सुप्रसिद्ध शिक्षाविद् और समाजसेवी ईश्वर चंद्र विद्यासागर

उन्नीसवीं शताब्दी का आरंभ अंग्रेजों द्वारा भारतीय शिक्षा, संस्कृति, परंपरा और समाज के मानसिक दमन के अभियान का समय था। गुरुकुल नष्ट कर दिये गये थे, चर्च और बाइबिल आधारित शिक्षा आरंभ करदी थी। ऐसे में किसी ऐसे व्यक्तित्व की आवश्यकता थी जो भारतीय समाज में आत्मविश्वास जगाकर अपने स्वत्व से जोड़ने का अभियान छेड़े। यही काम सुप्रसिद्ध शिक्षाविद, समाजसेवी ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने किया । उनका जन्म 26 सितम्बर 1820 को बंगाल के मेदिनीपुर जिले के अंतर्गत वीरसिंह गाँव में हुआ था। बचपन में संस्कृत शिक्षा उन्होंने घर पर ही पिता ठाकुरदास वन्द्योपाध्याय से प्राप्त की। और फिर कलकत्ता के संस्कृत महाविद्यालय में प्रवेश लिया। अपनी शिक्षा पूरी कर 1841 में फोर्ट विलियम महाविद्यालय में मुख्य पण्डित पद पर नियुक्ति मिल गई। वे अपने निर्धारित कार्य के लिये शास्त्रों के अध्ययन में भी रत रहते थे। यहीं उन्हें 'विद्यासागरÓ उपाधि से विभूषित किया गया। 1946 में इसी संस्थान में प्राचार्य पद पर पदोन्नत हुए। 1851 में कॉलेज में मुख्याध्यक्ष बने, 1855 में असिस्टेंट इंस्पेक्टर, और फिर स्पेशल इंस्पेक्टर नियुक्त हुए। 1858 में त्यागपत्र देकर साहित्य एवं समाजसेवा में लग गये।
वे जानते थे कि अंग्रेजों के समानान्तर कार्य नहीं कर सकते। इसलिए उन्होंने सामंजस्य का मार्ग निकाला और श्री बेथ्यून की सहायता से एक कन्या शाला की स्थापना की फिर मेट्रोपोलिस कॉलेज की स्थापना की। साथ ही समाज से सहायता प्राप्त करके अन्य स्थानों पर भी विद्यालय आरंभ किये। संस्कृत अध्ययन की सुगम प्रणाली निर्मित की। इसके साथ ही समाज की विसंगतियों के सुधार का भी अभियान चलाया। इसमें विधवा विवाह, स्त्री शिक्षा आदि थे। उन्होंने न केवल विधवा विवाह का सामाजिक वातावरण बनाना आरंभ किया अपितु अपने पुत्र का विवाह भी एक विधवा स्त्री से ही किया।
वे स्वदेशी भाषा, स्वदेशी दिनचर्या और स्वाभिमान के समर्थक थे। उन दिनों आजकल का बिहार और झारखंड भी बंगाल का अंग था। उन्होंने अपने काम का विस्तार किया और 1873 में जामताड़ा जिले के करमाटांड़ में आ गये । यह क्षेत्र अब झारखण्ड में है । यहाँ आकर वे संथाल वनवासियों के बीच सक्रिय हो गये। उन दिनों इस क्षेत्र में चर्च और सरकार के अपने अपने दबाव थे । सरकार ने जहाँ वन संपदा पर अधिकार करके वनवासियों को भुखमरी की कगार पर ला दिया था तो चर्च उनकी सेवा सहायता करके मतान्तरण का अभियान चलाये हुये थे । ईश्वर चन्द्र विद्यासागर जी ने इस क्षेत्र में किसी से बिना कोई टकराव लिये संथाल वनवासियों के कल्याण के काम आरंभ किये यहाँ उन्होंने अपना घर भी बनाया जिसका नाम 'नन्दन काननÓ रखा । कहने के लिये यह उनका घर था । पर वास्तव में यह एक कन्या विद्यालय था । जीवन के अंतिम लगभग अठारह वर्ष उन्होंने इसी क्षेत्र में बिताये और निरन्तर समाज की सेवा करते हुये उन्होंने 28 जुलाई 1891 को संसार से विदा ली। उनकी मृत्यु के कुछ दिनों बाद उनके परिवार ने इस 'नन्दन काननÓ को कोलकाता के एक व्यापारी को बेच दिया था किन्तु बिहार के बंगाली संघ ने घर-घर से एक एक रूपया एकत्र कर 29 मार्च 1974 को उसे खरीद लिया और पुन: बालिका विद्यालय और एक चिकित्सा केन्द्र प्रारम्भ किया। जिसका नामकरण विद्यासागर जी के नाम पर किया । यह चिकित्सा केन्द्र स्थानीय जनता की नि:शुल्क सेवा कर रहा है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
