अमृतोद्भवा जल धरा

जल ही जीवन है, यह वाक्य केवल एक पर्यावरणीय चेतावनी नहीं, बल्कि भारतीय चिंतन की आत्मा है। जल घरा इसी विराट दृष्टि की एक समर्पित प्रस्तुति है। जिसे मध्य प्रदेश सरकार के जल गंगा संवर्धन अभियान के अंतर्गत वीर भारत न्यास द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसका उद्देश्य केवल नदियों के भूगोल, इतिहास अथवा पर्यावरणीय संकटों को उजागर करना नहीं है, बल्कि उनके भीतर प्रवाहित उस सांस्कृतिक चेतना, पौराणिक स्मृति और आध्यात्मिक अनुकरणीयता को रेखांकित करना है, जो सदियों से भारतीय मानस का मूल स्रोत रही है।
प्राचीन भारत की सभ्यताओं का केंद्र जल रहा है। सिंधु, सरस्वती, गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा, शिप्रा, कावेरी जैसी नदियाँ न केवल भौगोलिक दृष्टि से महत्वपूर्ण रही है, बल्कि उन्होंने सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के निर्माण में भी अनुपम भूमिका निभाई है। यही नहीं, भारत ही नहीं विश्व की अनेक नदियाँ नील, अमेजन, मिसिसिपी, यांग्त्से, डेन्यूब आदि ने भी वहाँ की सभ्यताओं को आकार दिया और लोककथाओं, जीवन-शैली और दर्शन को गहराई प्रदान की। 'जल धरा' इस वैश्विक विमर्श को भारतीय परिप्रेक्ष्य में जोड़ती है और एक वैश्विक जल चेतना का निर्माण करने की और अग्रसर होती है। हमारे यहाँ ऋग्वेद से लेकर पुराणों, महाकाव्यों, लोककथाओं, भक्तिकाव्य और आधुनिक साहित्य तक जल की प्रतिष्ठा का जो विस्तृत एवं सघन स्वरूप देखने को मिलता है।
हमारे अध्यवसाय और चिन्तन में यह लगातार स्पष्ट होता रहा है कि पृथ्वी के तीन हिस्से में जल है। हमारे शरीर के भी तीन हिस्से में पानी ही है। ऐसे में पानी के महत्व और उसकी केन्द्रीयता को सहज ही देखा जा सकता है। यह स्मरण करना उचित ही होगा कि आदिकवि के मुँह से निःसृत कविता का रिश्ता नदी से (तमसा) भी बनता है। इस तरह हम कह सकते हैं कि आरंभ से ही नदी और कविता का रिश्ता अनन्य है। एक कवि ने कविता को नदी-धर और नदी को कविता-धर्मा कहा है, जो कि इस परिप्रेक्ष्य में सम्पूर्णतः समीचीन ही है।
पृथ्वी पानी का देश ही है। भारतीय परंपरा में क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर ईश्वरीय देन हैं। सृष्टि का आरंभ भी सबसे पहले अगाध जल राशि से ही हुआ था। जल और जल के साथ-साथ अपौरुषेय वेद सृष्टि की सर्वप्रथम रचना है। पृथ्वी भी इनके बाद मेदिनी के रूप में अस्तित्व में आयी। परंतु समय के साथ-साथ ही लोभ-लूट की लालसा से रची बनी उपभोक्तावादी समाज रचना ने जल और वेद निधि का क्षरण करना शुरू कर दिया है। आज वैदिक संपदा भी और सदानीरा जल भी पूर्णतः संकटापन्न हैं और इनके संकटग्रस्त होते जाने से पूरी सभ्यता, संस्कृति और सृष्टि के अस्तित्व का संकट ही हमारे सामने आ खड़ा हुआ है।
