विशेष आलेख: इस्लाम के चक्रव्यूह में भारत की बेटियाँ...

इस्लाम के चक्रव्यूह में भारत की बेटियाँ...
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विजयमनोहर तिवारी: अब यह संकट इतना साफ है कि कुछ भी लागलपेट की जरूरत नहीं रह गई है। दाएँ-बाएँ होकर बताने और किसी की भावनाएँ आहत होने की फिक्र से बहुत आगे पानी सिर के ऊपर है।

भोपाल में लव जिहाद के नेटवर्क में शामिल मुस्लिम नौजवान और उनके चंगुल में फंसी हिंदू लड़कियों की खबरों ने मध्यप्रदेश को हिलाकर रख दिया है।

भोपाल के घटनाक्रम ने 40 साल पुरानी "अजमेर फाइल' के पन्ने फड़फड़ा दिए हैं, जिसने आजाद भारत में शायद पहली बार यह बताया था कि मुस्लिम समुदाय के नौजवान सुनियोजित ढंग से गैर मजहबी लड़कियों को फंसाने की मुहिम पर निकले हुए हैं। इस घृणित अपराध में उन्हें सामुदायिक समर्थन और हर संभव मदद की कोई कमी नहीं है।

सोशल मीडिया और इंटरनेट के कारण देश भर में घट रही ऐसी घटनाएं देश के सामने लगातार आ रही हैं। यह अकेले मध्यप्रदेश का सिरदर्द नहीं है, न ही यह केवल अजमेर में किसी समय का नींद उड़ाने वाला पर्दाफाश है। यह हर दिन हो रहा है। हर कहीं हो रहा है। हर समय कोई न कोई घात पर है।

वे केवल मंदिरों की मूर्तियाँ ही खंडित नहीं करते। लव जिहाद हमारी बेटियों के साथ मूर्ति को खंडित करने जितना ही सवाब दिलाने वाला कारनामा है। वे हर दिन हमारी मूर्तियां खंडित कर रहे हैं और वे पत्थर की नहीं हैं।

1994 में दिवाली के बाद इंदौर की एमआईजी कॉलोनी निवासी एक जैन उद्योगपति दंपत्ति ने जहर खाकर खुदकुशी की थी। उनकी 19 साल की कॉलेज में पढ़ने वाली लड़की को एक टपोरी मुस्लिम ले भागा था। मैंने उस कहानी का लंबे समय तक पीछा किया था।

उस टपोरी से उसकी दो बेटियां हुईं, जिन्हें उसने अपने बूते पाला। निकाह के बाद मां-बाप को खो चुकी उस जुझारू जैन बेटी ने खुद पढ़ाई की और नौकरियाँ करते हुए अपने पैरों पर न सिर्फ खुद खड़ी हुई बल्कि अपने उस मुस्लिम प्रेमी की ज्यादतियों को बर्दाश्त किया।

उसके लौटने के रास्ते बंद हो चुके थे। परिवार तबाह हो चुका था। वह छप्पन दुकान के पास किसी वीडियो पार्लर में नौकरी करता था। अब भी कहीं कुछ कर रहा होगा। कोविड के दौरान उस अभागी जैन कन्या की मौत की खबर मिली। तब मैंने एक कहानी लिखी थी-"शालू मर गई है।'

अगर सच्चा प्रेम है तो किसी भी संबंध में कोई समस्या नहीं है। किंतु अपना मजहब और अपनी पहचान छुपाकर यह जानते हुए कि वे एक गैर मुस्लिम लड़की को टारगेट पर ले रहे हैं, ऐसी मासूम हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध या ईसाई बेटियों से दोस्ती करना। दोस्ती के दायरे से आगे बढ़ना। प्रेम का नाटक करना। फँसाना। नशे की लत लगाना। शारीरिक संबंध बनाना। उसके फोटो और वीडियो बनाना। फिर ब्लैकमेल करना।

अपने ही समुदाय के दूसरे युवकों के बीच ऐसा ही करने के लिए उस पर दबाव डालना और यह दुष्कर्म फिर दूसरी लड़कियों पर दोहराना। एक साथ कई-कई लड़कियों के साथ ऐसा करना। यह सुनियोजित, संगठित और घोर घृणित अपराध ही नहीं, कैंसर जैसी एक बेहद गंभीर सामाजिक समस्या बन चुकी है।

शहरों के होटल, क्लब, रेस्त्रां, पार्क, मॉल्स, पब, बार, तालाब किनारे बने पिकनिक स्पॉट, कॉलेज और यूनिवर्सिटी के परिसर इनके अड्डे बन चुके हैं। नशे के कारोबारियों ने रही-सही कसर पूरी कर दी है। इन अड्डों के संचालक, नशे के कारोबारी और ये फरेबी मजनूं, अपने परिवारों सहित सब मिले हुए हैं।

हमारी बेटियाँ संगठित शिकारियों के बीच से निकलकर कोचिंग-स्कूल-कॉलेज जा रही हैं। होस्टलों में रह रही हैं। ऑफिसों में काम कर रही हैं। गाँव-कस्बों से निकलकर छोटे या बड़े शहरों में घर से बाहर खुली आबोहवा में अपने कॅरिअर बनाने निकली हैं।

उन्हें घरों में कोई नहीं बताता कि बाहर की दुनिया में उन्हें किन लकड़बग्घों से क्यों सावधान रहना है? किनके पास बैठना है और किन्हें अपने पास बैठने देना है? किनसे उनकी अनिवार्य दूरी उनके सुनहरे भविष्य के लिए आवश्यक है। हमारी बेटियों को हर तरह की आजादी है।

