समरसता के संदेश वाहक: स्वामी विवेकानन्द

समरसता के संदेश वाहक: स्वामी विवेकानन्द
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डॉ. आनन्द कुमार शर्मा

पुण्य प्रसूता भारत माता ने पवित्र भारतीय धरा पर समय-समय पर ऐसे महान सपूतों को जन्म दिया, जिन्होंने भारत के सामाजिक ताने-बाने को गंभीरता के साथ प्रभावित किया। स्वामी विवेकानन्द उनमें प्रमुख थे। वस्तुत: स्वामी विवेकानन्द एक ऐसे राष्ट्रवादी चिन्तन थे, जिन्होंने तत्कालीन भारतीय समाज के उत्थान और प्रगति को राष्ट्र की उन्नति के लिए आवश्यक समझा। उनकी स्पष्ट धारणा थी कि, भारत के समग्र समाज के उत्थान से ही राष्ट्र का उत्थान होगा और इसी से राष्ट्र का नव जागरण होगा। स्वामी विवेकानन्द ने अपने विचारों में सदैव सकारात्मक समानता पर आधारित 'सामाजिक व्यवस्थाÓ को प्रश्रय प्रदान किया गया है। कहने का तात्पर्य यह है कि, विवेकानन्द भारत की सामाजिक व्यवस्था को सकारात्मक विचारधारा एवं समानता के मानदण्डों पर आधारित देखना चाहते थे। विवेकानन्द भारत के सामाजिक विकास में समाज के प्रत्येक व्यक्ति की उपयोगी भूमिका निश्चित करना चाहते थे। इसके लिए समाज के सभी व्यक्तियों को धन, विद्या, ज्ञान उपार्जन करने के लिए एक समान अवसर मिलना चाहिए। विवेकानन्द की स्पष्ट धारणा थी कि भारतीय समाज के विकास में भारत के समाज के हर व्यक्ति को अपनी भूमिका को निभाना होगा। यदि प्रत्येक व्यक्ति ईमानदारी से अपनी भूमिका का पालन करे, तो ही समाज का विकास हो सकेगा। समाज के विकास के लिए विवेकानन्द सकारात्मक विचारधारा को आवश्यक मानते थे। उनका मानना था कि समाज और व्यक्ति का अस्तित्व सकारात्मक कार्यों के लिए है। यदि समाज और व्यक्ति नकारात्मक कार्य करने लगेंंगे तो समाज की व्यवस्था पर संकट उत्पन्न हो जायेगा। विवेकानन्द चाहते थे कि, मनुष्य को समाज के विकास के लिए अपनी ऊर्जा को सकारात्मक कार्यो में लगाना चाहिए, तभी समाज का यथेष्ठ विकास हो सकेगा। परोपकार्य में भारतीय संस्कृति की मानवता का मूल मंत्र छिपा हुआ है। विवेकानन्द जानते थे कि, भारतीय संस्कृति लोगों को परोपकार्य के लिए प्रेरित करती है। भारतीय संस्कृति की आत्मा में आत्म त्याग और परोपकार्य के गुण स्पंदन करते है और इसी स्पंदन में भारतीय समाज की मानवता विद्यमान है। विवेकानन्द का मानना था कि, समाज के समुचित कल्याण और विकास के लिए समाज के व्यक्तियों को नि:स्वार्थ भाव से सकारात्मक उद्यम करना चाहिए। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि विवेकानन्द समाज के प्रत्येक व्यक्ति से यह अपेक्षा करते थे कि वह समाज के उत्थान और कल्याण के लिए नि:स्वार्थ भाव से कार्य करेगा।

स्वामी विवेकानन्द ने एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था की परिकल्पना करते थे, जो समानता पर आधारित हो। विवेकानन्द ने तत्कालीन भारतीय समाज को खुली आँखों से देखा और अपनी स्पष्ट प्रखर वाणी से समाज में व्याप्त कुरीतियों और अंध विश्वासों पर करारा प्रहार करने में उन्हें कोई हिचकिचाहट नहीं हुई। उन्होंने कड़े शब्दों में भारतीय समाज के विकृत होते स्वरूप पर अपनी असहमति प्रकट करते हुए कहा था कि, भारतवर्ष के गरीबों और निम्नवर्ग के लोगों की दशा देखकर मेरा हृदय फटा जाता है। विवेकानन्द भारतीय समाज में व्याप्त असमानता की परिपाटी के सख्त विरोधी थे। विवेकानन्द का मन भारतीय समाज की विषमताओं के मकड़ जाल में जकड़े होने से द्रवित था, वे भारतीय समाज में सभी को समान देखना चाहते थे, ऊँच-नीच और जाति-पांति के विषय बंधनों के प्रति उनकी भृकुटी सदैव तनी रहती थी, वे समाज से मनुष्य का मनुष्य के प्रति भेद को समाप्त करना चाहते थे। मनुष्य का स्तर धन और जाति के आधार पर समाज में निर्धारित नहीं होना चाहिए, अपितु श्रेष्ठ गुणों के आधार पर व्यक्ति समाज में जाना, जाना चाहिए। विवेकानन्द भारतीय समाज में व्याप्त छुआछूत ऊँच-नीच एवं जाति भेद जैसे जहरीले तत्वों को समाप्त करना चाहते थे। केरल में व्याप्त भयावह जातिवाद को देखकर स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि, केरल तो एक पागलखाना हो गया है। विवेकानन्द ने अस्पृश्यता (छुआछूत) को एक घृणित अपराध माना। उन्होंने बड़े ही तल्ख लहजे में कहा था कि, हम यह कैसे कह सकते है, हम मनुष्य हो के मनुष्य को छूते नहीं है, एक मनुष्य दूसरे मनुष्य की संगति से दूर भागता है। ये कैसा धर्म है, जिसके अनुयायी एक - दूसरे को छूने से डरते है, छूने से उनका धर्म नष्ट और भ्रष्ट हो जाता है। विवेकानन्द ने भारतीय समाज में व्याप्त छुआछूत पर गहरी संवेदना व्यक्त करते हुए भारतीयों से अपेक्षा की थी कि, वे छुआछूत को समाप्त करके स्वस्थ्य भारतीय समाज के निर्माण की ओर बढ़ेंगे। स्वामी विवेकानन्द ने छुआछूत पर प्रहार करते हुए कहा था कि, सभी प्राणियों को स्वयं अपनी आत्मा के समान देखो......मत छुओवाद एक प्रकार का मानसिक रोग है। संकीर्णता मृत्यु है। मुझको मत छुओ - सारा संसार अपवित्र है और केवल मैं ही पवित्र हूँ....मिथ्या है।