यह जल ही है जो अमृतोद्भव है। जीवन जगत को अमरता प्रदान करता है। समुद्र मंथन की कथा भी यही प्रतिति कराती है कि भारतवर्ष की नदियों में विलीन अमृत की चार बूँदों ने हजारों-हजार वर्ष से हमारे समाज को प्राण समृद्ध किया है। यह जल निधि ही है जो जीवन को कभी जीर्ण नहीं होने देता। जल ही सृष्टि का अमर फल है, बीज तत्व है। आदि-अनादि की जल सरिताएँ ही भारतीय अंतःकरण में रची बसी हैं। हजारों-हजार वर्ष पहले सृजित ऋग्वेद के नदी सूक्त से लेकर नर्मदाष्टकम्, गंगालहरी से होते हुए विरासत की सदानीरा हमारे साहित्य में, हमारी कविताओं में, हिन्दी में, भारतीय भाषाओं में, बोलियों में, लोकजीवन में निरंतर प्रवाहित है।
समस्त सभ्यताओं और संस्कृतियों का विकास नदी तटों पर ही प्रारम्भ हुआ और फला-फूला। इसीलिए भारतीय आर्थ परम्परा में जल को देव की संज्ञा देते हुए विशेष महिमा कही गई है। जल पंचतत्वों में गण्य है। यह पृथ्वी का प्राणतत्व है और इस अर्थ में नदी इस प्राणतत्व की वाहिनी है। अथर्ववेद के एक सूक्त में इस 'नदी' नाम-संज्ञा का विशिष्ट विवेचन प्राप्त होता है- यददः संप्रयतीरहावनदता हते। तरगादा नद्यो नाम स्थ ता वो नामानि सिन्धवः॥ अर्थात् -हे सरिताओं! आप भली प्रकार से सदैव गतिशील रहने वाली हैं। मेघों के गरजने और बरसने के बाद आप जो कल-कल ध्वनि का नाद करती है, इसी से आपका नाम नदी पड़ा। यह नाम आपके अनुरूप ही है।
प्राचीन काल से ही हमारे यहाँ नदियों के माहात्म्य को परिभाषित किया जाता रहा है। नदियों के प्रति इसी श्रद्धाभाव से इनके पावन तटों पर श्राद्ध परम्परा का विकास हुआ। समस्त पावन तीर्थ नदी तटों पर प्रादुर्भूत और विकसित हुए। यहाँ तक कि नदियों के पवित्र तटों, इसके प्रवाह क्षेत्र के प्रदेशों, तटवती नगरों एवं गाँवों तक की महिमा के किस्से और किंवदतियों कहने-सुनने की परम्परा विकसित हुई। वैदिक कालीन साहित्य में तो जल को 'आपः' की संज्ञा से सम्बोधित किया गया है। ऋग्वेद में कहा गया है:- आपः पृणीत भेषजं वरूथं तन्वे३ मम। ज्योक् च सूर्य दूशे॥ वस्तुतः जल सच्चे अर्थों में पृथ्वी पर उपलव्ध महारत्न है पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम्। (चाणक्य नीति अध्याय दर, सूत्र 1)। इसलिए इसकी प्रत्येक बूँद को सहेजने के उपाय किये जाने चाहिए, यही वर्तमान की आवश्यकता है और भविष्य की अनिवार्यता भी, क्योंकि आज (कु) समय के प्रभाव में कई नदियों अपना अस्तित्व खो रही हैं, कई जलधाराएँ क्षीण हो रही हैं। वहीं अनेक नदियाँ तो लुप्त भी हो चुकी हैं, वे अब सिर्फ लोक की स्मृति में बची हुई हैं। ग्लोबल वार्मिंग के खतरों से हम सभी परिचित हैं और इसके खतरे को देख-समझ और भोग भी रहे हैं। ऐसी विकट स्थितियों और आसन्न संकटों से समय और समाज को सचेत करना और इस दिशा में सामूहिक प्रयास करना हम सब का साझा दायित्व है।
