सुशासन की परिकल्पना और एकात्म मानवदर्शन

सुशासन को परिभाषित करने का प्रयत्न अलग-अलग विचारकों द्वारा अलग-अलग समय पर किया जाता रहा है। आज भी भले ही इसकी कोई सर्वमान्य परिभाषा देशकाल- परिस्थितियों व व्यावहारिक प्रभावों के कारण न तय हो पाई हो किंतु इस पर कोई संशय नहीं कि राज्य के सुव्यवस्थित संचालन और नागरिकों की समग्र चिंता व देखभाल का उद्देश्य ही सुशासन का मुख्य उद्देश्य होता है।
राज्यों के विकास की यात्रा और शताब्दियों से चली आ रही क्रमिक विकास की प्रक्रिया के परिणामस्वरुप अनेक अनेक संस्थाओं ने जन्म लिया। राज्य चाहे जनजातीय स्वरूप में हो, प्राच्य, यूनानी नगर, वैदिक कालीन, रोमन, सामंतवादी राज्यों की व्यवस्था रही हो किंतु नवीन संघर्षों ,जनक्रांतियां और नई राजनीतिक मान्यताओं द्वारा राज्य व्यवस्था को सुव्यवस्थित राज्य संचालन प्रणाली की ओर ही ले जाया गया । कुछ समय पूर्व विश्व बैंक ने 1989 व 1992 की रिपोर्ट और साथ ही संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम संस्था (UNDP) द्वारा भी सुशासन के लक्ष्यों में भागीदारी, कानून का शासन ,आम सहमति उन्मुखता, न्याय संगत एवं समावेशी, प्रभावशीलता व दक्षता, जवाबदेही, पारदर्शिता, अनुक्रियाशीलता सहित सुशासन के गुणों को मानक बनाया गया। उसके बाद से ही 'सुशासन' यानि 'Good Governance' यह शब्द प्रशासनिक विमर्श में तेजी से प्रचलन में आ गया। प्रशासनिक सुधार कमेटी 2005 की रिपोर्ट में नागरिक केंद्रित प्रशासन, ई-गवर्नेंस, सूचना का अधिकार, निष्पादन प्रबंधन प्रणाली जैसे प्रयोग व उपकरणों के उपयोग की सिफारिशों के साथ 2009 में 15 खंडों की एक व्यापक रिपोर्ट भी प्रस्तुत की गई।
अंग्रेजी शासन काल में भी प्रशासनिक सुधारो के नाम पर उनके अपने सुनियोजित आर्थिक लक्ष्यों की पूर्ति हेतु एचीसन कमीशन, ली कमीशन, टाटनहम कमीशन आदि गठित कर प्रशासनिक प्रणाली में खूब बदलाव किए गए । स्वाधीनता प्राप्ति के बाद भी आयंगर समिति 1949, गोरवाला रिपोर्ट 1951, संथानम समिति 1962 आदि रिपोर्टो पर विचार करके कुछ कानूनों की समीक्षा व कार्यविधियां के सरलीकरण के लगभग एक दशक तक कुछ गंभीर प्रयास भी किए गए।
कई कमीशन, कमेटी, आयोगों के गठन होते गए किंतु हम यह भूल गए कि भारत हजारों वर्षों के गौरवशाली इतिहास संस्कृति को धारण करने वाला राष्ट्र है और उत्कृष्ट व मजबूत शासन प्रणालियों को संचालन करने के कई कई प्रमाण प्रस्तुत कर चुका है। दुर्भाग्यवश पराधीनता के कालखंड की विस्मृति के कारण भी आचार्य विदुर,मनु, पितामह भीष्म, शुक्र, बृहस्पति,आचार्य चाणक्य, लोकमान्य तिलक, बाबासाहेब आंबेडकर, राम मनोहर लोहिया, पंडित दीनदयाल उपाध्याय आदि विद्वानों के स्थान पर मार्क्स ,मिल्टन और मिल जैसे राजनीतिक विचारकों को हमने 'राजगुरु' स्वीकार कर लिया। फिर परिणाम यह हुआ कि विदेश से उधार ली गई शासन प्रणालियां हमारे सामने लाए गईं और राष्ट्रमानस को छूने में असफल होती गईं । इसी समस्या की गहरी जांच पड़ताल करके विशुद्ध भारतीय विचारक पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी द्वारा भारतीय राजनीतिक परिपेक्ष में राष्ट्रीय जीवन मूल्यों ,पद्धतियों व आदर्शों की समयानुकूल व्याख्या प्रस्तुत की। एकात्म मानवदर्शन के परिप्रेक्ष्य में एक आदर्श शासन व्यवस्था का विचार आगे बढ़ाया गया। एकात्म मानवदर्शन परस्पर विरोध और संघर्ष के स्थान पर परस्परता, अनुकूलता और सहयोग से सृष्टि की क्रियाओं पर विचार करता है। राष्ट्रीय परिपेक्ष में व्यक्ति और समाज को बराबर महत्व देकर अपने राष्ट्र की मूल प्रकृति प्रतिभा और प्रवृत्ति को पहचान कर ही भविष्य के विकास क्रम को निर्धारित करता है। इसमें समाज के हित का संपादन करने के उद्देश्य से धर्म, अर्थ ,काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों की कल्पना की गई है। पंडित दीनदयाल ने माना कि राजनीतिक दलों का निर्माण और सभी कार्य 'राष्ट्रहित' के लिए ही होना चाहिए। यदि राष्ट्र की अस्मिता ,इतिहास, संस्कृति, सभ्यता को छोड़ दिया तो राजनीति का क्या उपयोग? राष्ट्र का स्मरण कर कार्य होगा तो सबका मूल्य बढ़ेगा और राष्ट्र का विचार नहीं होगा तो सबका सब शून्य हो जाएगा।
