बांग्लादेश में स्थिरता के लिए अंतरराष्ट्रीय पहल की जरूरत

बांग्लादेश में लगातार अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जा रहा है। पहले दीपू चंद्र दास की हत्या और अब बीती रात एक और हिंदू युवक, अमृत मंडल उर्फ सम्राट, को कट्टरपंथियों ने पीट-पीटकर मौत के घाट उतार दिया। बांग्लादेश में उपजी हिंसक अशांति यह दर्शाती है कि देश आज किस मोड़ पर खड़ा है और आगे क्या होने वाला है।
यह अशांति प्रधानमंत्री शेख हसीना की सरकार के खिलाफ जुलाई 2024 के विद्रोह के एक प्रमुख युवा नेता, शरीफ उस्मान हादी, की मौत के बाद फैली। इस्लामी और भारत के कट्टर आलोचक रहे हादी ने जुलाई के विद्रोह को देश को बदलने के एक बड़े मकसद वाले आंदोलन में तब्दील करने में अहम भूमिका निभाई थी। वह बांग्लादेश की आजादी के वक्त के मूल्यों से पूरी तरह अलग होना चाहता था और राजनीति में जमात-ए-इस्लामी जैसी पार्टियों के साथ-साथ इस्लामी छात्र समूहों के लिए अधिक जगह की वकालत करता था।
हादी को 12 दिसंबर को नकाबपोश बंदूकधारियों ने गोली मार दी थी और 18 दिसंबर को सिंगापुर के एक अस्पताल में चोटों के कारण उनकी मौत हो गई, जिससे पूरे बांग्लादेश में तुरंत और बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए। भले ही पुलिस ने इस हमले के सिलसिले में कम से कम आधा दर्जन संदिग्धों को गिरफ्तार किया है, लेकिन यह अभी भी साफ नहीं है कि हत्या किसने करवाई थी। हादी के कुछ समर्थकों ने अवामी लीग पर आरोप लगाया।
बीते 18 दिसंबर को भीड़ ने देश के दो सबसे बड़े अखबारों, 'प्रोथोम आलो' और 'द डेली स्टार', के दफ्तरों पर हमला किया और आग लगा दी, जिससे वहां काम करने वाले कर्मचारी अंदर फंस गए। सांस्कृतिक केंद्रों, अवामी लीग के दफ्तरों, पूर्व मंत्रियों के घरों और यहां तक कि बांग्लादेश के मुक्ति नायक मुजीबुर रहमान के घर पर भी हमला किया गया। मैमनसिंह शहर में, कथित ईशनिंदा के आरोप में एक 25 साल के हिंदू आदमी को पीट-पीटकर मार डाला गया। जुटी भीड़ खुशियां मनाती रही और उसके लटकते हुए शरीर को आग लगाने का वीडियो बनाती रही।
हसीना को सत्ता से हटाए जाने के पंद्रह महीने बाद भी बांग्लादेश भीड़तंत्र के राज में जूझ रहा है। इसमें कोई शक नहीं कि हसीना के तानाशाही रवैये ने जुलाई 2024 में लोगों के गुस्से को भड़काने में योगदान दिया था। उनके सत्ता से हटने से बांग्लादेश को सुलह, बहुलवाद और लोकतंत्र की बुनियाद पर नए सिरे से शुरुआत करने का मौका मिला था, लेकिन वह मौका गंवा दिया गया।
विद्रोह के बाद के समय में अल्पसंख्यकों और अवामी लीग के कार्यकर्ताओं के खिलाफ बड़े पैमाने पर हिंसा हुई। अवामी लीग और उसके छात्र संगठन, छात्र लीग, पर प्रतिबंध लगा दिया गया, जबकि जमात-ए-इस्लामी पर से प्रतिबंध हटा लिया गया। यूनुस जहां काले अतीत वाले इस्लामी ताकतों को काबू में रखने में नाकाम रहे, वहीं प्रतिक्रियावादी समूह फौरन गुजरे वक्त से पूरी तरह से रिश्ता तोड़ने का दबाव डालते रहे। इसका नतीजा लगभग अराजकता का माहौल है।
इस्लामी ताकतों द्वारा भड़काई गई भारत-विरोधी भावनाओं ने तनाव को और बढ़ा दिया है। बांग्लादेश के शासकों को इन चेतावनी भरे संकेतों पर गौर करना चाहिए। ध्यान बदले की राजनीति से हटकर राज्य की क्षमता को फिर से बनाने और कानून-व्यवस्था बहाल करने पर होना चाहिए। ऐसा लगता है कि यूनुस के पास इस संकट से देश को निकालने के लिए न तो वैधता है और न ही दृढ़ संकल्प।
बांग्लादेश के लिए आगे बढ़ने का एकमात्र सही रास्ता सभी प्रमुख राजनीतिक पार्टियों की भागीदारी के साथ समावेशी चुनाव है। केवल एक वैध और प्रतिनिधि सरकार ही राजनीतिक स्थिरता फिर से बहाल कर सकती है, संस्थाओं को मजबूत कर सकती है और देश के सामाजिक घावों को भरने की प्रक्रिया शुरू कर सकती है।