भारत वर्ष ने हमेशा ही अपने वृद्ध संकल्प, विलक्षण विचारों, आर्ष अंतःकरण, आध्यात्मिक विद्या तथा विज्ञान की समृद्ध दृष्टि से देश और दुनिया को सदैव आलोकित किया है। लेकिन औपनिवेशिक दासता और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के पिछले अनेक वर्षों में हमने भारतीय चित्त, चिति और विज्ञान के अविचल संबंध को, उससे बनी आत्मविश्वास पूर्ण संरचना को बिसरा दिया है। इसीलिए औपनिवेशिक दासता की छाया से हम बहुत हद तक आज भी मुक्त नहीं हो पाए हैं और यही बड़ा कारण है कि आज भी हम आधुनिकता के हज़ारों-हज़ार संकटों में घिरे हुए हैं। हमारे असंख्य संकटों में एक महासंकट जल संकट भी है। यह संकट केवल हमारा ही नहीं है बल्कि पूरी दुनिया इससे भयाकांत है।
यह अधिक वर्ष पुरानी बात नहीं है जब हमें हमारी परंपरा बताती थी कि मध्यप्रदेश में सैंकड़ों नदियाँ और हज़ारों जल संरचनाएँ मध्यप्रदेश को समृद्धि और वैभव प्रदान कर रही थीं। मध्यप्रदेश भगवान परशुराम, महर्षि सांदीपनि, अवंती महाजनपद, सम्राट विक्रमादित्य, वराहमिहिर आज के ज़माने में साधन सम्पन्नता और उच्च जीवन स्तर के मानक रूप में प्रतिष्ठित रहा है। परंतु अब यह स्वैरकल्पना का विषय भर रह गया है।
वर्तमान में हमारे यहाँ कोई 269 नदियों के बारे में परंपरा में और दस्तावेज़ों में उल्लेख मिलते हैं जिनका विस्तार 50 कि.मी. या उससे ज्यादा है जबकि कोई 750 नदियाँ 10 कि.मी. या उससे अधिक विस्तार वाली हैं। इसमें भी बहुत सी जल संरचनाएँ विलुप्ति की दिशा में अग्रसर हैं। जल परंपरा के विलोप होते जाने का अर्थ ही है कि जीवन, सभ्यता, संस्कृति भी क्षरण ओर बड़ी तेज़ी से अग्रसर है। निश्चित रूप से जीवन जगत की रक्षा के लिए जल परम्परा को, जल निधि को संरक्षित-संवर्धित किए जाने की सर्वोपरि आवश्यकता है। मध्यप्रदेश निर्माण के अपने महती संकल्पों में जल गंगा संवर्धन को विशेष अभियान के रूप में सम्मिलित किया है। पारंपरिक देशज दृष्टि और संरकार के अनुरूप जल तथा प्रकृति के प्रति संवेदनशील वैज्ञानिक दृष्टि से जल के औषध तत्व, उसकी सार्वभौमिकता को आत्मसात किया जाना चाहिए। प्रदेश की सभी जल संरचनाओं के संरक्षण संवर्धन हेतु आरम्भ किये गए महत्वपूर्ण "जल गंगा संवर्धन अभियान' के स्वरूप और इस पर कार्य किये जाने हेतु प्राचीन वांग्मय परम्परा लोक आख्यान संदर्भ के साथ वैज्ञानिक विश्लेषण आधारित ग्रंथों का प्रकाशन संस्कृति विभाग, वीर भारत न्यास एवं म.प्र. विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद् द्वारा किया गया है।