उन पर कोई पर्दा नहीं है, न ही किसी बेटी पर होना चाहिए। उन्हें ऊंची पढ़ाई और नौकरी करने पर कोई बंदिश नहीं है, न ही किसी बेटी पर होनी चाहिए। स्त्री-पुरुष की बराबरी वाले किसी भी समाज में सबको बराबर अवसर होने चाहिए।

भारत में हिंदू समाज के अभिभावकों में यह वैचारिक संकीर्णता नहीं है, न ही किसी में होनी चाहिए। यही उदार खुलापन मजहबी शिकारियों के लिए अनुकूल पर्यावरण बन गया है। सेक्युलर आवरण में इन पर कभी खुलकर बात नहीं हुई। कालीन के नीचे सर्प फैलते-पनपते रहे।

कहने को हम एक भारत हैं, जो श्रेष्ठ भारत बनना चाहता है। किंतु क्या यह सच है? कड़वा सच यह भी है कि एक भारत में अनेक रंगों के भारत पल रहे हैं। इसी एक भारत में कश्मीर भी है। पहलगाम भी है। बंगाल भी है। मुर्शिदाबाद भी है। केरल भी है। उसकी एक स्टोरी भी है। इस भारत में संकीर्ण पारिवारिक और सामाजिक मान्यताओं वाले महान समुदाय भी हैं, स्त्रियों के प्रति जिनकी सोच सर्वज्ञात है।

उनके लिए वह केवल मादा है, जिसके साथ केवल शारीरिक संबंध ही सर्वोपरि हैं। उसमें किसी जाति, धर्म, क्षेत्र या भाषा की दीवार नहीं है। वह केवल एक शिकार है। किसी भी कारण हुए हिंदू-मुस्लिम दंगों में मुस्लिम दंगाइयों की ओर से हिंदू महिलाओं को टारगेट करने की जो अब तक घटनाएँ सामने आई हैं, इसी घटिया सोच का सबूत हैं। ये ऐसी सामाजिक बाधाएं हैं, जिनकी रोशनी में न भारत एक है और इन दुष्टताओं के रहते श्रेष्ठ तो कभी नहीं हो सकता।

कोई इस भूल में न रहे कि यह केवल भोपाल में सामने आया एक संगठित अपराध है। लंदन की बेटियों को निशाना बनाने वाले ग्रूमिंग गैंग की पहचान क्या है? सीरिया में आईएसआईएस के उभार के दिनों में एक दशक पहले नार्वे और डेनमार्क में बड़ी संख्या में फंसाई गई ऐसी ही ईसाई बेटियों को इराक और सीरिया के नर्क में झोंक दिया गया था। कई चर्चित वेबसीरीजें उन अभागी बेटियों पर बनी हैं।

यजीदी बेटी नादिया मुराद की कहानी पूरी दुनिया को पता है, जिसे इराक के एक गांव की महिलाओं और बेटियों के साथ गुलाम बनाकर ले जाया गया था। वह बचकर जर्मनी भाग निकली थी और "द लास्ट गर्ल' नाम की किताब में उसने अपनी रोंगटे खड़े कर देने वाली आपबीती सबको सुनाई थी।

दंगों की अराजकता फैलाकर चिन्हित घरों की महिलाओं से दुर्व्यवहार, 1990 में कश्मीर में औरतों के बिना घाटी से छोड़ने की अमानवीय चेतावनियाँ और कोचिंग-कॉलेज कैम्पसों में लव जिहाद एक ही समस्या की आपस में जुड़ी हुई कड़ियाँ हैं। येनकेन प्रकारेण धर्मांतरण इनका लक्ष्य है। केवल अपनी आबादी का विस्तार, जहाँ जैसे संभव हो।

कानून जितना सख्ती से कमर तोड़ कार्रवाई कर सकता है, उसे हर समय करनी होगी। अध्ययन और शोध संस्थानों को हर शहर में पिछले तीस सालों में कथित प्रेम प्रसंगों में कन्वर्ट हुई लड़कियों के केस देखने चाहिए।

यह देखना चाहिए कि वे आज किस हाल में कहां हैं, कैसा जीवन जी रही हैं। ऐसी केस स्टडी में सेवानिवृत्त महिला पुलिस अफसर, जज, प्राचार्य, प्रोफेसर, प्रशासनिक अफसर काम आ सकते हैं और वे अभिभावक भी, जिनकी लड़की गायब हुई। हमारे परिवारों में इस समस्या और इसके दुष्प्रभावों पर बेटियों से खुलकर बात होनी चाहिए, जो स्कूल-कॉलेज-कोचिंग में पढ़ने जाती हैं।

अभिभावकों को यह नजर रखनी ही होगी कि उनकी बेटियों की संगत में कौन दोस्त हैं, कौन नए-पुराने परिचित हैं। घर से बाहर जाती बेटियों को सावधान करना होगा और यह काम शिक्षा के परिसरों में संभव नहीं है, क्योंकि वहाँ सब पढ़ते हैं।

बिखरते और सिकुड़ते हिंदू परिवारों की बेटियों को बचाने के लिए यह एक मिशन शुरू करने का समय है। हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि हम एक ऐसे समाज में रह रहे हैं, जहाँ कुछ शिकारी हमारी बेटियों पर लगातार घात लगाए हुए हैं। वे हमारी मूर्तियों को अब तक खंडित कर रहे हैं। हम देखते नहीं रह सकते। कल किसी की भी बेटी शिकार हो सकती है।

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