राष्ट्रीय चेतना के वाहक मैथिलीशरण गुप्त

राष्ट्रीय चेतना के वाहक मैथिलीशरण गुप्त
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जयंती पर विशेष

शिवकुमार शर्मा

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय अपनी कृति भारत- भारती समाज को सौंपकर क्रांति को तीव्रतर करने में महनीय योगदान देने वाले राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का जन्म 3 अगस्त 1886 को झांसी के निकट चिरगांव में सेठ राम चरण कनकने और माता काशीबाई की तीसरी संतान के रूप में हुआ था। राष्ट्रीय चेतना के वाहक गुप्त जी के बचपन का नाम मिथिलाधिप नंदन शरण था जिसे विद्यालय में नाम लिखे जाते समय छोटा करने के लिए मैथिलीशरण कर दिया गया। बचपन में वे 'स्वर्णालताÓ नाम से छप्पय लिखते थे। किशोरावस्था में रसिकेश, रसिकेन्दुनाम से लिखने लगे।अनुवाद का काम 'मधुपÓ नाम से किया भारतीय तथा नित्यानंद नाम वर्तनी सरकार के विरुद्ध लिखी जाने वाली कविताओं में किया। वैश्य के घर जन्म लेने के कारण 'गुप्तÓ लिखते थे लेकिन वे यथार्थ में गुप्त न होकर देश के ज्ञातनाम-ख्यातनाम कवि हुए हैं।

साहित्यकारों में बड़े सम्मान के साथ उन्हें 'दद्दाÓ नाम से भी संबोधित किया जाता था। उनकी कविताएं मातृभूमि का अर्चन है ,देश प्रेम का संगीत है, राष्ट्रीय चेतना का उद्घोष है, ऊर्जावान बनाने वाली हैं। उनकी रचनाओं में मानवतावादी दृष्टिकोण,नैतिकता और भारत की सांस्कृतिक गरिमा समाई हुई है।

भारत भारती की पंक्तियां-

मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती, भगवान भारतवर्ष में गूंजे हमारी भारती।

हो भद्र भावोद्भाविनी वह भारती हे भगवते,

सीतापते! सीतापते! गीता मते !गीता मते! ।।

व्यक्तिगत सत्याग्रह में भाग लेने के कारण 1941 में गिरफ्तार कर लिए गए थे, पहले उन्हें झांसी फिर आगरा की जेल में रखा गया। 7 महीने बाद आरोप प्रमाणित न होने पर रिहा कर दिया गया। 1948 में आगरा विश्वविद्यालय ने उन्हें डी. लिट. की उपाधि से सम्मानित किया ।1952 से 64 तक राज्यसभा के सदस्य मनोनीत हुए। 1953 में भारत सरकार ने पद्म विभूषण से सम्मानित किया। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने सन 1962 में अभिनंदन ग्रंथ भेंट किया तथा हिंदू विश्वविद्यालय द्वारा डी. लिट. की उपाधि से सम्मानित किए गए। उन्होंने चिरगांव में 1911 में साहित्य सदन नाम से स्वयं की प्रेस आरंभ की तथा 1954- 55 में मानस मुद्रण की स्थापना झांसी में की। उन्होंने साकेत महाकाव्य तथा रंग में भंग, जयद्रथ वध, शकुंतला, पंचवटी, किसान, सऐरन्ध्रई, बकसंहार, वन वैभव, शक्ति, यशोधरा, द्वापर, सिद्धराज, नहुष, कुणाल गीत, कर्बला, अजित, हिडिंबा, विष्णुप्रिया, रत्नावली, उर्मिला, जैसे खंडकाव्यों की रचना की, वहीं निबंध काव्य भारत- भारती, हिंदू, राज प्रजा ,विजय पर्व लिखे। उनके पद्य नाटकों में अनघ, देवदास, पृथ्वी पुत्र, जयिनी और लीला तथा गद्य नाटकों में तिलोत्तमा, चंद्रहास और उद्धार हैं । संस्कृत से अनुदित ग्रंथों में स्वप्नवासवदत्ता, गीतामृत, दूत घटोत्कच अविमारक, प्रतिमा, अभिषेक, उरुभंग आदि इसी प्रकार बंगला से अनुदित विरहिणी, बज्रांगना पलासी का युद्ध, वीरांगना, मेघनाथ वध, वृत्र संघार जैसी कृतियां उनकी रचना धर्मिता के फलितार्थ हैं।

असीम ऊर्जा, उत्साह और उमंग से भरने वाली उनकी कविताओं का कोई जोड़ नहीं हैं-

नर हो न निराश करो मन को,

कुछ काम करो कुछ काम करो,

जग में रहकर कुछ नाम करो ।

यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो ।।

समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो ,

कुछ तो उपयुक्त करो तन को।

नर हो न निराश करो मन को।।

स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी पंक्तियां मंत्रों का काम करती थी 'जो भरा नहीं है भावों से जिसमें बहती रसधार नहीं, वह हृदय नहीं है पत्थर है जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।Ó

राष्ट्रीयता के संवाहक, भारत की गरिमा के गायक मातृभूमि और मातृभाषा के सच्चे सेवक कविवर मैथिलीशरण गुप्त को विनत भाव से शत-शत वंदन।

(लेखक महिला एवं बाल विकास विभाग में संयुक्त संचालक है)

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