इसमें मध्य प्रदेश की समस्त नदियों, उनके उद्गम स्थल, झरने, जल प्रपातो, बावडियो, कुओ की जल गुणवत्ता एवं समस्त पारम्परिक जल स्रोतों की सेटेलाइट मैपिंग का जिलेवार कार्य प्राथमिकता के आधार पर किया गया है। मध्यप्रदेश में जल के क्षेत्र में किये जाने वाले उल्लेखनीय योगदान के तहत किये गए कार्यों और एकत्र आंकडों को और भी अधिक उपयोगी बनाने हेतु एक पोर्टल का निर्माण भी किया जायेगा। अत्याधुनिक तकनीक हाई रेज्यूलुशन सेटेलाईट छायाचित्रों का उपयोग करते हुये जल संरचनाओं के संरक्षण पर केन्द्रित एक मोबाइल एप भी बनाया जाएगा, जिसके आधार पर जन संरचनाओं में प्रदूषण की निगरानी की जा सकेगी।
एक अध्ययन के परिणाम स्वरूप यह भी ज्ञात हुआ है कि प्रदेश में वर्ष 2016-17 में क्षेत्रफल की दृष्टि से 2.25 हेक्ट में बड़े जलाशयों की कुल संख्या 13602 थी जबकि 2023-24 में यह संख्या बढ़कर 16,840 हो गयी। जिनेवार जलाशयों की संख्या का यह आंकड़ा काफी रोचक है। वर्तमान में यदि 0.1 हेक्ट में छोटी सभी जल संरचनाओं की बात की जाए तो प्रदेश में 1 लाख 48 हज़ार में भी अधिक जल संरचनाएँ अस्तित्व में है। गत वर्षों में कुछ जल संरचनाएँ लुप्त भी हुई है, जबकि अनेक संरचनाएँ नयी बनी हैं। लुप्त होने वाली जल संरचनाओं की चिन्हित कर उनके विलुप्त होने के कारणों का भी पता लगाया जावेगा। सैटेलाइट छायाचित्रों के आधार पर जलसंरचनाओं के क्षेत्रफल, जलभराव की स्थिति, गंदलेपन व जलीय वनस्पतियों की उपस्थिति, जलग्रहण क्षेत्र में होने वाले अतिक्रमण तथा आस-पास के पर्यावरण का अध्ययन किया जा रहा है।
इसी प्रकार बेसिन आधारित मध्यप्रदेश की प्रमुख नदियों की जिलेवार लम्बाई व उपलब्ध जल की मात्रा व जल के उपयोग का पता लगाया जा रहा है। यदि कैचमेंट के आधार पर नदियों की गणना की जावे तो पूरे प्रदेश में 300 से भी अधिक नदियों की उपस्थिति के प्रमाण मिलते है। सेटेलाइट छाया चित्रों के आधार पर इन समस्त नदियों के बारहमासी जल (सदानीर) एवं सूखे क्षेत्र को अलग से मैपिंग की जाने की योजना है, जिससे नदी पुनर्जीवन एवं रिचार्ज परियोजनाओं को आगे बढ़ने हेतु स्थल चयन का कार्य किया जा सकेगा। नदियों के जलग्रहण क्षेत्र के लैंडयूज-लैंडकवर का अध्ययन कर उनमें हो रहे अतिक्रमण और प्रदूषण के संभावित स्रोतों का पता भी लगाया जा रहा है।