स्वामी विवेकानन्द दलित और अस्पृश्य जातियों में सांस्कृतिक तत्वों के प्रसार-प्रचार के द्वारा उनके कल्याण और उत्थान की परिकल्पना करते हंै। विवेकानन्द का मानना था कि, दलितों एवं अस्पृश्य जातियों को भारतीय संस्कृति के उच्च प्रतिमानों की शिक्षा देनी चाहिए। उन्हें समाज का सुसंस्कृत नागरिक बनाकर, समाज में उच्च स्थान प्रदान किया जाना चाहिए। विवेकानन्द कहते थे कि, शिक्षा से आत्मविश्वास आता है, जीवन निर्माण के लिए समाज के सभी लोगों को शिक्षित होना चाहिए। दीन हीन अवस्था को प्राप्त लोगों में आत्मबल और आत्मविश्वास बढ़ाकर उनका मनोबल बढ़ाना है।

स्वामी विवेकानन्द ने जाति भेद को भी भारतीय समाज के लिए घातक तत्व माना। विवेकानन्द मानते थे कि, जाति भेद भारतीय सामाजिक व्यवस्था में घृणा पैदा कर रहा है। जाति भेद समाज के स्वरूप को घिनौना और विकृत बनाता जा रहा है। जाति भेद को समाप्त करने के लिए व्यक्ति के व्यक्तित्व को उन्नत बनाने को प्रमुख मानते थे। विवेकानन्द कहते थे कि वर्तमान जातिभेद भारतवर्ष की उन्नति में बाधक है। वह संकीर्ण बनाता है, बाधा पहुंचाता है और अलग करता है। विचारों की प्रगति होने पर वह नष्ट हो जायेगा। विवेकानन्द की स्पष्ट धारणा थी कि, व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को उन्नत करके जाति-भेद को चुनौती दे सकता है, क्योंकि उच्च सांस्कृतिक विचारधारा से परिपूर्ण व्यक्तित्व समाज की भेदभाव मूलक व्यवस्था को ध्वस्त कर सकता है। विवेकानन्द मानते थे कि, जाति व्यवस्था के स्थान पर गुणों पर आधारित 'वर्ण - व्यवस्थाÓ को समाज में प्रतिष्ठित किया जाना चाहिए। इस प्रकार स्पष्ट है कि, विवेकानन्द जाति जो जन्म पर आधारित थी, को समाप्त करके समाज में वर्ण-व्यवस्था की स्थापना करना चाहते थे, जो व्यक्ति के गुणों पर आधारित होती थी। स्वामी विवेकानन्द ने बड़े ही सख्त और तल्ख शब्दों में कहा था कि, श्रमजीवी शूद्रों के शारीरिक श्रम पर ही समाज का ऐश्वर्य और शक्ति निर्भर है। स्मरण रहे - राष्ट्र झोपड़ियों में बसता है। गरीबों में रक्तबीज की अक्षय जीवन शक्ति भरी है। अत: उनका कल्याण और उन्नति हमारा कर्त्तव्य है। उन्होंने ब्राह्मणों की अनुदारता और प्रतिष्ठा का विरोध करते हुए, सामाजिक एकता का संदेश दिया।

स्वामी विवेकानन्द ने सदैव सभी प्रकार के जाति-भेद, ऊँच-नीच, अमीर-गरीब जैसे अमानवीय और दकियानूसी विचारधारा का विरोध किया। उन्होंने मनुष्य के श्रेष्ठ गुणों का सदैव आदर किया और उन्होंने लोगों से आव्हान किया कि, वे अपने व्यक्तित्व को सांस्कृतिक गुणों से परिपूर्ण करके उच्च बनायें। विवेकानन्द ने उच्च वर्णों से अपेक्षा की कि, गरीबों, अभावग्रस्तों, पीड़ितों, दलितों सभी की सेवा करें, ताकि उनका उत्थान हो सके। विवेकानन्द मानते थे कि, मनुष्य रूप की उपासना ही सबसे उत्तम है। दरिद्र नारायण की सेवा करो। विवेकानन्द ने गरीबों, अभावग्रस्तों, पीड़ितों, दलितों सभी को अपने सीने से लगाया और उन्होंने कहा कि, सभी लोग रामकृष्ण की शरण में आ सकते है। वस्तुत: वे एक अखण्ड भारतीय जाति संगठित करने के पक्षपाती थे। विवेकानन्द ने एक ऐसी सामाजिक - व्यवस्था की कामना की थी, जिसमें लोगों को उनके व्यक्तित्व और गुणों के आधार पर स्थान मिले और समाज में सभी लोगों के साथ समानता का व्यवहार किया जाये। वस्तुत: स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गाँधी के समान ही मानव सेवा के प्रयोजन से ही राष्ट्र-जागरण के अभिलाषी थे। (लेखक इतिहासविद् हैं)

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