भारतीय परंपरा का मूल राजनैतिक दर्शन यही प्रतिपादित करता है कि शासन केवल शक्ति, अधिकार या पद का प्रदर्शन नहीं अपितु एक नैतिक दायित्व है जिसे समाज और प्रजा के कल्याण हेतु निभाना है । महाभारत में कहा गया है कि- "धैर्यं हि राजस्यानन्यतमं बलमं " अर्थात राजा की शक्ति धैर्य में है। मुंडक उपनिषद में 'सत्यमेव जयते' वहीं वृहदारण्यं उपनिषद में कहा गया कि नागरिकों को सामान अवसर और कमजोरों का शोषण न हो। रामायण के अयोध्या कांड में कहां है कि - "जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवश नरक अधिकारी" अर्थात प्रजा को दुखी रखने वाला राजा नरक का अधिकारी होता है। थिरुकुरल में संसाधनों का तर्कसंगत दोहन करने का नियम बताया गया वही अथर्ववेद में पृथ्वी व प्रकृति के साथ सामंजस्य की सीख दी गई है। आचार्य चाणक्य ने अर्थशास्त्र में शासन की निगरानी प्रणाली और दंड नीति के विविध आयामों का अध्ययन किया है वहीं सम्राट अशोक का धम्मनीति शासन धार्मिक सहिष्णुता, करुणा और प्रजा कल्याण को प्रस्थापित करता है। इन्हीं भारतीय विचारों को एकात्म मानवदर्शन के आलोक में प्रशासनिक व शासन प्रणाली में नवीन प्रयोगों के साथ समाहित किया जा सकता है । अगर हम यह करेंगे तो उधारी का माल भी ठोने की आवश्यकता नहीं होगी और नैतिकता के आधार पर शासन प्रणाली को मजबूत नींव मिल सकेगी।
आज आधुनिक शासन प्रणाली में भ्रष्टाचार, लाल फीताशाही, शक्ति का दुरुपयोग, प्रशासनिक अक्षमता, भाई भतीजावाद, विभाजनकारी सोच, चरित्र में गिरावट जैसी चुनौतियों का सामना भी करना पड़ रहा है। ऐतिहासिक अनुभवों और प्राचीन ग्रंथो के ज्ञान से यह सिद्ध होता है कि न्याय संगत ,उत्तरदायी और प्रभावी शासन तभी संभव है जब शासन नैतिकता और लोकहित के सिद्धांतों पर आधारित हो। शास्त्रों में कहा गया है कि- 'धर्मेण हीनो राजा स्यात प्रजाभक्ष: श्रगृध्रवत्' अर्थात धर्म से रहित राजा प्रजा का शोषक ही बन जाता है। जिस शासक का आचरण धर्म युक्त न हो और मन में राष्ट्र का चिंतन और चेतना नहीं वह राष्ट्र का कल्याण नहीं कर पाएगा। जनता और राजा दोनों के मन में ही सच्चा सामर्थ्य राष्ट्र -भाव से ही विकसित हो सकता है। भारत में योजनाओं के सफल क्रियान्वयन का प्रशासनिक तंत्र और ढांचागत स्वरूप की व्यवस्था भले ही विकसित राष्ट्रों की तुलना में कमजोर या कमतर रही हो किंतु सुशासन की जिस प्रणाली की आज आवश्यकता है उसकी जड़ें भारत जितनी गहरी और मजबूत किसी राष्ट्र की भी नहीं। लोकहित के विचार के साथ सामाजिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता के जितने उत्कृष्ट उदाहरण भारतीय शासको व राजनीतिज्ञों के जीवन से मिलेंगे उतने कहीं भी नहीं। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम, महाराजा मोरध्वज, चक्रवर्ती सम्राट राजा भरत, धर्मराज युधिष्ठिर, महाराणा प्रताप, सम्राट अशोक, चोल राजा राज राज प्रथम, लोकमाता देवी अहिल्याबाई होल्कर, पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह, चंद्रगुप्त मौर्य आदि के जीवन वृत से त्याग, तपस्या, जनप्रियता, न्यायप्रियता और लोकहित के जितने सुंदर सप्रमाण दृष्टांत मिलेंगे उतने संसार में कहीं से भी संभव नहीं। बड़े-बड़े साम्राज्यों व शासन प्रणालियों के जय- पराजय की कई कहानियां संसार में बहुत मिलेंगी किंतु आज भी भारतीय जनमानस में जो श्रद्धा भाव अपने शासनकर्ताओं के प्रति मिलेगा वह अन्यत्र कहीं नहीं। इसका केवल एक ही कारण खोज सकते हैं वह है - 'राजधर्म का सिद्धांत'। आचार्य चाणक्य राज्य स्थापना के बाद सब कुछ छोड़कर चले जाते हैं। भीष्म पितामह सिंहासन के समीप रहकर भी पिता को दी गई प्रतिज्ञा के कारण कभी सिंहासन पर नहीं बैठते। न्याय प्रिया लोकमाता अहिल्याबाई अपने पुत्र को भी दंड देने से नहीं चूकतीं और छत्रपति शिवाजी महाराज यह राज्य शिवा का है कहकर यानि भगवान शिव को समर्पित करके सेवक के रूप में सेवाएं देते हैं। यही राजधर्म है और यही एकात्मक चिंतन है जो राजनीति में 'लोककल्याण को सर्वोपरि' मानकर चला था।
आज की सुशासन की परिकल्पना Good Governance index 2019 से शासन की स्थिति और प्रभावों का आकलन करती है जिसमें प्रशासनिक जवाबदेही के मूल्यों व मानकों को लिया गया है। अब राष्ट्रीय ई गवर्नेंस योजना, डिजिटल इंडिया, जीएसटी सुधार, एंटी मनी लांड्रिंग, पुलिस सुधार, सहकारी संघवाद, आकांक्षी जिला कार्यक्रम, आयुष्मान भारत, इज ऑफ़ डूइंग बिजनेस आदि कार्यक्रमों के माध्यम से नवीन परिवेश में सुशासन की संकल्पना को दृढ़ता प्रदान की जा रही है। देश के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी राष्ट्रीय ही नहीं वरन वैश्विक मंचों से भी 'सबका साथ सबका विकास' की दृष्टि के साथ दृढ़ता से विकसित भारत 2047 के लक्ष्यों को प्राप्त करने की दृष्टि केंद्र और राज्यों की सरकारों को प्रदान कर रहे हैं। इसके बावजूद आज जनप्रतिनिधियों व राजनीतिक वर्ग के प्रति घटते सम्मान का विषय चिंतनीय है। एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ADR रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2019 में गठित लोकसभा के कुल सांसदों में से 43% अपराधिक मुकदमों का सामना कर रहे हैं। वर्ष 2014 की तुलना में 26 प्रतिशत की वृद्धि इस संख्या में पाई गई। यह संकेत ठीक नहीं।
प्रशासनिक दक्षता वाले कर्मचारी और अधिकारियों को पुरस्कृत करना होगा और अक्षम को व्यवस्था से दूर करना होगा। वहीं राजनीतिक दलों को भी सामाजिक जीवन में स्वच्छ छवि रखने वाले व योग्य उम्मीदवारों को प्रतिनिधित्व देना होगा क्योंकि कल वही जाकर विधानमंडल, नगर परिषद, पंचायत, लोकसभा, राज्यसभा में पदों की गरिमा को सुरक्षित रख पाएंगे और जनता का विश्वास अर्जित कर पाएंगे। वही जनप्रतिनिधि कार्यपालिका के साथ आंखों में आंखें डालकर जनता की समस्याओं को उचित मंच पर रख पाएंगे और न्यायपालिका में स्वयं के पक्ष से अधिक लोकहित के सार्वजनिक विषयों पर अच्छे निर्णय करवा पाएंगे। लोकतंत्र में विश्वास जागृत करने लिए ऐसी जनप्रतिनिधियों और लोक सेवकों की आवश्यकता है जो सुशासन के प्रति प्रतिबद्ध हो और भारतीय परंपरा की राजधर्म प्रणाली में अटूट विश्वास रखे हों।
एकात्म मानवदर्शन की दृष्टि से बहुमत या अल्पमत के फेर में न पड़कर सर्वसम्मत ढंग से कार्य करने की प्रणाली मजबूत होगी तो प्रशासन और राजनीति की दिशा ठीक हो पाएगी। धर्माधिष्ठित राज्य की संकल्पना को प्रभावशाली ढंग से शासन की प्रक्रियाओं में लाना है तो प्रतिबद्ध प्रशासकों के साथ-साथ जनता की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले जनप्रतिनिधियों को और जागरूक नागरिकों को भी भी आगे होना होगा तभी सुशासन की प्रणाली व्यवधान रहित होकर आगे बढ़ पाएगी।
लेखक भारतीय शासन एवं राजनीति के जानकार, राजनीति शास्त्र के सहा. प्रोफेसर हैं।