मध्यप्रदेश नदियों का मायका है जहाँ नर्मदा नदी अपवाह क्षेत्र में नर्मदा नदी, चकरार नदी, सिवनी नदी, खारमेर नदी, कनई नदी, सिलगी नदी, बुढ़नेर नदी, हालोन नदी, फेन नदी, बेजार नदी, सुरपन नदी, टेमर नदी, गौर नदी, सनेर नदी, हीरन नदी, परयट नदी, शेर नदी, उमर नदी, मचारेवा नदी, सिन्धारे नदी, शक्कर नदी, हरद नदी, सीतारेवा नदी, दूधी नदी, खाण्ड नदी, अंजन नदी, कुब्जा नदी, तेंदोनी नदी, बरना नदी, पलकमती नदी, तवा नदी, देनवा नदी, नागद्वारी नदी, सुखतवा नदी, माछना नदी, हाथेड़ नदी, कोलार नदी, गंजाल नदी, मोरान नदी, सिप नदी, जामनेर नदी, दतुनी नदी, चंकशेर नदी, अजनाल नदी, माचक नदी, स्यानी नदी, कालीमाचक नदी, घोड़ापछाड़ नदी, छोटा तवा, सुकता नदी, भाम नदी, अग्नि नदी, सिंगाजी नदी, खारी नदी, कनाद नदी, सुकडी नदी, लोहार नदी, कावेरी नदी, चोरल नदी, खुरकिया नदी, मालन नदी, कुंदानदी, वेदा नदी, कारम नदी, बोराड़ नदी, मान नदी, निहाली नदी, उरी नदी, बाघ नदी, डेव नदी, गोई नदी, हथनी नदी तथा अन्य छोटी नदियाँ एवं जलधाराएँ: कनेरा, बारुरेवा, बाराधार, सुकी, टिमरन, मिडकुल, आवना, ककड़ी, गंगापाट, अम्बक, इद्रावती, मडावती, सुक्कड़, अनखड़, खरखली, बागड़ी, गडरिया, मारु, पिरीया (प्रिया), लेंडी, इंद्रा, बलई, खुज, मर्जादी, वाइर, घुटई, बटई, करवर, सुखमेर, दनदना, उहार (उदार), घुन्सी, संजारी, छिपानी, धमना, हाफिन, कचनारी, देव, गुरबिनी, कुरका, रोहा, कश्मीरी, खुलार, पाटी, डर्टा, गुरडा, पटपड़ी, दातला, गिधा, गहीर, दूल्हा, जेझम, झिलमिली, लिलारी, बाघधुरा, चुही, फड़ेज, मटियारी, जमुनिया, कन्हर, बुरबुरी, धन्धार, गुरार, निम्गा, माला, चौकीबावली, हिनौटा, टेरिया, रनवई, झमिल, कुल्हार, बेजार, इमरती, कैर, परयट, मेलकुण्ड, भगेला, ओम्टी, बास्त्रेवा, सिंगरी, कनेरा, उमर, गुरदा, नागधार, दातला, घाघरा, पिटवा, चकरपाट, चिकना, पण्डाझिर, विरंज, घोघरा, पितनई, हरद, कुदनी, सूखा, श्रीजोत, धूवघाट, सूखा, बरछा, उमर (छोटी), ओल, टिटोरिया, सुआ, गोरीधार, चितलघोघरा, भोलकी, पठारिया, मछला, पाटपानी झरना, मछवासा, सुकड़ी, बावनगंगा, बीना, नहरिया, नकरी, बेगम, चमरसील, बारी, छोटी जामनेर, घाघरा, कओलारी, लघान, सूखा, मालिनी, घोघरा, मैनी, दगदगा, राखर, पोटिया, बाराधार, झिरपा, कोटीपाटी, भरंगा, लोहार, मचना, सिलपाटी, दियादोह, पिंडु, काबरा, झुली, सुपरा, जमना, बारधा, नीमपानी, मोहता, करमजी, सिंगनवारी, जलकुण्डी, लमड़ा, लठालाड़ो (लठालादोह), बरन, काजल, डगरिया नेहरी, जुनाखाल, अनजाल, सुकालरी, किसनेर, बेडियाखाल, गाडरापाटी, आमनेर, आहापानी, हिंगालोरी (हिंगलोर), कालीबल, टिमरन, मिडकुल, सुकनी, दादरा, डेहरा (डेबरा), कदवाली, भुराली, सयानी (स्यानी), घोधरा, चियानी, झापरीखोह, सेमरी, सौवरी, पिपरापाटी, बाराजोशी, आबना, वाना, गंगापाट, सिंगलादेव, घोड़ा-पछाड़, काडगी, तिछा, मेहाड़ी (मोहाड़ी), नाचनभोर, पीपलाघाट, बेलम, लोधिया, लखरी, चितल, सताओई, ओडल, संकड़ी, इंद्रावती, डालकी, मोहिनी, सातड़ी, जामुनझिरी, अम्बक, भान्या, खारक, ओढरी, भोंगा, रोहिनी, आर, रेल, अवार, कौटी, हिसाल्नी, अजनार, नहारवाड़ी, चंदारी, हथनी, मंदावती (मंडावरी), डोंगलिया, दिलावरी, सुकर, रूपा, डोडर, बेनी, मोगरी, कुआखड़, चिखलिया, सुक्कड़, अनखड़
