके हाथ में रहेगी। अब इसका चिंतन होने लगा था। सांपनाथ-नागनाथ की लड़ाई शुरू भी हो गई थी एक तरफ मो. अली जिन्ना व दूसरी तरफ पं. नेहरू प्रधानमंत्री की दावेदारी कर रहे थे। बीच में मध्यस्था करने वाले गांधी जी थे। अब धृतराष्ट्र पुत्र मौह में फंस चुका था। गांधी जी ने जिन्ना को समझाने का भरसक प्रयास किया लेकिन बात नहीं बनी द्विराष्ट्र की संकल्पना साकार होने लगी। गांधी जी के सामने दूसरे देश पाकिस्तान की मांग उठने लगी। अब गांधी जी के सामने यक्ष प्रश्न था कि द्विराष्ट्र सिंद्धात को माना जाये नहीं तो जिन्ना को भारत का प्रधानमंत्री बनाया जाये जो कि नेहरू के चलते संभव नहीं था। नेशन की संकल्पना की संभावना को समाप्त करने के लिये कांग्रेस ने कहा था कि देश का बंटवारा मेरी लाश से होगा लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था देश बंटवारे के मुद्दे पर कांग्रेस अंग्रेजों के चगुंल में फंस चुकी थी, गांधी जी एवं सत्ता के लोभियों के सामने देश-विभाजन ही एक मात्र उपाय सूझा, भारत मां के टुकड़े करके आजादी के सपने संजोने वालों ने देश के विभाजन का निर्णय ले ही लिया। विभाजन की नियति को टालने के लिये देश के महापुरूषों ने मनीषियों ने ज्योतिषियों ने भी मना किया लेकिन आंदोलन करते-करते थक चुके नेताओं ने किसी की नहीं सुनी और 14 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि को देश विभाजन स्वीकार कर लिया। एक बात आज तक समझ में नहीं आई कि गांधी-नेहरू दो विचारों वाले अलग-अलग धु्रव थे। फिर भी गांधी जी की नेहरू पर असीम कृपा थी। एक त्यागी था तो दूसरा संग्रही था। गांधी जी प्राचीन भारत के समावेशी थे तो नेहरू नयापन में विश्वास रखते थे। एक योगी था तो दूसरा भोगी था। फिर भी गांधी ने नेहरू जी के लिये राष्ट्र विभाजन जैसा कदम उठा लिया आखिर नेहरू जी में वो कौन सी चीज गांधी जी को दिखती थी, कि मां भारती के टुकड़े करने से पहले एक बार भी नहीं सोचा वो लोग सोचते भी कैसे ये तो 1857 की क्रांति के बाद भारत का सांतवा बंटवारा इस प्रकार से हमारी मातृ भूमि के दो टुकडे 14 अगस्त 1947 को हो गया और आपसी कलह से नये राष्ट्र पाकिस्तान का उदय हुआ। राजनैतिक नेतृत्व के पास संयम था ही नहीं कि जिन क्रांतिकारियों ने पूरे राष्ट्र की स्वाधीनता की लडाई लडी, फांसी पर हंसते-हंसते झूल गये अपनी कनपट्टी पर पिस्टल से गोली तक मार ली। उनके सपने का पूर्ण भारत को खण्डित रूप में स्वीकार कर लिया और शहीदों की शहादत को लांछित करते हुये सत्ता की कुर्सी पर अपनी ताजपोशी कर ली ।

Updated : 14 Aug 2018 3:16 PM GMT
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