वैनगंगा नदी अपवाह क्षेत्र में वैनगंगा नदी, नकटा नदी, ठेल नदी, सागर नदी, बावर नदी, हिरीं नदी, नहरा नदी, सर्राटी नदी, बाघ नदी, देव नदी, सोन नदी, चंदन नदी, भवेयरी नदी, कन्हान नदी, पेंच नदी, कुलबेहरा नदी, उमरा नदी, खजरी नदी, गुनोर नदी, घटामाली नदी, जाम नदी, सर्पिणी नदी, माचना (जिलहरी) नदी, वेल नदी, वर्धा नदी एवं अन्य छोटी नदियाँ एवं जलधाराएँ : सोनबिरी (महाकारी), गदम, घिसरी, रोमदोह, सोवना, आलोन, गुर्दा, बाध्या, विजना, धुलिया, धनई (धुबनई), मनकुंवर, सवल झिरी (सवरझोटी), मुरम (मुरन), छिर्राता, गिदलखटी, धारिया, कुहरिया, रिछाई, जोब, तवा, चकरा, दुबना, देवल, अर्जुन, चकोर, लुधिया, घेरुवा (घेवरी), गदम, कोपेढोरा, नागोन, उसकाई, रकसी, महाकारी (सोनबिरी), देव, सोन (छोटी), घिसरी (घिआरी), नरसिंगदेव, सूखा, खारका, भलवा, कस (कास), तोंदिया, कटंग, जमुनिया, पचधार, बिलोनी, धोरिया, बैलफाटा, अंबाझिरी, बहेरा, जामुन, बोदा, सकटा, नेवरी, रिछान, ओडा, बोहना, मेधान, सम्पना, सर्पिणी (सरपनी), खुरपरा, चिकलाजोड़ी, देवगंगा, चकरा, टाकिया, बोर, कुज्बा, भैंसनई हैं तो
माही नदी अपवाह क्षेत्र में माही नदी, अनास नदी, मोड़ नदी, नगरी नदी, पाट नदी, पम्पावती नदी, तेलड़ी नदी, रतागढ़ी नदी, जामन नदी एवं अन्य छोटी नदियाँ एवं जलधाराएँ: सुनार, देवील, सपन, पृथ्वीराज, गंधरी, धोबड़ा, गंधरो, धोबड़ा (धोवरा), लारकी (लरकी), बाकली, बगेरी, बिमलावदी हैं तो
ताप्ती नदी अपवाह क्षेत्र में ताप्ती नदी, अनेर नदी, गोमई नदी, पूरणा नदी, भल नदी, मोना नदी, उटावली नदी, कोतमी नदी तथा अन्य छोटी नदियाँ एवं जलधाराएँ : कोतमी, लबाड़ा, मसक, चमटी, निशाना, अम्भोर, कुरसी, बोकड़, मेघा, नाघोली, उमरावती, छोटपाटव, जामन, पारा, हरदा, खाण्डू, दठरंग झरना, अरुणावती (अर्णावती), पोटपरी, महादेव, लेन्डी, पन्दार, सिवल, घाघर, तोरी (तारी/ताड़ी), कनेर, मेघा, पतरा, सेर, उमरावती (अमरावती), मोतियादेवी, लिपली, मड़लखोरा, हलाघाट, पलाशकुण्ड, गोवड़ा हैं और
गंगा अपवाह (टमस एवं सोन) क्षेत्र में टमस नदी, बेलन नदी, ओष्ठ्ठा नदी, गोरमा नदी, सोकर नदी, महाना नदी, उकमेह नदी, बीहर नदी, बिछिया नदी, जरमोहरा नदी, असरावल नदी, सेमरावल नदी, करीआरी नदी, सतना नदी, अमरान नदी, बरुआ नदी तथा सोन नदी, केवई नदी, गोहीरार नदी, तिपान नदी, कुनुक नदी, मुड़ना नदी, जोहिला नदी, गोछट नदी, घोरारी नदी, जनार नदी, चुंदी नदी, चरणगंगानदी, जरवाही नदी, छोटी महानदी, भदार नदी, कासा नदी, दुलहाधार नदी, मछड़ार नदी, उमड़ार नदी, कटनी नदी, निवार नदी, समधिन नदी, बनास नदी, गोपद नदी, बड़ी महान नदी, मोहन नदी, रेहर नदी, मयार नदी तथा अन्य छोटी नदियाँ एवं जलधाराएँ : सेलार (सालार), नैना, गोरा, मंधा (मेडा), चौखंडी, गलगला, सहराओ, फुहारी, पकरिपार, हर्रई, सेगरी, जिरोंद, कारीवारा, डुवइया, विछिया, धिरमा, मृगमती, लोहिया, तमुलिया, देवड़ा, खुर्वाइ (खुरवल), काँच, सितया, कोठियारी, गोरसारी, लगना, हाथिया, झिनार, चौरा, अरमान, बांका, मिरहासन, कपसारा, चौदर, हेंदरी, भिरवा, बकेन, कथरी, नरकुई, देवनार, संकुल, खारनेर, जनार, सार, गोरना, नगौवां, कुरवा, भमरारी, कसहा, कुल्हारिया, सरपहा, चांडस, हथगढ़ी, गुर्जर, टेघां (थेमा), बिछाली, कोयलार, अलान, बरुआर, पंडारी, हंसिया, ओभे, भैंसन, बिछाली, झिरिया, माहेरो, खुजुलया, धोधन, नागबंध, वसर, अडना, बंधुआ, टंकी, गोछाट, अमोल, पाटपरहा, गगनाइ, दिखाना, घोरारी, गिरार, पोटारा, झरझारी, कोरंधी, गंगोटी, करपा, बमरार, कसांगी, बोलवाजा, कुदराखेका, राजभारा, परारीया, लगोटिया, चाटुआ, तिरसुल, बसहा, बलहा, दतिया, अमहा, अमोल, कमराइ, पुपुही, हपहाल, खारनेर, सिंदुली, लता, पटपराहा, पांडुआ, हलपल, भदार, निवार, भिमार, झापवान, केवनारी, जिलहारी, सुमरार, औंधी, झापरा, पाटले, छोटी माहन, मवाइ, बेलहा, झानपड़, कोरमाइ, ओडारी, धुमनइ, थुन्ना (धमार), सेहरा, कंडस, बंधा, अमरा, वींजी, बरचर, पंघाल, मोहन, धोका, बरदिया, दुरखोह, बिनिआओ, खाखन, झरही, कुरांव, बंधा, सुकर, घाधी, काचन, मबार रपा, बघोर हैं साथ ही
यमुना नदी (मंदाकिनी, बछैन, केन, बेतवा, चम्बल) अपवाह क्षेत्र में मंदाकिनी नदी, बचैन नदी, रान्ज नदी हैं तो
केन नदी, कैल नदी, उर्मिल नदी, कुदार नदी, बन्ने नदी, बराना नदी, मिहरसन नदी, सोनार नदी, कोपरा नदी, बेवस नदी, देहार नदी, व्यारमा नदी, गुरैया नदी, पटने नदी एवं बेतवा नदी, कालियासोत नदी, गोदर नदी, नेवान नदी, हलाली नदी, सतधारा नदी, सागर नदी, क्योटन नदी, नरेन नदी, बीना नदी, बबनई नदी, कथेन नदी, नारायण, नदी, ओर नदी, मालकुआं नदी, बुधरिया नदी, जमनी नदी, बरगी नदी, बरुआ नदी, डूंगरई नदी, धसान नदी, सपरार नदी, उर नदी, सधनी नदी, कथान नदी है। इसके साथ ही साथ चम्बल नदी, सिन्ध नदी, कुंवारी नदी, आसन नदी, संख नदी, सोनरेखा नदी, पहुंज नदी, सोनमिरगा नदी, अंगौरी नदी, नाउन नदी, महुआर नदी, बिलरई नदी, पार्वती नदी, छोंछ नदी, वैसाली नदी, झलमल नदी, कूनो नदी, बड़ी परम नदी, सीप नदी, सरारी नदी, पारवती नदी, अहेली नदी, केसम नदी, विलास नदी, अंधेरी नदी, मोजरी नदी, उपरेनी नदी, नेगरी नदी, चोपन नदी, गौमुख नदी, भैसुआ नदी, टेम नदी, सीवन नदी, अजनाल नदी, काली सिन्ध नदी, घोड़ापछाड़ नदी, अजनार नदी, नेवज नदी, छापी नदी, गरगंगा नदी, अहू नदी, कंठाली नदी, लसुंदर नदी, चिलेर नदी, लोदरी नदी, ब्राह्मणी नदी, गुंजल नदी, इदर नदी, रेतम नदी, साओ (सिवना) नदी, तुमार नदी, सोमली नदी, छोटी काली सिन्धनदी, शिप्रा नदी, लूनी नदी, गंभीरा नदी, खान नदी, मलेनी नदी, कुरेल नदी, चामला नदी तथा अन्य छोटी नदियाँ एवं जलधाराएँ : चहला, चिपहा, नयी, पतिहर, विलोड़ (विलीद), श्यामरी, बघने, किलकिला, कुसियार, लोहरुक (लोहारी), गुरने, खारदा, कुराली, सिमरदा, मिढ़ासन, कुंटन, खुराट, बघनेरी, तरपेर, मौमरार, लोहारी, डोडर, गरवा, घिनीची, कुमेर, नवलगढ़ी, मनियन, सिंघड़ी, बरने, जमुनिया, श्यामरी, रतुआ, कड़वापानी, विअरमा, कोपरा, बेवास (बवस), देहार, केय, गधेडी (गधेरी), बाएँक (बैंक), जोगिड़ावड, अमर, कारीपाथर, सेमरा पत्थर, परकुल, सजाली, निहनी, खरैरी, नकटी, अजगरा, बरज, कयेरा, चिकना, गुरैया, झुनकु, बामतदेही, चकरा, गहरा, परेवा, अमर, भादर, बघने, पटपड़ा, बसेटा, कुण्डा, अजनार, रिछान, वेलना, कुदराहट, चेलना, पारासरी, बडई, स्यामरी, बाँकड़ी, जमनी, बसनी, बंगना, गेरवा नाल, गरकाटू, तुमेन, ओनरी, बांदल, चमारी, कनेरी, घोड़ापछाड़, सपन, सपन, गोमती, परवा, नकटी, खारिया, कपूर्णा, मोटन, खानबै, सिन्या (छोटी सिंघ), बलई, चकरा, सुकट, बबनई, सिलार, बघेरो, कन्जी, मसानिया, सेमरी, दूधी, परसिया, कहूला, चंचल, नाहरगढ़, मोला, कोचा, पियास, खारिया, ज्वारी, विशनकुडी, सौअर, बरहेर, सूखा, चकरा घाट, मलकुआ, रेखा, राची, कपानी, उखया, गोराघाट, फूटीवार, पन्यारा, डंगवाहा, पथोरिया, बरगी, नोट, पटेरिया, बनबाइर, जमरार, सुखरवा, हैया, कैना, नैना, नकरर, मंगरार, पनिआरी (पनयारी), बछेरी (बछेड़ी), बाँकड़ी, कोंगड़ा, उमर, सधनी, परई (परायी), कीर्तवारी, सोरदा, कुलवारा, पटेरिया, केवड़ा, भागा, श्यामरी, सुक्कु, विला, लांच, अमर, मोरार, छछुदर, पथारियाओ, कंडई, निवारी, अंडावा, अहिर, वरही, खिरई, बैरारी, बन्सराई, धाम, खपरार, अड़रो पड़रो, पराहन, सलैया, पार, डीगरी, सुरी, भरवाहा, झलमल, वैरारी, बन्सराई (वनसराई), धाम, अंगोरी (अंगौरी), खपरार, सोनमिरगा (सोन), गिधान, लरैयाखर, चकोरा, सोमला (सोय), अड़य-पड़रो, नरल, जमदारी, सूखा, बिलरड, पराहन, कसना, सलैया, पार, डीगरी, सुरी. अमवाला, अषाढ़, बनैत, झलमल, मोरार, भरवाहा, साओन, काला, साओन, रेनपी, कराई, सरकुइया, अंसार, रुपानिया, गिर, करइ, सरकुला, खेडर, चमारी, सरारी, कदवई, कल्हारी, सोडनी, दमनी, पापनाश, उतावली, भांडेर, गोची, कंठी, सुख, बेथली, बनसरैया जैसी अत्यंत मूल्यवान जल संरचनाएँ हैं जिन्हें बचाये जाना ही नहीं है बल्कि इन्हें शक्ति सम्पन्न कर मध्यप्रदेश को समृद्ध राज्य बनाये जाने की जरूरत है।
